देश के हर कोने में एक बड़ा वर्ग विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर है। विकास के नाम पर किया जाने वाला विस्थापन आज एक गंभीर समस्या बन चुका है। कई इलाकों में विकास के नाम पर गरीबों से उनके घर, ज़मीन तो छीन लिए गए लेकिन, मुआवज़े के वादे कभी पूरे नहीं हुए।
झारखंड में आदिवासियों और ग्रामीणों के साथ विस्थापन की एक ऐसी ही लड़ाई लड़ रही हैं दयामनी बारला, जिन्हें झारखंड की आयरन लेडी के रूप में भी जाना जाता है। दयामनी बारला का कहना है कि वो आदिवासी, दलित और महिलाओं की ज़िन्दगी के सवालों की लड़ाई लड़ रही हैं। दयामनी 1995 में झारखंड में जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई से जुड़ी थी, तब से लेकर आज तक वो झारखंड के लगभग सभी आंदोलनों में शामिल रही हैं।
दयामनी बताती हैं, “1995 की बात है उस वक्त जब मैं कॉलेज में थी, तभी झारखंड में कोयल कारो परियोजना (Koel Karo Hydel Project) पर बड़े स्तर पर काम होने जा रहा था। सरकार का कहना था कि वो इस प्रोजेक्ट के ज़रिए 710 मेगावाट की बिजली पैदा करेगी। (1973 में ही इस प्रोजेक्ट को प्रस्तावित किया गया था और उसी वक्त से इसका विरोध शुरू हो गया था।) बिजली निर्माण में ग्रामीणों और आदिवासी लोगों को उनके जीवन की बुनियादी ज़रूरतों से महरूम किया जा रहा था। प्रोजेक्ट की वजह से 256 गांव के लोगों का घर छीन लिया जाता, लगभग दो लाख से भी ज़्यादा लोग विस्थापित हो जाते, करीब 55 हज़ार हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि पानी में डूब जाती। साथ ही 27 हज़ार एकड़ जंगल भी इस प्रोजेक्ट की वजह से बर्बाद हो जाता। हम सरकार को इस तरह से आदिवासी और ग्रामीण लोगों का अधिकार छीनने नहीं दे सकते थे। उसी समय मैं इस लड़ाई में शामिल हो गई। हमने कई और लड़ाईयां लड़ी। हमने लोगों को मोबिलाइज़ किया और करीब 10 साल तक इसकी लड़ाई लड़ी गई। ”
दयामनी बारला, बताती हैं कि ये लड़ाई इतनी आसान नहीं होती। उनका कहना है कि विस्थापन की लड़ाई ही अपने आप में बहुत बड़ी लड़ाई होती है। आप जब जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई लड़ेंगे तो आप अपने ऊपर होने वाले हमले के लिए भी तैयार रहते हैं।
वजह साफ है विस्थापन की लड़ाई सरकार के खिलाफ होती है, बड़ी-बड़ी कंपनियों के खिलाफ होती है, कंपनियों के दलालों के खिलाफ होती है। सत्ता और सत्ता पोषित इन ताक़तवर लोगों के खिलाफ लड़ाई लड़ने पर आपके ऊपर जानलेवा हमले होते हैं, आपको हर वक्त एक भयावह आतंक के साये में जीने के लिए विवश कर दिया जाता है। ये सिर्फ झारखंड ही नहीं, देश के हर कोने में लड़ी जा रही इस तरह की लड़ाई की कहानी है।
