आमतौर पर मैं जल्दी किसी को फोन नहीं करता, इसलिए अकसर बने-बनाए रिश्तों पर काई भी जम जाती है। स्वाभाविक है कि जब मैं किसी को फोन नहीं करता, तो भला मुझे कौन करेगा? फिर भी मेरे कुछ दोस्त ऐसे हैं, जो 10 से 15 दिन में एक बार फोन कर ही देते हैं। दो दिन पहले दो दोस्तों का फोन आया तो मन खुश हो गया, लगा कि फोन पर भी बात करते रहना चाहिए। खाली वर्चुअल स्पेसवाली सोशल मीडिया से काम नहीं चलने वाला है।
खास बात है कि बातचीत के दौरान उन दोनों मित्रों का सवाल एक ही था- “क्या लगता है, बिहार में गठबंधन रहेगा या जाएगा?” मैंने व्यंगात्मक लहज़े में जवाब दिया कि रहे या जाए, क्या फर्क पड़ता है। मैं अब राजनीति को लेकर बिलकुल भी भावुक नहीं होता हूं। न ही यह भरोसा करता हूं कि जो मैं सोच रहा हूं, वही लालू-नीतीश या कोई अन्य नेताजी सोच रहे होंगे। फिर मैंने उनसे कहा-
“देखो गठबंधन टूटने से दोनों सत्ताधारी पार्टी को नुकसान हो या न हो, लेकिन उन लोगों को बहुत खराब लगेगा जिन्होंने राजद-जदयू न देख महागठबंधन को वोट देकर बड़ा रिस्क लिया था।”
अब क्यूंकि बिहार में लालू प्रसाद और सुशील मोदी की टीवी बाइट, ट्विटर वाली जुबानी जंग से ज़्यादा बिहार में चाय दुकान, ऑफिस, हाट-बज़ार, गांव, मुहल्लों में ना जाने कितने वर्चुअल लालू-सुशील जुबानी जंग करते रहते हैं। यह भी एक कारण है कि बिहार का सबसे बड़ा एंटरटेनमेंट ‘पॉलिटिक्स’ ही है।
ऐसे में लालू प्रसाद या नीतीश कुमार, जिस किसी की भी वजह से महागठबंधन टूटेगा, वे इन वोटर्स की नज़र में विलेन बन जाएंगे, इसलिए महागठबंधन टूटने नहीं जा रहा है। वहीं मेरे दोनों दोस्त टीवी बुलेटिन में पकायी जा रही खबरों से बहुत आशान्वित हैं कि मोदी जी को नीतीश का साथ जल्द ही मिलने वाला है। दरअसल नीतीश कुमार चारों तरफ से जिन लोगों से घिरे हैं, अगर लालू प्रसाद से उनकी निजी बातचीत ना हो तो गठबंधन किसी भी पल टूट जाए। मुझे उम्मीद है कि तेजस्वी बहादुरी दिखाएंगे और तब तक इस्तीफा नहीं देंगे, जब तक कि नीतीश कुमार खुद उन्हें इस्तीफा देने को ना कहें। मुझे यह भी उम्मीद है कि नीतीश कुमार ऐसा कुछ भी नहीं कहेंगे।
दरअसल 2015 की हार ने भाजपा को गहरा राजनीतिक धक्का पहुंचाया था, फिर जंगलराज-दो जैसे जुमले गढ़ने की कोशिश भी हुई। बावजूद इसके बिहार सरकार में सबकुछ ठीकठाक चलता रहा। लेकिन वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में अपार जनमत ने भाजपा के हौसले को बुलंद कर दिया है। भाजपा को उत्तर प्रदेश में एक फॉर्मूला भी नज़र आया, जहां छिपे तौर पर हिंदुत्व और खुले तौर पर गैर यादव पिछड़े-दलित को साथ लेकर उन्होंने सरकार बनाई है।
भाजपा ने बिहार में इसकी कोशिश भी शुरू कर दी है। कोइरी जाति से आने वाले शकुनी चौधरी के बेटे सम्राट चौधरी को भाजपा अपने खेमे में शामिल कर चुकी है। बावजूद इसके, भाजपा जानती है कि लालू-नीतीश को अलग किए बिना बिहार में भाजपा का सिक्का चलने वाला नहीं है।
पिछले दो साल से नीतीश कुमार अपनी ब्रांड इमेज को बेहतर बनाने में बड़ी शिद्दत से जुटे हैं। शराबबंदी, गुरु गोविंद सिंह की जयंती और अब दहेज वाली शादी का बहिष्कार आदि इसी कोशिश में शामिल हैं। भाजपा को यहीं संभावना दिखी और लालू के साथ-साथ उनके परिवार की कुंडली खंगाली जाने लगी। स्वाभाविक है कि पिता अगर भ्रष्टाचार में शामिल है, तो बेटों के खाते में कुछ तो धन आया होगा। गौरतलब है कि चारा घोटाला के मामले में लालू प्रसाद को सज़ा हो चुकी है।
