हर राज्य की अपनी भौगोलिक या राजनीतिक परिस्थितियों के कारण एक ख़ास पहचान बनी हुई है। इसी भौगोलिक पहचान के कारण बिहारियों से इस तरह के सवाल पूछा जाना आम है- ‘अच्छा तो तुमने बाढ़ देखा है क्या?’ ‘तो तुम भी बाढ़ में फंसी थी या फंसे थे?’ ये सवाल कुछ हद तक सही भी हैं। लेकिन सवाल जब आदत बनने लग जाएं तो इसका मतलब मतलब वो प्राकृतिक नहीं हैं बल्कि मैनमेड बन चुके हैं। कोसी बाढ़ भी नेचुरल डिजास्टर नहीं बल्कि एक मैनमेड डिजास्टर बन चुकी है।
साल 1979 से 2008 तक लगातार बिहार में बाढ़ से तबाही हुई है। उसके बाद बीच में एकाध साल रुकी भी लेकिन फिर वही तबाही, ऐसे में इसे प्राकृतिक कहना उचित नहीं। बचपन से पढ़ते थे कि ‘बिहार की शोक’ कोसी नदी को कहते हैं, ये नदी बस एक शोक बनकर ही रह गई है। कभी थोड़ा ज़्यादा तो कभी थोड़ा कम। जैसे इस साल की बाढ़ में अभी तक तकरीबन 253 लोगों की मौत हो चुकी है। नतीजतन उसका पानी सोशल साइट्स पर भी नज़र आ जाता है।
कोसी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है और अपना मार्ग बदलने के लिए जानी जाती है। दुनिया की कुछ जटिल नदियों में बिहार की कोसी नदी का प्रवाह भी है। कुछ भूगोलविदो ने कोसी के प्रवाह और चीन की ह्ववांगहो या पीली नदी के प्रवाह का तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। दोनों ही नदियां अपना मार्ग बदलने के लिए जानी जाती हैं। इसलिए बिहार के संदर्भ में बाढ़ की समस्या जटिल तो है लेकिन इसका निदान असंभव नहीं।
नदी की जैसी प्रकृति है वो वैसी ही रहेगी। अपवाह तंत्र (drainage system) पढ़ाते समय भूगोल के स्टूडेंट को यह बताया जाता है कि जैसे मनुष्य अपने शरीर से छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं कर सकता वैसे ही नदियां भी उनके साथ होने वाली छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं कर सकती। बारिश के बाद नदियों का जलस्तर बढ़ना प्राकृतिक है। लेकिन अंधाधुंध तटबंध बना कर उसके प्रवाह को रोकना अप्राकृतिक है। तटबंध बनाकर हम बाढ़ पर नियंत्रण की कोशिश करते हैं, जबकि ज़रूरत फ्लड मैनेजमेंट की है। बाढ़ प्रबंधन की ना कि नियंत्रण की।
कोसी, बागमती, गंडक ये हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं जो अपने साथ, मिट्टी, कंकड़, पत्थर (जिसे गाद भी कहते हैं) लेकर चलती है और मैदानी इलाको में आने के बाद पलट देती है, अब तटबंध बने होने के कारण यह नदियां घिर जाती हैं और गाद बाहर नहीं निकाल पाती। जब पानी का दबाव नदी पर बढ़ता है तो नदी अपना गाद तटबंध की तरफ पलटती है और तटबंध साफ! इसलिए जहां तक समझ आता है तटबंध बनाने से बचा जाए।
बिहार का बड़ा हिस्सा अभी बाढ़ की चपेट में है, मृतकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। खबरें ये भी आई थी कि गंगा का जलस्तर भी बढ़ रहा है। अगर गंगा में बाढ़ आया तो बिहार के लिए तबाही का मंज़र क्या होगा ये अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है। बिहार में गंगा में बाढ़ के लिए फरक्का डैम को बहुत कोसा जाता है, हाल में 15 अगस्त के अपने भाषण में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी इसका ज़िक्र करते हुए कहा था कि फरक्का डैम से आने वाले गाद के कारण गंगा में बाढ़ का खतरा लगातार बढ़ते जा रहा है। जिस फरक्का डैम को नीतीश कुमार तोड़ने की बात कर रहे हैं आइये ज़रा समझते हैं उसके बारे में।
बंग्लादेश की सीमा से 16 किलोमीटर की दूरी पर मुर्शीदाबाद में बना फरक्का बांध (फरक्का जल समझौता इसी से जुड़ा है) 1975 में बनकर तैयार हुआ था। बांध बनाने का मकसद कोलकाता बंदरगाह पर जमे गाद को हटाना था। यहां इतना गाद जमा हो गया था कि जहाज नहीं चल पाते थे, कोलकाता बंदरगाह हुगली नदी पर है। तर्क ये था कि गंगा के 40 हजार क्यूसेक पानी को फरक्का बांध के जरिए हुगली में मोड़ दिया जाएगा और पानी के दबाव में गाद खाली होगा। लेकिन हुआ उल्टा! दरअसल, फरक्का बांध के होने की वजह गंगा की प्रवाह में अवरोध होता है। अन्य नदियों और ‘हमारी गदंगी’ का गाद बांध के अवरोध से वहीं रुकता जा रहा है और वहां गाद का टीला बनता जा रहा। कोलकाता बंदरगाह की समस्या भी जस की तस है, बांग्लादेश के साथ पानी की समस्या अलग, और गंगा में गाद की समस्या अलग।
भूगोल के हिसाब से एक बांध की उम्र का आकलन 50 साल है (अनुमानित) फरक्का बांध को 42 साल हो चुके हैं। ऐसे में इस बांध की उपयोगिता के संबंध में बयानबाज़ी कम और एक ठोस निर्णय लिया जाना ज़रूरी है। विदेशों में बीस साल बाद ही बांध की समीक्षा शुरू हो जाती है।