जब मैं इस लड़ाई से जुड़ी उस वक्त मेरे सामने एक ही सवाल था कि मुझे अपने लिए जीना है या समाज के लिए। जब आप अपने लिए जिएंगे तो ज़ाहिर है, समाज सुरक्षित नहीं रहेगा। इसलिए मैंने फैसला किया कि मैं समाज को सुरक्षित रखने की अनवरत लड़ाई के लिए अपने को तैयार रखूंगी। समाज मेरे साथ था, लोग मेरे साथ थे। मुझे कई धमिकयां मिली कि गांव नहीं छोड़ोगी तो तुम्हें गोली मार देंगे। लेकिन मैं धमकियों से डरने वालों में से नहीं थी। मैंने कहा, मैं अपने रास्ते से हटने वाली नहीं हूं, मुझे रोकने के लिए तुमसे जो बन पड़े, वो तुम करो। मुझे डरता नहीं देखकर उन लोगों ने अल्टीमेटम दिया कि अगर आंदोलन से नहीं हटोगी तो हम तुम्हें गांव वालों के बीच से उठाकर ले जाएंगे। मैं तब भी अपने लोगों के बीच डटी रही और मैंने कहा आपको जो करना है करिए।
दयामनी ने कॉलेज की पढ़ाई के बाद किसी बड़ी कंपनी में काम करने की जगह चाय की दुकान चलाने का फैसला किया और तब से लेकर आजतक वो एक चाय की दुकान चलाती हैं। दयामनी का कहना है कि जब मैंने पीपुल मूवमेंट से जुड़ना शुरू किया तब मुझे लगा कि मुझे अपने रोज़गार के लिए खुद ही कुछ करना चाहिए। 96 में रांची में मैंने चाय की दुकान चलाना शुरू किया। मुझे समझ में आ गया था कि सरकारी या किसी प्राइवेट कंपनी में काम करते हुए मैं समाज की इस लड़ाई के लिए शायद ही कुछ कर पाऊंगी। 96 से ही मैंने क्लब रोड में चाय की जो दुकान शुरू की अभी भी उसे वहीं चला रही हूं। उसे चलाते हुए मैंने पत्रकारिता पर भी हाथ आज़माइश की जो बाद में आंदोलन को मजबूती देने में भरपूर काम आया। मेरा अनुभव है कि यदि आप आंदोलनों में सर से पांव तक डूबे रहने के साथ उस पर कलम चलाने का गुर भी हासिल कर लेते हैं तो आपके काम की गुणवत्ता में और वृद्धि हो जाती है। मैंने आगे के सभी आंदोलनों में अपने इस कौशल का भरपूर इस्तेमाल किया और इसका वांछित असर भी दिखा। दयामनी दस साल तक आर्सेलर मित्तल कंपनी के द्वारा 30 गांवों के जीवन अधिग्रहण कर स्टील कारखाना लगाने के विरोध के आंदोलन में भी शामिल रहीं।
दयामनी यह बताना भी नहीं भूलती कि जब एक निहायत परंपरागत समाज की लड़की इस तरह के काम में शामिल होती है तो सबसे पहले उसकी लड़ाई अपने घर से ही शुरू होती है। दयामनी बताती हैं कि जब एक जवान लड़की प्रायः 24 घंटे घर से बाहर रहेगी तो अच्छे से अच्छे परिवार में उसका गहरा प्रभाव तो पड़ेगा ही। एक पढ़ी लिखी लड़की से सबको उम्मीद होती है कि वो कोई अच्छी नौकरी करे, परिवार को आर्थिक सुरक्षा देने में अपनी जिम्मेवारी समझे। शुरुआत में मेरे परिवार को भी ऐसा ही लगा। लेकिन, मैंने तो अपने लिए एक अलग रास्ता चुनने तथा अपनी निजी दुनिया से परे एक वृहत्तर दुनिया से नाता जोड़ लेने की ठान रखी थी। हालांकि, मुझे फख्र है कि मैंने अपने काम और लगन से प्रारंभिक पारिवारिक आपत्तियों और विरोधों पर भी विजय पा ली।
