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इस्लाम के सामाजिक ढांचे को चुनौती देती मुस्लिम महिलायें

आरिफा खातून:

इस्लाम में विश्वास रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति मुसलमान कहलाता है और मुसलमानों को नियंत्रित या शासित करने वाली विधि को मुसलमान विधि या शरीयत कहा जाता है। मुस्लिम धार्मिक किताब कुरान वह प्रथम धार्मिक किताब है जिसमें आज से 1400 वर्ष पूर्व ही औरतों को पुरुष के बराबर मान लिया गया था। लेकिन मुस्लिम सामाजिक व्यवस्था में औरतों को मर्दों के मुकाबले दोयम दर्जे का माना जाता है, औरत के सामाजिक स्तर का सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों से ताल्लुक रखने वाली समस्याओं से है।

औरत के दर्जे से अर्थ यह है कि एक समाज विशेष में औरत को मर्द से ऊंचा, नीचा या बराबर क्यों माना जाता है। परिवार, विवाह, शिक्षा, राज्य आदि सामाजिक और राजनीतिक संस्थाएं इस तरह की होनी चाहिए कि वह मनुष्य के स्वभाविक विकास को कुंठित ना करें बल्कि उसे आज़ादी के साथ अधिक विश्वास का मौका दे। यही संस्थाएं जो कि मनुष्य को संतुष्ट करने के लिए बनाई गई थी, उनको कुंठित कर रही हैं। अगर हम स्त्री के अधिकार की बात करते हैं तो उसके निर्णय लेने की स्वतंत्रता के अधिकार को कैसे नजरंदाज़ कर सकते हैं। निर्णय लेने की स्वतंत्रता ही स्त्री का सबसे बड़ा मानवाधिकार है।

मूलतः समाज पितृसत्तात्मक है, निर्णय प्रक्रिया से व्यवस्थित इस पितृसत्तात्मक समाज में अभी भी उच्च स्तर पर लैंगिक असमानता व्याप्त है। सामाजिक और आर्थिक रूप में महिलाओं में निर्णय के विकल्प बहुत सीमित होते हैं। निर्णय लेने का अधिकार हर व्यक्ति को होता है। इसमें महिलाओं का भी अहम स्थान है जो कि हमारे देश की कुल आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं। निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका उनकी स्वायत्तता या स्वतंत्रता को दर्शाती है निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका प्राकृतिक और सीमित होती है। महिलाओं का निर्णय कई सामाजिक संस्थाओं से प्रभावित रहता है जैसे परिवार, विवाह, नातेदारी इत्यादि। जिसके कारण मूलतः उन्हें ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं जो कि उनके स्वयं के नहीं होते मतलब कि उनमें उनकी पसंद शामिल नहीं होती है।

निर्णय लेने में महिलाओं कि भूमिका कमज़ोर उजागर होती है और संसाधनों पर उनका बहुत ही कम नियंत्रण होता है। निर्णय प्रक्रिया में शिक्षा एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

“शिक्षा महिलाओं की पारंपरिक पारिवारिक भूमिका से अलग नहीं करती लेकिन एक माँ और पत्नी के रूप में उनके सामाजिक मूल्यों को बेहतर और सशक्त बनाती है। बेहतर स्थिति में होने का प्रभाव उनके निर्णयन क्षमता पर भी आवश्यक रूप से दिखाई पड़ता है- (Srinivas1977)”।

अगर हम एक स्त्री को उसके सभी निर्णय लेने का अधिकार देते हैं तो इसका मतलब है कि हम उसे स्वतंत्र जीवन का उपहार दे रहे होते हैं। हम उसके व्यक्तित्व को बढ़ावा दे रहे होते हैं, क्योंकि अपने जीवन के फैसले स्वयं करने से व्यक्तित्व का विकास होता है। मुस्लिम समाज में महिलाओं को अपने अस्तित्व को लेकर अधिक संघर्षरत होना पड़ता है, क्योंकि उनके स्वतंत्र अधिकारों को अकसर शरीयत और धर्म का हवाला देकर मारा जाता रहा है। आमतौर पर महिलाओं के संबंध में देखा जाता है कि उन्हें केवल कुछ घरेलू निर्णय लेने का ही अधिकार प्राप्त होता है और यह निर्णय उनके खुद के नहीं बल्कि पारिवारिक होते हैं।