नतीजन, कानून से पहले सुशील मोदी एक्टिव हुए और उन्होंने एक-एक कर चिट्ठे खोलने की शुरुआत की। अब यह भला किससे छिपा है कि एनडीए सरकार के काल में भले सुशील मोदी भाजपा की सीट से उपमुख्यमंत्री थे, लेकिन नीतीश कुमार से उनके करीबी रिश्ते जदयू के नेताओं से भी अच्छे थे। इसका ही असर रहा कि भाजपा ने सुशील मोदी को पिछले विधानसभा चुनाव में सीएम के तौर प्रोजेक्ट तक नहीं किया।
सुशील मोदी के चिट्ठों से लालू प्रसाद और उनके समर्थकों के मन में आशंका घर कर गई कि आखिर छोटे मोदी के पास लालू प्रसाद से जुड़े चिट्ठे कैसे आ गए? भाजपा चाहती भी यही थी कि लोगों को लगे कि नीतीश के छिपे इशारे पर यह सब हो रहा है। जब इन सबसे काम न बना तो CBI रौद्र रूप में आ गई। यहां आरोप में भी तेजप्रताप की जगह मीसा और तेजस्वी का नाम आया है। आपको पता हो कि राजद, मीसा-तेजस्वी में अपना भविष्य देख रही थी।
अब स्वाभाविक सी बात है कि नीतीश कुमार के सामने घोर नैतिक संकट है। मीडिया के पास भी नीतीश कुमार को घेरने के लिए पूरा मसाला है, चूंकि तेजस्वी बिहार के उपमुख्यमंत्री हैं। रुल ऑफ लॉ नीतीश कुमार का कोर एजेंडा रहा है। यही वह समय है, जब राजनीति का जवाब राजनीति से देने की ज़रूरत है।
महागठबंधन में शामिल दोनों प्रमुख दलों की एक छोटी सी चूक उन्हें भाजपा की राजनीति का शिकार बना सकती है। राजद के एक नेता से मेरी बात हुई तो उन्होंने कहा, “कानून अपना काम करे, अगर तेजस्वी यादव दोषी साबित होंगे तो उन पर न्याय सम्मत कार्रवाही होगी। अभी आरोपों पर इस्तीफा देने का सवाल ही नहीं उठता है।” लेकिन पूरे मामले में नीतीश घिरे हुए हैं, अब निर्णय भी उन्हीं को लेना है।
मैं सभी को कहूंगा कि राजनीति को कभी भावुकता के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। आप लोगों को याद हो या ना हो, लेकिन मुझे याद है कि भाजपा के यही नेतागण तब CBI को कांग्रेसी तोता कहते थे, जब केंद्र में UPA (सप्रंग या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार थी। इस जांच एजेंसी के रवैये पर अगर विपक्ष वाले आज इसे फिर से सरकारी तोता कह रहे हैं तो मुझे बहुत बुरा नहीं लग रहा है। सरकार द्वारा राजनीतिक विरोधियों पर CBI का इस्तेमाल भी तभी हो सकता है, जब भ्रष्टाचार में उनकी संलिप्तता होगी।
मेरा मानना है कि देश का हर भ्रष्टाचारी पकड़ा जाए, लेकिन यहां विपक्ष वाले मेहनत करने में फिसड्डी हैं। क्योंकि भाजपा के नेता जिस प्रकार लालू प्रसाद द्वारा किए गए तथाकथित घोटालों के कागज़ निकाल रहे हैं, विपक्ष वालों को भी मेहनत करके उमा भारती, व्यापम वाले शिवराज सिंह, छत्तीसगढ़ वाले रमन सिंह, राजस्थान वाली वसुंधरा राजे के तथाकथित घोटालों के कागज़ात निकालने चाहिए। फिर जनदबाव के ज़रिये उनसे भी इस्तीफे की मांग करिए। क्योंकि इस देश की जनता अब समझ चुकी है कि यहां कोई भी न्यायिक कार्रवाई स्वतःस्फूर्त नहीं होती है।
कुल मिलाकर बात यही है कि महागठबंधन को बचाए रखना विपक्ष के साथ-साथ नीतीश कुमार की भी मजबूरी है। नीतीश कुमार अगर अभी भाजपा के साथ बिहार में सरकार बनाने की कोशिश करेंगे तो सरकार तो बना लेंगे लेकिन लॉन्गटर्म पॉलिटिक्स में उनकी बुरी हार होगी। वे उस तथाकथित सांप्रदायिक राजनीति के फिर से वाहक बन जाएंगे, जिसके नाम पर 2014 में उन्होंने भाजपा से गठबंधन तोड़ा था। यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहारी ब्रदर्स भाजपा की इस चौतरफा मार का कैसे मुकाबला करते हैं या फिर उनकी राजनीति का शिकार होकर अपना विकेट खुद से हिट करते हैं।
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