मौजूदा समय में टी.वी. ने मनोरंजन का एक ऐसा सच खड़ा किया है, जहां सब मस्त हैं। टी.वी. पर कोई नाच ही रहा है, तो कोई गाना ही गा रहा है या तो कोई हंसाए ही जा रहा है और लोगों की हंसी उड़ा रहा है। इस बात से बेपरवाह कि तमाम विविधताओं को ही स्टीरियोटाइप चुटकुलों की तरह पेश किया जा रहा है। लगभग तमाम रियैलिटी शोज़ की प्रस्तुती कुछ इस तरह है कि उसके बहाव में आप वर्ग, जेंडर और कई श्रेणियों में बंटते हुए नज़र आते हैं। यह एक ऐसा पहलू है जिसके प्रति दर्शकों को सजग होने की ज़रूरत है।
टी.वी. के मनोरंजन उद्योग ने अपने दर्शकों को बनाए रखने के लिए धार्मिक पात्रों, इतिहास के वीर नायकों, मिथक कथाओं और सामंती मूल्य वाली गाथाओं पर आधारित सोप-ओपराज़ को दर्शकों के लिए पेश किया। इन पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि केवल औरतें ही परेशान हैं, सताई हुई हैं, घबराई हुई हैं। वो सब कुछ बदलने के बजाए बदला लेने के लिए तैयार खड़ी हैं या विवशता में सबकुछ स्वीकार करने के लिए तैयार खड़ी हैं। असल में भारतीय टी.वी. के मनोरंजन उद्योग के पास दर्शकों के मनोरंजन की कोई मौलिक* परियोजना नहीं दिखती है।
आज के दौर में भारतीय टी.वी. ने जो स्त्री-छवि बनाई है, उसमें कथित परंपरावादी (साड़ी, पल्लू, घूंघट और लाज वाली) स्त्री की जगह एक नई स्त्री है जो नए सच को स्थापित करती है। इस छवि में वो लड़कियां हैं जो अधिक आत्मविश्वासी हैं, अधिक मुखर हैं, लोक-लाज से मुक्त हैं, अपनी पीड़ा, अपनी कामना और अपनी बात कहने वाली हैं। यही आज के समाज का आईना है जो हर नए बनने वाले स्पेस की नई तस्वीर भी है।
फिर भी चिंता की बात यह है कि जब ज़माना बदल गया है, जनतंत्र है, कानून की नज़र में स्त्री-पुरुष एक समान हैं। सबका साथ सबका विकास है, बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ है। फेसबुक की नीली दीवार है, चहचहाती चिड़िया और वाट्सअप है। फिर भी लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं पर आत्मनिर्भर हैं, जागरूक हैं और सदमा झेलने को तैयार हैं। लेकिन सामंती* समाज वहीं का वहीं है जहां पहले था। इसलिए सोप-ओपराज़ की स्त्रियां परेशान हैं, शिक्षित होकर भी आधुनिक बेटियां, पत्नियां और प्रेमिकाएं शारीरिक तौर पर आज़ाद होकर भी, मानसिक गुलामी की शिकार हैं।
समाज में मर्दवादी चेतना नहीं मरी है, इसलिए महिलाएं मुक्त नहीं हैं। बालिका वधू, ना आना इस देश में लाडो, अब के बरस मोहे बिटिया ही दीजो जैसे सीरियलों में इतनी स्थिति तो सही बनाई ही गई कि अति नाटकीयता के बीच कुछ पल ऐसे भी थे, जिसमें औरतों के शोषण, उनके साथ होने वाली हिंसा और दमन को दिखाया गया। जो सीमित अर्थों में ही सही लेकिन सार्थक मानी जा सकती है। अब शोषण और दमन का चेहरा बदल गया है क्योंकि देश बदल गया। इसलिए अब रामायण की कहानी का शीर्षक ‘सिया के राम’ है, तो चंद्रगुप्त की कहानी का शीर्षक ‘चंद्र नंदनी’ है। इसलिए पहले पुरुष, प्रियतमा की पहरेदारी करता था तो अब स्त्री, पिया को पहरेदारी करती है। यानी पहरेदार हमेशा नए अवतार में आता ही रहेगा।