महिला अपने बच्चे का पालन पोषण करती है लेकिन उस बच्चे के बारे में फैसला लेने का हक उनको बहुत कम ही मिलता है। ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जहां महिलाओं को अभी भी स्वतन्त्रता नहीं मिली है। मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति और भी गंभीर है। मुस्लिम समाज में महिलाओं को और अधिक नियमों और प्रथाओं का पालन करना पड़ता है। अगर हम महिलाओं के व्यक्तिगत जीवन को देखें तो वहां भी उनको अपनी स्वतन्त्रता के लिए अभी भी संघर्ष करना पड़ रहा है। उन्हें किससे शादी करनी है? कितने बच्चे पैदा करने हैं? किस प्रकार के कपड़े पहनने हैं? कहां पढ़ाई करनी है? समाज के किन लोगों से ही व्यवहार रखना है? महिलाओं के व्यक्तिगत जीवन के सम्पूर्ण निर्णय का संचालन अप्रत्यक्ष रूप से उनके पारिवारिक सदस्य और समाज के ठेकेदारों द्वारा नियंत्रित होता है। यदि महिलाओं के पास स्वायत्ता और सामाजिक आर्थिक स्वतंत्रता हो तो वह अपनी निर्णय क्षमता का भरपूर उपयोग कर सकती हैं। उनकी स्वतंत्रता का क्षेत्र जितना बढ़ता जाएगा निर्णय प्रक्रिया में उनकी भागीदारी उसी क्रमानुपात में बढ़ेगी।

कुछ मुस्लिम महिलाओं के रचनात्मक प्रतिरोध की दास्तान

1. भारत का पहला कन्या स्कूल खोलने में फातिमा शेख ने सावित्रीबाई फुले की मदद की थी। फातिमा शेख सावित्रीबाई फुले की सहयोगी थीं। जब ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों के लिए स्कूल खोलने का बीड़ा उठाया, तब फातिमा शेख ने भी इस मुहिम में उनका साथ दिया। उस जमाने में अध्यापक मिलने मुश्किल थे। फातिमा शेख ने सावित्रीबाई के स्कूल में पढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी संभाली। इसके लिए उन्हें समाज के विरोध का भी सामना करना पड़ा। फातिमा शेख पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका थीं। हालांकि इतिहास ने उन्हें नजरंदाज़ कर दिया। फातिमा के बड़े भाई उस्मान शेख ने भी महिलाओं की शिक्षा को समर्थन दिया।

फातिमा शेख और सावित्री बाई फुले

2.मसीह अलीनेजाद जो कि एक ईरानी पत्रकार एवं नारीवादी महिला है, कहती हैं कि मैंने हमेशा से माँ, बहनों व चाचियों को हिजाब पहने देखा। यह सामान्य सी बात थी, पर जब वह सात साल की हुईं, तो उन्हें एहसास कराया गया कि हिजाब पहनना नियम है। उन्हें हिदायत दी गई की वह बिना स्कार्फ पहने घर से बाहर न निकलें। उन्हें अपने काले घुंघराले बालों को हवा में लहराना बहुत पसंद था, मगर उन पर हिजाब का नियम थोप दिया गया। उनके सवाल उठाने पर सबने डांट दिया। स्कूल की खेल प्रतियोगिताओं में लड़कों को हिस्सा लेते देख मसीह ने कहा कि वह भी खेलना चाहती हैं, पर शिक्षक ने मना कर दिया। मसीह कहती हैं कि तब मैं आज़ादी के मायने नहीं जानती थी, ना ही तब मैं महिला अधिकारों को समझती थी। पर मुझे हर दिन यह एहसास होता था कि भाई और मेरे बीच भेदभाव हो रहा है। बड़ी हुई तो पता चला कि पूरे देश में महिलाओं के साथ भेदभाव हो रहा है।

मसीह अलीनेज़ाद

तमाम पाबंदियों के बावजूद मसीह की पढ़ाई जारी रही। कॉलेज के दौरान वह छात्र राजनीति में आ गईं। यह बात पुरुषों को पसंद नहीं आई। 1994 में एक छात्र प्रदर्शन के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनके मन में ढेरों सवाल थे। वह अपने देश की हुकूमत से सवाल पूछना चाहती थीं कि महिलाओं पर पाबंदियां क्यों थोपी गई हैं? कालेज से निकलने के बाद उन्होंने पत्रकारिता करने का फैसला किया। वह ईरान लेबर न्यूज एजेंसी में काम करने लगीं, यहां उन्हें पार्लियामेंट कवर करने का मौका मिला। साल 2005 में उन्होंने एक खबर लिखी, जिसमें सांसदों के भ्रष्टाचार का खुलासा था। खबर पर भारी हंगामा हुआ और उन्हें पार्लियामेंट की रिपोर्टिंग से बाहर कर दिया गया।

