बिहार के उत्तर में बसा मिथिला क्षेत्र का ज़िक्र आपने रामायण में तो सुना ही होगा। जी हां वही मिथिला जिसे सीता का मायका कहा जाता है। मिथिला अपनी भाषा, खान-पान और अपने रस्मों-रिवाज के लिए मुख्य रूप से जाना जाता है। यूं तो कई चीज़ें हैं, लेकिन आज यहां की शादियों से जुड़ी परंपराओं के बारे में बात करते हैं।
मिथिलांचल में जब लड़कियों का ब्याह होता है तो दुल्हन दूसरे दिन अपने ससुराल नहीं जाती है। बल्कि दूल्हे को चार या छह दिनों तक अपने ससुराल में रहना होता है। इस दौरान कई तरह की रस्में निभाई जाती हैं, जिसमें दूल्हे और दुल्हन की सहभागिता महत्वपूर्ण होती है। सभी आस-पड़ोस की महिलाएं इकठ्ठा होकर लोकगीत से समा बांधती हैं और बीच-बीच में हास-परिहास का माहौल देखते ही बनता है। इस तरह शादी के लगभग एक वर्ष तक कोई ना कोई उत्सव चलता ही रहता है।
उस एक वर्ष के भीतर सावन के महीने में मधुश्रावणी का त्योहार मनाया जाता है। तेरह दिनों तक चलने वाले इस त्योहार में दुल्हन सज-संवरकर पति की दीर्घायु के लिए विषहर यानि की नाग और गौरी की पूजा करती हैं।
यह त्योहार नाग पंचमी से शुरू होता है और मधुश्रावणी (अंतिम दिन) के दिन इसका समापन होता है। तेरह दिनों तक नवविवाहिता नियमित रूप से फूल तोड़कर पूजा करती हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो, आंगन में भरे लोग, नयी दुल्हन और लोकगीत से पूरे घर का दृश्य बहुत ही मनमोहक होता है।
इस साल मेरे घर में भी इस त्योहार की चर्चा ज़ोरों पर है। शायद यही वजह है कि मुझे इस त्योहार से जुड़ी एक विचित्र रस्म से रूबरू होने का मौका मिला। इस त्योहार के अंतिम दिन यानि की मधुश्रावणी को पूजा पर दूल्हा और दुल्हन दोनों का बैठना अनिवार्य होता है। पूजा सम्पन्न होने के बाद की विध् (रस्म) में दूल्हा दुल्हन की आंखें मूंदता है और विधकरी (रस्म करने वाली) दुल्हन के घुटने और दोनों पैरों पर पान के पत्ते को छेदकर रखा जाता है।
फिर दुल्हन के घुटने और दोनों पैरों पर रूई की बत्तियों को जलाकर दागा जाता है। उसके बाद उसपर चावल के आटे का घोल लगा दिया जाता है। परंपराओं के अनुसार इस रस्म के दौरान दुल्हन को अपने मुंह से एक शब्द भी नहीं निकलना चाहिए।
इस रस्म के पीछे का तर्क ये है कि इससे लड़की की सहनशीलता को भांपा जाता है। ऐसी धारणा भी है कि जितना बड़ा फफोला होगा उसका पति उसे उतना ही ज़्यादा प्यार करेगा।
इन रस्मों और परंपराओं के पीछे के तथ्य को लोग जानने की कोशिश नहीं करते और शायद लोगों को इसकी सही जानकारी भी नहीं होगी। लेकिन इस तरह की प्रथाओं के पीछे के सत्य को जानना बेहद ज़रूरी है ताकि हम जान सके कि ये किस कारण से किया जा रहा है? या कहीं ये बस कुंठित सोच का प्रमाण तो नहीं? लेकिन फिर भी परंपरा के नाम पर, रीति-रिवाज़ के नाम पर ऐसी दकियानूसी प्रथा को हम निभाते चले आ रहे हैं।
अब सवाल तो ये है की ऐसी रस्में केवल महिलाओं को ही क्यों निभानी पड़ती है? क्या ये स्त्रियों के प्रति इस समाज की कुंठित मानसिकता को नहीं दर्शाता? सहनशीलता की परीक्षा केवल महिलाओं से ही क्यों ली जाती है? जबकि शादी के बंधन में तो महिला और पुरुष दोनों को ही बराबर का ज़िम्मेदार बताया जाता है। शायद हम बदल रहे हैं, पर हमारी सोच नहीं।
फोटो आभार- फेसबुक पेज मिथिला संसार