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क्या अब ख़त्म होने लगा है प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का जादू?

15 अगस्त 2017 का स्वतंत्रता दिवस भाषण कई लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री का स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर यह चौथा भाषण था। स्वतंत्रता दिवस के भाषण का चुनावी भाषणों से अलग होना अपेक्षित है। यह भाषण, सरकार के काम-काज के लेखा-जोखा के साथ आने वाले समय में सरकार के उद्देश्य और उसके लिए अख्तियार किए जाने वाले रास्ते की व्याख्या भी होता है। वर्तमान सरकार अपने कार्यकाल के तीन साल भी पूरे कर चुकी है और “तीन साल बेमिसाल” का नारा भी आ चुका है। इसी बाबत स्वतंत्रता दिवस के इस भाषण का किसी और भाषण से ज़्यादा गहन विश्लेषण करने की ज़रूरत है।

पहली बार ऐसा हुआ जब प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषण की कलात्मकता और जादूगरी नहीं दिखा पाए अन्यथा उनके भाषण काफी रोचक और उर्जा से भरपूर, काफी तीव्र और तल्ख़ होते हैं। लेकिन इस बार वो लड़खड़ा रहे थे, उनके शब्द टूट रहे थे, ऐसा लगा कि उनके भाषण में उन्हें ही कम है। वो खुद से कन्विंस नज़र नहीं आ रहे थे, यह कहा जा सकता है कि उनके भाषण में नाटकीयता का भी अभाव नज़र आ रहा था।

मोदी जी ने शुरुआत के कुछ मिनट में ही भारत में प्राकृतिक आपदा और उनसे हुई मौतों के बारे में बोला जिसमें उनकी कनेक्टिविटी की काफी कमी थी। ज़्यादातर समय ऐसी बातों को वो खुद रुआंसे होकर प्रस्तुत करते हैं, जिससे उनके बोलने और उनके विश्वास में सम्बन्ध बन जाता है। इस बार वो सम्बन्ध टूटा हुआ था, इस बार उनके भाषण में वाकपटुता की कमी साफ झलक रही थी।

उनके भाषण के तौर-तरीके को अगर इग्नोर भी किया जाए और कंटेंट पर ध्यान दें तो उन्होंने अपने भाषण में सरकार की उपलब्धियों को सवाल-जवाब के तौर पर बतलाया। उन्होंने कहा कि जब उनकी सरकार आई तो कितने गांव बिना बिजली के थे और अब कितने गांव बिजलीयुक्त हो चुके हैं? विमुद्रीकरण के बाद कितना काला धन बैंक में आ चुका है? टैक्स पेमेंट करने वालों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। कितनी फर्जी कम्पनियां थी और उन सभी को उन्होंने बंद करवा दिया।

दाल के उत्पादन में अप्रत्याशित वृद्धि हुई और सरकार द्वारा उसकी खरीद की गयी। कृषि बीमा से कितने किसानों को लाभ मिला है? 42 साल में देश की सरकारें 70 से 72 किलोमीटर रेलवे ट्रैक बिछा नहीं सकी जिसे उन्होंने करवा दिया है। 80 अप्रूवल की जगह अब मात्र पांच फॉर्म्स भरने हैं, जीएसटी के आने से राज्यवार रोड ट्रांसपोर्ट में 30% की बढ़ोतरी हुई है। किसानों की आय 2022 तक दोगुना हो जाएगी।

सरकार के प्रधान होने के नाते उनके इस डाटा का परीक्षण करना आवश्यक है, किसी भी सरकार की बात को ऐसे ही मान लेना भी बेमानी है। ब्राउन यूनिवर्सिटी के आशुतोष वार्ष्णेय ने 2007 में कहा था कि किसानों की आय दुगुना करने के लिए भारत की कृषि को लगभग 14% की दर से बढ़ना होगा, जो कि 2016-17 में 4.1% की गति से बढ़ रही है। जहां देश कृषि से इंडस्ट्री की तरफ इतनी तेज़ी से बढ़ने की कवायद कर रह हो, वहां यह असंभव सा ही लगता है। ये बात सही है कि जीएसटी से राज्यवार रोड-ट्रांसपोर्ट में काफी वृद्धि हो सकती है, लेकिन यह कहना कि यह अभी बढ़ चुका है महज़ बोलना हो सकता है। दूसरी बात ये कि इसी जीएसटी को जब प्रधानमंत्री, गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने इसे सिरे से खारिज कर दिया था और इसी बिल को पिछली सरकार लागू भी नहीं कर पाई थी।

42 साल से 70 से 72 किलोमीटर का रेलवे ट्रैक नहीं लगा पाना महज़ राजनीतिक स्टेटमेंट लगता है, ये हो सकता है लेकिन यह कहना कि अभी तक कुछ नहीं हुआ है, जमता नहीं है। बिजली के तार गांवों में पहुंच चुके थे और कई जगह इनका पहुंचना अभी बाकी भी था, लेकिन जहां पहुंच चुके थे वहां बिजली की आपूर्ति है या नहीं उस पर उन्होंने कुछ नहीं कहा। दाल का उत्पादन अगर अधिक हुआ है तो दाल के दाम में कितनी गिरावट आई है, इस पर उन्हें बोलना चाहिए था।