मसीह कहती हैं, जब मैं सांसदों से सवाल पूछती थी, तब वह जवाब देने की बजाय मुझसे कहते थे कि पहले आप हिजाब पहनकर आइये, तब बात करेंगे। वे मर्द पत्रकारों से बात करते थे और मुझे जानबूझ कर नजरअंदाज़ करते थे। उनका मकसद मुझे अपमानित करना था। साल 2014 में उन्होंने फेसबुक पर माय स्टेल्थी फ्रीडम पेज बनाया। इसका मकसद ईरान की महिलाओं को एक फोरम मुहैय्या कराना था, जहां वे हिजाब के खिलाफ अपनी आवाज उठा सकें। बस चंद दिनों में ही यह पेज पूरी दुनिया में मशहूर हो गया। ईरान की लाखों महिलाओं ने इस पेज पर अपने सन्देश पोस्ट किए। तमाम महिलाओं ने बिना हिजाब के अपनी तस्वीरें पोस्ट की और इच्छा ज़ाहिर की कि उन्हें बिना हिजाब के बाहर निकलने की इजाज़त दी जाए। मसीह कहती हैं कि मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि इतनी महिलाएं मेरे अभियान से जुड़ेंगी। पेज पर महिलाओं के फोटो और सन्देश देखकर लगता है कि वे अपनी आज़ादी के लिए किस कदर बेताब हैं। उनके जज्बे को सलाम! आज पूरी दुनियां में इस अभियान की चर्चा है। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने इसे स्कार्फ क्रांति का नाम दिया।

3. मलाला युसुफजई, जिसने शिक्षा के अधिकार के लिए आतंकियों से टक्कर ली। मलाला ने तालिबान के कट्टर फरमानों से जुड़ी दर्दनाक दास्तानों को महज 11 साल की उम्र में अपनी कलम के ज़रिए लोगों के सामने लाने का काम किया। 2008 में तालिबान ने स्वात घाटी पर अपना नियंत्रण कर लिया। वहां उन्होंने डीवीडी, डांस और ब्यूटी पार्लर पर बैन लगा दिया। साल के अंत तक वहां करीब 400 स्कूल बंद हो गए। इसके बाद मलाला के पिता उसे पेशावर ले गए जहां उन्होंने नेशनल प्रेस के सामने वो मशहूर भाषण दिया जिसका शीर्षक था- हाउ डेयर द तालिबान टेक अवे माय बेसिक राइट टू एजुकेशन? तब वो महज 11 साल की थीं।

मलाला युसुफज़ई

साल 2009 में उसने अपने छद्म नाम श्गुल मकईश से बीबीसी के लिए एक डायरी लिखी। इसमें उसने स्वात में तालिबान के कुकृत्यों का वर्णन किया था। 2012 को तालिबानी आतंकी उस बस पर सवार हो गए जिसमें मलाला अपने साथियों के साथ स्कूल जाती थीं। उन्होंने मलाला पर एक गोली चलाई जो उसके सिर में जा लगी। मलाला पर यह हमला 9 अक्टूबर 2012 को खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के स्वात घाटी में किया था। जब वह स्वस्थ हुई तो अंतरराष्ट्रीय बाल शांति पुरस्कार, पाकिस्तान का राष्ट्रीय युवा शांति पुरस्कार (2011) के अलावा कई बड़े सम्मान मलाला के नाम दर्ज होने लगे।

2012 में सबसे अधिक प्रचलित शख्सियतों में पाकिस्तान की इस बहादुर बाला मलाला युसूफजई का नाम रहा। लड़कियों की शिक्षा के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाली साहसी मलाला यूसुफजई की बहादुरी के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा मलाला के 16वें जन्मदिन पर 12 जुलाई को मलाला दिवस घोषित किया गया। बच्चों और युवाओं के दमन के ख़िलाफ और सभी को शिक्षा के अधिकार के लिए संघर्ष करने वाले भारतीय समाजसेवी कैलाश सत्यार्थी के साथ संयुक्त रूप से उन्हें 10 दिसंबर 2014 को नार्वे में आयोजित एक कार्यक्रम मे शांति का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। 17 वर्ष की आयु में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली मलाला दुनिया की सबसे कम उम्र वाली नोबेल विजेती बन गयी।

