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कभी-कभी तो लगता है कि मेरा नाम ही ‘ऐ रिक्शा’ है साहब

अनिल यादव:

शनिवार की रात को घूमने निकला था हल्की-हल्की बारिश के बीच, सड़के बिल्कुल खाली थी, एकदम शांत। सड़क के किनारे की लाइटें और हल्की बारिश, कोहरे को और खूबसूरत बना देती हैं। सन्नाटे में अकेले घूमना बेहद दिलचस्प होता है, शायद तब आप अपने बारे में और दुनिया के बारे में बेहतर सोच पाते हैं। यही सब सोचते हुए मैं हज़रतगंज से होते हुए परिवर्तन चौक पहुंच गया। कोई दो बजे के आस-पास का वक्त रहा होगा और बारिश थोड़ी सी तेज़ हो गई थी।

परिवर्तन चौक के आस-पास बहुत सारे रिक्शेवाले सोते हैं और विधानसभा के आसपास भी। समझ में नहीं आता है कि इतनी बड़ी-बड़ी इमारतें किसलिए बनाई जाती हैं, जहां एक गरीब आदमी अपना सर भी नहीं छुपा पाए? खैर परिवर्तन चौक से हज़रतगंज जाने वाली सड़क पर एक रिक्शावाला सो रहा था। जैसे ही मैं उसके पास पहुंचा मेरी आहट से जगकर उसने प्लास्टिक की चादर को हटाकर पूछा – “कहां जाना है भैया?” मैं अपने आपको अपराधी सा फील करने लगा। काश! मैं उसके पास से ना गुज़रता और उसके नींद में खलल नहीं पड़ता। अपना अपराधबोध मिटाने के लिए मैंने पूछा – “आपके पास माचिस है क्या? सलाई?” “हाँ है तो।” कापंते हाथ, लगभग 55 साल की उम्र के उस रिक्शेवाले ने अपने फटे जैकेट से एक माचिस निकालकर मुझे दी। अब मैं सोचने लगा कि अब क्या?

फिर रामलाल शहर के सज्जनों के बारे में बात करते हुए कहते हैं- “लोग बोलते हैं, ए रिक्शा चलोगे? बस फिर पैसों को लेकर किसी से तक-झक होती है, आमतौर पर इतनी सी बात होती है बस।” नाम कितना ज़रूरी होता है ये रामलाल से समझना चाहिए। वो कहते हैं – “हमारा नाम तो रिक्शा ही हो गया है बाबू। गांव में होते तो इस उम्र में चाचा या दादा बुलाते लोग। पर शहर तो सिर्फ रिक्शावाला ही बुलाता है। कभी-कभी तो याद करना पड़ता है कि रामलाल नाम है हमारा।”फिर तय किया कि बात करता हूं।

पहला सवाल था नाम को लेकर – “क्या नाम है आपका?” मेरे लिए यह बहुत ही साधारण सा सवाल था, ना जाने कितनों से यह सवाल पूछा होगा मैंने। पर इस सवाल का जवाब बेहद गंभीर था, डरा देने वाला, बहुत ही अमानवीय। “रामलाल नाम बा बाबू। 25 साल से रिक्शा चलाते हैं यहां, कभी किसी ने नाम नहीं पूछा है हमारा। बहराइच ज़िले के रहने वाले रामलाल से 25 साल में किसी ने कभी नाम नहीं पूछा? रामलाल की आंखों में आंसू साफ-साफ दिख रहे थे।

खैर रामलाल चाय पीने का ऑफर देते हुए कहते हैं- “कैसरबाग चला जाए वहां चाय मिल जाएगी।” मैं मना करना चाहता था लेकिन नहीं कर सका। कैसरबाग पहुंचने तक बहुत सी बातें हुई – घर, परिवार, राजनीति वगैरह-वगैरह। चाय के पैसे रामलाल ने ही दिए, मेरे देने पर उन्होंने मना करते हुए कहा – “आज रिक्शेवाले की चाय पी लो।”

रामलाल शायद ही फिर कभी मिलें, क्योंकि यह शहर तो रामलाल को जानता ही नहीं है और ना ही उनके पास मोबाईल है।

(अनिल युवा पत्रकार हैं, रिहाई मंच के प्रवक्ता हैं, समसामयिक मुद्दों पर दखल रखते हैं)

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