एक छोटी सी बच्ची जिसकी उम्र लगभग 7-8 साल होगी और उसके कुछ साथी अचानक से ट्रेन के भीतर आये, कटोरा साइड में रखा और अपना करतब दिखाने लगे। कोई ढोल बजा रहा था, कोई गुलाटी मार रहा था तो कोई नाचना और गाना शुरू कर दे रहा था।
ये बात तब की है जब मैं ठंड की छुट्टियां मनाने गुवाहाटी जा रही थी। लगभग आधा रास्ता मैंने तय कर लिया था। मैं गुवाहाटी से कम-से-कम 100 कि०मी० की दूरी पर थी, रात के लगभग 8 बजे थे कि तभी कुछ बच्चे अंदर आये और उन बच्चों ने अपने अजीबो-गरीब हरकत से सभी का मन मोह लिया।

सभी लोग बड़ी दिलचस्पी के साथ उन्हें देखने लगे। हमारे साथ शैक्षणिक भ्रमण के लिए जा रहे छात्र-छात्राएं भी सफर कर रहे थे। छात्रों का गुट भी आश्चर्यचकित हो एकटक से उन्हें देखने लगा। उनकी करतब देख लोग ज़ोर-ज़ोर से ठहाके भी लगा रहे थे। माहौल बन गया, बच्चे और ट्रेन में बैठे लोग इसका भरपूर आनन्द उठा रहे थे कि तभी सब कुछ बंद कर उन्होंने अपना कटोरा उठाया और सबसे पैसे मांगने शुरू किये। अब बात तो सही है भईया उन्होंने इतनी मेहनत की है, तो मेहनताना भी उन्हें ज़रूर मिलनी चाहिए। इसी आशा के साथ उन्होंने अपना काम शुरू किया।
किसी ने पैसे दिए तो किसी ने खाने का सामान, जिसने जो दिया उन बच्चों ने सब रख लिया पर जब उसके सहभागी ने पूछा “कितने पैसे मिले”? तब वह छोटी सी गुड़िया टांस भरी आवाज़ में बोलती है, “80 रूपए ही हुए कुछ ने तो पॉपकॉर्न और बिस्किट देकर ही फुसला लिया।” उसकी इस बात पर लोग ज़ोर से हंस पड़े और आश्चर्य भरी निगाहों से देखने लगे। शायद कुछ लोग ये भी सोच रहे होंगे, “उम्र इतनी सी और ज़ुबान कैंची की तरह।” पर लोग इसके पीछे का कारण जानने की कोशिश नहीं करते, मजबूरी और हालात शायद उन्हें ऐसा बनने और करने पर मजबूर कर देते हैं।
मुद्दा वह नहीं जो मैं ऊपर अभी तक आपके साथ बांट रही थी, विषय तो बहुत ही गंभीर और चिंताजनक है। सवाल उन बच्चों के भविष्य का है, जो आज ट्रेन में नाचने को मजबूर हैं, पैसे मांगने को मजबूर हैं। मैंने तो चार को देखा है, देशभर में ना जाने ऐसे कितने बच्चे होंगे। इनको देखकर ज़हन में दो सवाल उठते हैं,
- पहला कहीं इन बच्चों को साज़िश के तहत धंधा तो नहीं कराया जा रहा और वे पैसे जो उन्हें मिलते हैं वे पैसे गलत कामों के लिए तो नहीं जा रहें।
- दूसरा शायद वे सही में इतने गरीब हैं कि उन्हें अपना पेट भरने के लिये इन कार्यों का सहारा लेना पड़ रहा है। दोनों ही मामले बेहद संवेदनशील और भयानक हैं।
दोनों ही विषय मन को विचलित करते हैं, हमारे सामने चुनौती प्रस्तुत करते हैं। जिनके हाथों में पढ़ने के लिए किताबें और खेलने के लिए गेंद होनी चाहिए, उनके हाथों में भीख मांगने के लिए कटोरा दे दिया गया है। उनके ऊपर पूरे घर-परिवार की ज़िम्मेदारी दे दी गयी है, जिसे वह बखूबी समझते भी हैं और निभाते भी।
पर क्या इस तरह हमारी आने वाली पीढ़ी शिक्षित हो पायेगी? क्या भारत में सभी को इंटरनेट से जोड़ने की योजना सफल हो पायेगी? कहीं वे किसी ऐसे दलदल में पैर ना रख दें, जिससे वे भविष्य में निकलना भी चाहे तो निकल ना पायें। उनकी उम्र के बच्चे खेलते हैं, कूदते हैं, ज़िद करते हैं, माता पिता से लड़ते-झगड़ते हैं। पर उन्हें कुछ भी नसीब नहीं हो पा रहा है और वे इन सबसे अंजान बैठे हैं। कहीं “ज़िम्मेदारी रूपी दीमक” उनके भविष्य को खोखला ना कर दे।
भारी चिंतन का विषय है यह। सवाल भी हज़ार हैं पर जवाब देने वाला कोई नज़र नहीं आता। शायद जवाब उनके पास भी नहीं होंगे जो लोग उस रात ट्रेन में ठहाके लगा रहे थे।