4. बेनज़ीर भुट्टो 2 दिसंबर 1988 को मुस्लिम दुनिया की पहली मुस्लिम महिला प्रधानमंत्री बनी। उस देश (पाकिस्तान) की प्रधानमंत्री जहां सत्तारूढ़ कट्टरपंथियों का मानना था कि मुस्लिम औरतें शासन नहीं कर सकती, यह इस्लाम के खिलाफ है। ऐसे समय में बेनज़ीर औरतों की ताकत बनकर उभरी। वह मात्र 35 बरस की उम्र में सबसे कम उम्र की प्रधानमंत्री बनीं। बेनजीर लोकतंत्र के अधिकार के लिए और तानाशाही के खिलाफ लड़ती रहीं, वह पाकिस्तान में इस्लामी कानून लागू करने के सख्त खिलाफ थी। बेनजीर पाकिस्तान को लोकतान्त्रिक देश बनाने के पक्ष में थी जिसमें सभी को समान अधिकार मिले। वह महिलाओं के अधिकारों को लेकर लड़ती रही। इसी कारण रावलपिंडी में 27 दिसंबर 2007 को बेनज़ीर भुट्टो की निर्मम हत्या कर दी गई। अपनी हत्या से पहले बेनजीर ने अपनी जीवनी “मेरी आपबीती” लिखी। सन्डे टाइम्स लिखता है कि “यह आपबीती एक बहुत बहादुर औरत की आपबीती है जिसने अनेक चुनौतियां स्वीकार की, जिसके परिवार के अनेक लोग शहीद हुए, जिसने पाकिस्तान की आज़ादी की मशाल जलाए रखी, बावजूद तानाशाही के विरोध के।”

बेनज़ीर भुट्टो

5. महिलाओं को हर जगह अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष करना पड़ा है। चाहे वह धार्मिक स्थल में प्रवेश को लेकर ही क्यों न हो। मज़ारों और मंदिरों में प्रवेश का अधिकार अभी भी पूरी तरह से महिलाओं को नहीं मिल पाया है। हाल ही में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने हाजी अली दरगाह में प्रवेश की इजाजत पाकर एक ऐतिहासिक जीत हासिल की। हाजी अली दरगाह में 2012 से पहले महिलाएं जाती थीं, मगर उसके बाद हाजी अली दरगाह ट्रस्ट ने परम्पराओं का हवाला देते हुए औरतों के भीतरी हिस्से तक जाने पर पाबन्दी लगा दी। मजार में प्रवेश पर पाबन्दी को जाकिया सोमन, नूरजहां एवं साफिज नियाज़ ने चुनौती दी। 24 अक्टूबर 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने पुरुषों की तरह महिलाओं को भी दरगाह में प्रवेश देने का फैसला सुनाया।

जो संस्था इसकी लड़ाई लड़ रही है उसके कुछ और भी सवाल हैं, जो हाजी अली दरगाह में प्रवेश से कहीं ज्यादा तल्ख और मुस्लिम समाज के भीतर मर्दों के वर्चस्व को चुनौती देते हैं। इस संस्था के उभार से खास तौर से उन मौलानाओं की दुनिया में हड़कंप तो मचा ही होगा जो रस्मों रिवाज की व्याख्या करते समय मुस्लिम औरतों के हक के सवाल को टाल जाते हैं। इसलिए एक बड़े टकराव के लिए तैयार रहना चाहिए। 2007 में यह संस्था बनी थी और संविधान के फ्रेम के तहत मुस्लिम महिलाओं के अधिकार के लिए लड़ने का इरादा रखती है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में कानूनी सुधार की बात करती है। धर्म की सकारात्मक और उदार व्याख्या में यकीन रखती है। मुस्लिम औरतों के आर्थिक और धार्मिक अधिकारो में बराबरी लाना चाहती है। मुस्लिम समाज के भीतर जातिगत भेदभाव के प्रति समझ पैदा करना चाहती है। दलित मुस्लिमों के सवाल उठाना चाहती है। पूंजीवाद, सांप्रदायिकता, फांसीवाद और साम्राज्यवाद का विरोध करती है। यह संस्था मुस्लिम समाज के भीतर एक वैकल्पिक प्रगतिशील आवाज बनना चाहती है।

इनके अतिरिक्त और भी मुस्लिम महिलाओं ने समय-2 पर अपने साहस का परिचय दिया है। जिनमें रजिया सुल्तान का नाम उल्लेखनीय है। रजिया सुल्तान मुस्लिम एवं तुर्क शासकों के इतिहास में पहली महिला शासक थीं। इन सभी महिलाओं के संघर्ष की दास्तान को जानकार लगता है कि जब बंदिशों में यह इतने साहसी कार्य कर सकती हैं जो कि ना सिर्फ खुद के लिए बल्कि समाज के लिए भी थे। तो यदि इन्हें अपना जीवन जीने की स्वतंत्र छूट दे दी जाए तो निश्चित ही महिलाएं समाज में व्याप्त कुरीतियों और रुढ़ियों को तोड़कर समाज का एक नया ढांचा प्रस्तुत करेंगी।

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