राजनीति की किताब में एक प्रचलित कथन है कि राजनीति में न तो कोई लम्बे समय तक दोस्त होता है न दुश्मन। इन तमाम कहावतों को नीतीश कुमार ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे कर चरितार्थ कर दिया है ।
असल में इस प्रकरण की शुरुआत 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान ही हो चुकी थी। उस दौरान बिहार मे जदयू के नेतृत्व में बीजेपी की सहभागिता वाली सरकार थी लेकिन जैसे ही नरेन्द्र मोदी का नाम एनडीए के प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर घोषित हुआ ,नीतीश ने अपने मूल सिद्धांतो से समझौता न करने की दलील देते हुए 17 साल पुराने गठबंधन से अलग होने का फैसला लिया। अलग होने के बाद गतिरोध यही नहीं रुका , लोकसभा चुनाव में एनडीए को बिहार में 40 में से 31 व जदयू को मात्र 2 सीटें मिलने पर नीतीश ने आनन-फानन मे इस्तीफा देने का भी फैसला कर लिया। तब ये पता चला कि नीतीश कुमार अपने समझौते से बिल्कुल सौदा नहीं करने वाले।
हद तो तब हो गयी जब मोदी के बढ़ते कद को रोकने के लिए 2015 बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक करियर के धुर प्रतिद्वंदी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया और जन्म दिया महागठबंधन को जिसमे कांग्रेस की भी सहभागिता थी। इस महागठबंधन ने बिहार में एनडीए को तो पटखनी दी ही साथ मे सभी विपक्षियों के आखों का तारा बन कर भी उभरा।
सभी विपक्षी पार्टियां भाजपा के बढ़ते जनाधार को देखकर राष्ट्रीय स्तर के महागठबंधन तैयार करने में जुट गयी , नीतीश के साफ छवि के कारण उनको इसके नेता के तौर पर देखा जाने लगा था। मगर नीतीश को कुछ और मंजूर था , 2015 मे सत्ता मे आने के बाद उनके स्वर धीरे-धीरे ही सही, चाहे-अनचाहे ही सही केंद्र सरकार के प्रति नरम होने लगे थे। जिसके बाद से ही तमाम राजनीतिक पंडित महागठबंधन में एकता की कमी व फूट की बातों का ज़िक्र करते आ रहे हैं।
बिहार में मचे इस राजनीतिक उठा-पटक में सबसे बड़ी भूमिका रही है पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशिल कुमार मोदी (मौजूदा) की जिनका महागठबंधन बनने के बाद से ही राजनीतिक भविष्य अंधियारे में आ गया था। इसी प्रयास में वो पिछले कई महीनों से लगातार एक के बाद एक लालू व उनके परिवार पर भ्रष्टाचार व धनशोधन जैसे मामलों में संलिप्तता होने को मीडिया के सामने उजागर करते रहे। जिसके बाद तमाम केंद्रीय एजेंसियों ने एक के बाद एक छापे मारे और लालू के परिवार व बेटों के खिलाफ मामला भी दर्ज किया जिसपर नीतीश कुमार चुप-चाप बैठ कर तमाशबिन बने रहे लेकिन विपक्ष के रूप में बैठे बीजेपी ने नीतीश को शांत बैठने कहा दिया , उन्होंने जदयू पर आंशिक रूप से दबाव बना कर अपने सिद्धांतो की अनदेखी कर बिहार की जनता को धोखा देने का आरोप लगाया। अंततो-गत्वा महागठबंधन को बीच मझधार में छोड़कर नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक समझ से तेजस्वी का इस्तीफा न मांग खुद ही इस्तीफा दे दिया ।
एका-एक उठी इस आंधी मे नीतीश के इस्तीफा के तुरंत बाद प्रधानमंत्री का नीतीश को ट्वीट बधाई, केंद्रीय पीठ की बैठक, एनडीए को तुरंत नीतीश का समर्थन आदि, क्या वाकई भ्रष्टाचार पर नीतीश की ज़ीरो टॉलेरेंस नीति को दिखाता है या सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया प्लान है ? यह कह पाना तो मुश्किल है।
अंततः , नीतीश के इस्तीफे के बाद एक बात तो स्पष्ट हो गयी है कि भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर वह अपने सिद्धांतो से कोई समझौता नहीं करने वाले लेकिन , क्या वह 2013 में जिन सिद्धांतो का हवाला देकर बीजेपी से अलग हुए थे अब उस सिद्धांत से समझौता कर लेंगे ? क्योंकि पिछले विधानसभा के दौरान वे नीतीश कुमार ही थे जिन्होंने प्रधानमंत्री के डीएनए वाले बयान पर अपना कड़ा विरोध जताते हुए पूरे राज्य के अपमान का आरोप लगाया था , बावजूद इसके आज उन्हीं के साथ साथ मिल कर सरकार बनाने को सहमति दे चुके हैं जो कहीं न कहीं इनके अवसरवादी राजनीतिक चरित्र को दिखाता है।