दयामनी अपनी कार्रवाइयों में समाज की संस्कृति की संरक्षण के सवाल को भी शामिल करना नहीं भूलती। वे हमें बताती हैं कि सन् 2000 में जब अलग झारखंड स्टेट बना तो यहां कोई फैशन परेड होने वाली थी। जबकि हमने विशेष तौर पर अपनी भाषा, संस्कृति और साहित्य के संवर्धन एवं विकास के लिए भी अलग राज्य की मांग की थी। हमें लगा कि इस महानगरीय फैशन परेड के आयोजन से हमारे नवनिर्मित राज्य की सांस्कृतिक पहचान के लिए एक गलत मैसेज जाएगा। फिर हमने विरोध मार्च निकाला। जब 6 दिसंबर 2000 में हमारे विरोध मार्च की वजह से लोगों को आयोजन स्थल के अंदर जाने में दिक्कत हो रही थी तो हम पर लाठियां बरसाई गईं, हमें गिरफ्तार किया गया। मगर हमें लगा कि हम अपने उद्देश्य में कामयाब रहें क्योंकि संस्कृति पर इस विजातीय ख़तरे को लेकर समाज में एक वृहत्तर चिंता तो व्याप्त हो ही गई।
दयामनी जल, जंगल ज़मीन के मूवमेंट में 2012 में करीब 3 महीनों तक जेल में रहीं। अभी वर्तमान में सारे प्रोजेक्ट रूके हुए हैं। लेकिन, दयामनीऔर उनके साथ आंदोलन लड़ रहे साथियों का कहना है कि हम विकास के विरोध में नहीं है। उनका कहना है, “विकास के मॉडल को बदलने की ज़रूरत है। हमारा जो अनुभव है आज़ादी के बाद 1 करोड़ से ज़्यादा लोग झारखंड में ज़मीन दे चुके हैं। मगर अधिकांश के पास उनके रहने के लिए घर नहीं है। वे बंधुआ मज़दूर बन कर रह गये हैं। उनका कोई परिवार नहीं, शिक्षा की कोई गारंटी नहीं, हेल्थ की कोई फैसिलिटी नहीं। सरकार के पास उनका कोई रिकॉर्ड नहीं, उनके लिए कोई सरकारी योजनाएं नहीं। सराकर सिर्फ दावा करती है हम तुमको ज़मीन देंगे, रोटी देंगे ! मगर सरकार लगातार फेल रही है, उन्हें धोखा देने के सिवाय सरकार ने शायद ही कुछ दिया हो।”
दयामनी बताती हैं, “हां, इस दौरान सरकार के सर्वग्रासी विकास की पीड़ा को झेलते इन दुखियारों के साथ मैं रही हूं। इन्हें आंदोलित करने और इनके अंदर अपने वाजिब हक की खातिर सरकार और प्रशासन से लड़ने भिड़ने का जज़्बा भरने में अपनी सारी शक्ति झोंक देने में मैंने कोई कोताही नहीं बरती। इसके पीछे निश्चय ही मेरे साथियों की एकजुटता और साहसिकता को रत्ती भर भी कम करके नहीं आंका जा सकता। विस्थापन की पीड़ा पर मैंने किताब भी लिखी, विस्थापन का दर्द। मैं कहती हूं विकास के नाम पर हमने अपना सर्वस्व दे दिया। विकास का जो मॉडल इस सरकार ने आज तक बनाया, उसके चलते झारखंड में पानी की दिक्कत भयावह हो गई है। 1000 फीट नीचे बोरिंग करने पर भी पानी मिलना मुश्किल हो गया है। सहायक नदियां भी प्रदूषित हो गईं है, अंधाधुंध औद्योगिकरण के कारण।
लेकिन, अब हम लोग पूरी ताकत के साथ बोल रहे हैं कि अब और ज़मीन नहीं देंगे। सरकार को अब विकास का नया मॉडल तैयार करना होगा- प्रकृति और कृषि बेस्ड मॉडल। कुटीर उद्योग का एक नया रास्ता, रोज़गार का एक नया रास्ता खड़ा करना होगा। यहां पर जितने भी वॉटर बॉडीज़ हैं वो आगे सुरक्षित रहे, इसकी चिंता अब प्रधान होनी चाहिए।”