सुबह-सुबह रविवार को उठकर ऑफिस आना वैसे ही कम बड़ी मुसीबत है क्या, जो ये कौआ खिड़की के बाहर बैठ कर कांव-कांव कर सर में दर्द कर रहा है? क्या ही शिकायत कर सकते हैं पर इससे, मेरी बात मानकर चुप तो होगा नहीं। वैसे मज़ेदार नज़ारा है, हल्की-हल्की बारिश हो रही है और ये जनाब खिड़की पर पनाह लेकर नीचे देखते हुए जैसे मज़े ले रहे हो, “अरे देखो, लोग! अजीब लोग।”
घर पर जो काम करने आती है कल उनसे बात हो रही थी। मेरी ही उम्र की हैं वो लगभग, बता रही थी कि कैसे उन्हें भूतों से बहुत डर लगता है। मुझे हंसी आ रही थी और मन ही मन मैं हंस ही रही थी। पर हर इंसान की अपनी सोच, अपने विचार हैं; ठीक है। क्या पता शायद होते हों भूत! बस मैं नहीं मानती।
वो बता रही थी कि उनके गांव में कैसे पिछले कुछ दिनों में कई लोग मर गए और अभी हाल ही में उनके गांव की एक सहेली जो यहां मुंबई में ही रहती है, उसकी भी मौत हो गयी। वो सच में समझती है कि यह भूत-प्रेत का काम है। मैंने भी फिर ज़्यादा सवाल-जवाब नहीं किया।
फिर आज न्यूज़ पढ़ रही थी तो कुछ आर्टिकल्स देखे जिसमे देश भर में कई जगहों से अजीब खबरें आ रही हैं कि कैसे कोई औरतों की चोटी काट दे रहा है। पहले तो मैं हंस पड़ी कि यह क्या बात हुई! फिर और थोड़ा सर्च करने पर देखा की दिल्ली, गुडगांव, उत्तर प्रदेश, बिहार और अलग-अलग जगहों से ये खबरें आ रही हैं। फिर समझ आया कि मसला ‘मास हिस्टीरिया’ का है।
आपको मंकीमैन याद है ना? मैं तो काफी छोटी थी उस वक़्त, बस सुना था कि एक मंकीमैन आता है। तब मैं अपने परिवार के साथ बिहार में रहती थी। रात में थोड़ा डर लगता था कि कहीं खिड़की से मंकीमैन ना आ जाए, डबल चेक करके भी बिना थोड़ी-थोड़ी देर पर उठे नहीं सो पायी थी कुछ दिन। किसी से कहा नहीं तब, सब हंस देते ना।
फिर अभी कुछ दस साल पहले ये खबर भी आयी थी की माहिम में एक तालाब का पानी अचानक मीठा हो गया है और लोग वो पीने के लिए देशभर से उमड़ आए क्यूंकि ये कोई चमत्कार था।
अब यह सब सोचकर हंसी आती है। पर दूध पीने वाले गणेश जी, एलियन के पैरों के निशान, शिव जी के चेहरे वाले आलू, ऐसी अतरंगी ख़बरें और उनके प्रति लोगों की और भी अतरंगी प्रतिक्रिया हमारे बारे में कुछ तो दर्शाता ही है, है ना? सच तो यह है कि 2017 में भी हम ऐसे हैं कि हमारे बीच मास हिस्टीरिया फैलाना बहुत आसान है।
आप सोचिये कि कौन सा भूत ऐसे लोगों की चोटी काटते फिरेगा? कैमरे के सामने आने के लिए क्या लोग ये नहीं कर सकते? या फिर बस डर के मारे? मैं नहीं कह रही कि ऐसा ही है, पर ऐसा हो भी सकता है। यूजीन इनस्को (एक बहुत बेहतरीन फ्रेंच लेखक) की किताब राइनोसॉरस की कहानी याद आ गई। इसमें होता कुछ यूं है कि एक आदमी शहर में राइनोसॉरस बन जाता है, फिर दूसरा, फिर तीसरा और धीरे-धीरे बाकी सब। मानवता छोड़ कर ये सभी सड़क पर भगाने लगते हैं, दहाड़ने लगते हैं और सिर्फ एक आदमी अंत में खड़ा देखता रह जाता है।
ये चोटीकटवा की कहानी कुछ ऐसी ही लगती है। इसके कई तर्क हो सकते हैं, पब्लिसिटी, धार्मिक उन्मांद फैलाना, मास हिस्टीरिया फैलाना। कुछ भी हो सकता है, मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि हम ज़रा सोचे कि कहीं हम सब राइनोसॉरस तो नहीं बन रहे ना?
अच्छा वैसे एक सवाल और भी है मन में कि ये जो सबकी चोटी काट रहा है, उसे अगर कोई रॉकस्टार जैसा लंबे बालों वाला लड़का मिला तो उसकी भी काटेगा? या सिर्फ औरतों की ही काटता है? बस सवाल है, बुरा ना माने।