उनके भाषण की सबसे बड़ी कमी उनके रेफरेंस हैं। मोदी जी पिछली सरकारों की नाकामी को रेफरेंस बनाकर अपनी सरकार की उपलब्धियां बताते नज़र आ रहे थे। यहां पर वो सबसे बड़ी गलती कर रहे होते हैं। रेफरेंस किसी सरकार की नाकामी नहीं बल्कि उन सरकारों की उपलब्धियां होनी चाहिए, इससे नकारात्मकता की जगह सकारात्मकता का संचार होगा जिसे लेकर वो बार-बार ध्यान खींचते रहते हैं।

बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ‘ग्रैंड नैरेटिव’ (आम भाषा में बड़ी-बड़ी बातें) गढ़ने में माहिर माने जाते हैं। करप्शन और आर्थिक विकास उनके लगभग सभी भाषणों का मुख्य बिंदु होता है। आर्थिक प्रगति का हिसाब-किताब तो इकोनॉमिक सर्वे में आ चुका है और भारत की जीडीपी या विकास दर लगातार घटती जा रही है। कई अर्थशास्त्री इसे विमुद्रीकरण का परिणाम ही मानते हैं। मोदी जी ने करप्शन पर यह कह दिया कि भारत में बेईमानी के लिए अब जगह नहीं और देश ईमानदारी का महोत्सव मना रहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि केन्द्रीय नेतृत्व पर अभी तक किसी बड़े करप्शन का आरोप नहीं है, लेकिन इस बात से कैसे गुरेज़ हो सकता है कि बीजेपी शासित राज्यों में पिछले कुछ सालों में करप्शन के भयंकर रूप देखने को मिले हैं। मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाला, बिहार में सृजन घोटाला, राजस्थान में ललित मोदी और वसुंधरा घोटाला, छत्तीसगढ़ में अन्न घोटाला और रिसोर्ट लैंड घोटाला इत्यादि प्रमुख है। कुछ ही दिन पहले गुजरात में राज्यसभा के चुनाव के दौरान कांग्रेस के विधायकों की खरीद भी इनमें प्रमुख है।

इसी कड़ी में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की आय में 300% की वृद्धि भी शामिल। रेलवे का करप्शन कैग (CAG) की रिपोर्ट में भी आ चुका है। पैसेंजर ट्रेन के यात्री से सुपरफास्ट ट्रेनों का भाड़ा वसूला जा रहा है, ट्रेनों की स्पीड कम कर दी गई है, भारत के इतिहास में ट्रेन की इतनी खस्ता हालत कभी नहीं रही। ट्रेन का लेट होना भारत में आम बात थी लेकिन इस तरह राजधानी का भी लेट होना अप्रत्याशित ही है। बिहार जाने वाली ट्रेन सीमांचल एक्सप्रेस मात्र चालीस घंटे लेट होती है, रेलवे के खाने पर भी कैग ने रिपोर्ट दे दी है। ये बात और है कि कॉंग्रेस और बीजेपी की करप्शन की परिभाषा शायद अलग-अलग हो सकती है।

सबसे महत्वपूर्ण ग्रैंड नैरेटिव में से एक कश्मीर है जिस पर उन्होंने ‘गोली नहीं, गाली नहीं बल्कि गले लगाने’ की बात कही है। इस बात के लिए प्रधानमंत्री बधाई के पात्र हैं। लेकिन इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि पहले ‘गोली’, फिर ‘गाली’ और अंत में ‘गले लगाने’ की बात करना कश्मीर में विश्वास जगाने की राह में रोड़ा बन सकता है। संप्रभु राज्य या देश का काम, आने वाले रोड़े के रास्ते में रोड़ा बन जाना है। मोदी जी की इस बात पर विश्वास करने में काफी वक्त लग सकता है। दूसरी तरफ इस बात में कोई दो राय नहीं कि मुस्लिम समुदाय के लोगों पर हो रहे अटैक ने समुदाय का सरकार में विश्वास लगभग तोड़ दिया है। इस विश्वास को जीतने में देश को सालों लग जाएंगे। उन्होंने इस पर ध्यान आकृष्ट तो किया लेकिन इस पर ज़्यादा समय नहीं दे पाए।

सबसे बड़ी भूल पर ध्यान देना आवश्यक है। दक्षिण के राज्यों में जाकर उनकी भाषा में एक शब्द बोलना और दिल्ली के लालकिले से दक्षिण के राज्यों की बात करने में बहुत अंतर है। दक्षिणी राज्य हमेशा से इग्नोर फील करते आए हैं। प्रधानमंत्री का हिंदी में बोलना गलत नहीं, क्यूंकि वो इसमें सहज हैं लेकिन लालकिले से दक्षिण के राज्यों की चर्चा मात्र से ही उनमें विश्वास पैदा हो सकता है।

प्रधानमन्त्री ने बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश, ओडिशा, आसाम, बंगाल और उत्तर-पूर्वी राज्यों का नाम तो लिया लेकिन दक्षिण के राज्यों की अनदेखी इस देश की अखंडता के लिए घातक साबित हो सकती है।

बहरहाल, प्रधानमंत्री में लोगों का अटूट विश्वास उनकी सबसे बड़ी ताकत है, लेकिन ये ताकत तब तक है जब तक जनता का यह विश्वास है कि प्रधानमंत्री जो बोल रहे हैं, उसे करने में उनको भी विश्वास है। उनके भाषण में उनका लड़खड़ाना इस बात को उजागर करने लगा है कि उनके बोलने और करने में अंतर होने लगा है और अब उनका विश्वास भी कम होने लगा है।

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