मौजूदा समय में टी.वी., घरेलू स्पेस में अपने सांस्कृतिक अर्थ को खोलता है। इस घरेलू स्पेस के अतिक्रमण पर जितनी अधिक बहसें घरों के ड्रॉंईग रूमों में होगी, कार्यक्रमों को उतना ही ज़्यादा देखा जाएगा, टी.आर.पी. उतनी ही ज़्यादा बढ़ेगी और कमाई भी। फिर 18 साल की नायिका के 9 साल के बच्चे से रोमांस करने में कुछ भी गलत नहीं है। एक छोटा सा लड़का जिसकी उम्र स्कूल में खेलने की है, वो किसी सीन में सिंदूर भरता है, प्यारी-प्यारी बातें करता है, किसी एडल्ट की तरह हरकतें करता है, कुल मिलाकर प्यार करता है।
ज़ाहिर है कि आप ऐसा कुछ दिखाएं जो ना केवल दिलचस्प हो बल्कि चर्चा में भी आ जाए तो कार्यक्रमों में आने वाले प्रचार अधिक होंगे और स्पॉंसर लाईन लगाएंगे। मैनेजेबल विवाद को बनाए रखो, जिससे दर्शकों की कमी ना हो। औरत को कमज़ोर दिखाने और मर्द को मर्दवाद परोसने में ही चैनलों का फायदा है। इसलिए तमाम मनोरंजन परोसने वाले चैनल, मिडिल क्लास की भावना को छेड़कर, भड़काकर, बहसों में लाकर दर्शकों को पोजिशन लेने पर विवश कर के अपनी कामयाबी का रास्ता बनाते हैं।
इसकी कीमत किसी चैनल को नहीं बल्कि आम दर्शक को चुकानी है, क्योंकि इससे पैदा होने वाले मूल्य दर्शकों के सांस्कृतिक बोध* को तोड़ ही नहीं रहे बल्कि नए मूल्यों* को बना भी रहे हैं। इस तरह के तमाम शो आम औरतों के मन में प्रिय बना दी गई परंपरा प्रदत्त* सामंत की मर्दानगी वाली छवियों को भी गढ़ रहे हैं और सामंती अवशेषों को समकालीन* जीवन मूल्यों में घोलने का काम भी कर रहे हैं।
तमाम सोप-ओपेराज़ में प्रस्तुत महिलाओं की छवियों के विषय में यह समझने की ज़रूरत है कि मनोरंजन उद्योग अपनी कमाई की एटीएम मशीन सिर्फ महिलाओं के पीठ पर क्यों टांगना चाहता है? एक बड़ा स्त्री उपभोक्ता वर्ग, आपके कार्यक्रमों के रूढ़िवादी*, मर्दवादी और सेक्सिस्ट मूल्यों को क्यों देखे? क्या इस तरह के कार्यक्रम आपके उस संकल्प को पूरा करता है जो प्रसारण के अधिकार के वक्त आपने लिया था?
ज़ाहिर है कि मनोरंजन उद्योग, एक नई तर्कशील महिला की छवि को भी उसी सांचे में ढालने का काम कर रहा है, जो अपने पति और एक अदद घर की खातिर खुद को समर्पित कर देती है। उसकी प्रोफेशनल छवि वाली महिला भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उन्हीं मूल्यों में बंधी हुई है जिसको बदलने की वो कोशिश तो करती है, पर कर नहीं पाती है। पहले वो आत्मनिर्भर महिला के रूप में सामने आती है और आखिर में आदर्श पत्नी बनकर घर में रम जाती है। शुरूआत में वह अपना जो स्पेस आत्मनिर्भर तरीके से बनाती है, सामाजिक मूल्यों के आगे घुटने टेककर पहरेदार पिया की बन जाती है।
1- मौलिक- Original 2- सामंती- Feudal 3- बोध- Realization 4- मूल्यों- Values 5- परंपरा प्रदत्त- Culturaly Given
6- समकालीन- Contemporary 6- रूढ़िवादी- Conservative