3 जुलाई 2017, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के चुनावक्षेत्र राजनांदगांव में बीस वर्षीय 12वीं कक्षा की छात्रा खिलेश्वरी ने खुद पर केरोसिन उड़ेलकर आग लगा ली। पिता मनीराम साहू और माँ उसे लेकर मेडिकल कॉलेज पहुंचे और वहां डॉक्टर ने खिलेश्वरी को मृत घोषित कर दिया। इसके कई घंटे बीत जाने के बाद भी पोस्टमार्टम की प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाई क्योंकि मनीराम ने कर्मचारियों को 700 रुपये रिश्वत देने से मना कर दिया। इस कारण उन्हें राज्य सरकार द्वारा शव को घर लेकर जाने के लिए दिए जाने वाले मुक्तान्जली वाहन की सुविधा नहीं मिल पाई। मजबूरन, मनीराम दंपत्ति को बेटी के शव को ठेले पर लादकर घर ले जाना पड़ा और उनके पीछे मानवता की इस शव यात्रा में तमाशाबीन बनकर शरीक हुआ पूरा समाज। मानवता की इस शव यात्रा में समाज का नंगापन पूरे डेढ़ किमी तक जारी रहा।
यह छत्तीसगढ़ का सिर्फ एक मामला नहीं है। जब पूरा देश एक दाना माझी की कहानी सुनकर संवेदनाओं के समन्दर में गोते लगाने लगता है, तब छत्तीसगढ़ में प्रतिदिन कई दाना माझी अखबार के पन्नों में पैदा होते रहते हैं और उन्हीं ख़बरों में उन्हें दफन कर दिया जाता है। यहां हर एक खबर दूसरी खबर का गला घोंट देती है, क्योंकि अगली सुबह फिर एक और नए मनीराम और दाना माझी की खबर से अखबार के सफ़ेद पन्ने लाल हो रखे होते हैं।
6 जुलाई 2017 को छत्तीसगढ़ के बैकुंठपुर ज़िले में युवक गयानाथ फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेता है। परिजनों द्वारा पुलिस को सूचना भी दी जाती है। पुलिस बोलती है कि पोस्टमार्टम करना होगा, इसलिए लाश को ले आओ। परिजन गयानाथ की लाश को कांवड़ में बांधकर 40 किमी पैदल लेकर जाते हैं। लोग बस सड़क किनारे खड़े होकर महज़ तमाशा देख रहे होते हैं। वो शायद भूल चुके होते हैं कि अगला गयानाथ उनमें से कोई भी हो सकता है। इस दर्दनाक घटना पर थाना प्रभारी की प्रतिक्रिया ऐसी होती है –
“सोनहत से 40 किमी दूर होने के कारण शव को परिजन कुछ दूर तक कांवड़ से लाए थे। शव को घर भेजने के लिए गाड़ी की व्यवस्था कर दी गयी थी।”
गयानाथ को अगर पता होता कि आत्महत्या के बाद उसकी लाश को इस सिस्टम के हाथों कई और बार मरना पड़ेगा, ज़लील होना पड़ेगा, तो शायद ही वो आत्महत्या करता।
19 अप्रैल 2017 को पूरे प्रदेश में राज्य सरकार द्वारा चलाए गए सुराज अभियान का शोरशराबा था। इस दौरान सुराज अभियान का काफिला दंतेवाड़ा पहुंचता है। इसी दौरान इस काफिले से महज 8 किमी दूर ग्रामीणों का एक समूह चिलचिलाती धूप में खाट पर बुधराम का शव नंगे पैर पैदल ढोकर पोस्टमार्टम के लिए लाता है। अधिकारियों का काफिला बगल से गुज़रता है, लेकिन उनकी नज़र इस पर नहीं पड़ती है या शायद वो इसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
समाजसेवियों और स्वयंसेवी संस्थाओं की राष्ट्रीय कर्मभूमि कहे जाने वाले इस क्षेत्र में कोई समाजसेवी संगठन भी इनकी मदद के लिए सामने नहीं आया। रास्ते भर परिजन कन्धा बदल-बदलकर, पेड़ की छांव में थोड़ी देर रुक-रुककर जैसे-तैसे शव को ज़िला अस्पताल लेकर पहुंचे। ऐसा लगता है मानो कथित सुराज का लेंस गयानाथ, खिलेश्वरी और बुधराम जैसों को इस सिस्टम से धुंधला या अदृश्य कर देता है, क्योंकि यह दृश्य या नाम ही सिर्फ उनके सुराज के पोस्टमार्टम के लिए काफी होगा।
इस मामले में सीएमएचओ ने किसी भी प्रकार की जानकारी से इनकार कर दिया था, वहीं ज़िला पंचायत के सीईओ, गौरव सिंह कहते हैं-
“यह बेहद गंभीर मामला है। यह एक अक्षम्य अपराध है, मामले में जो भी दोषी पाया गया उस पर कार्रवाही तय है।”
लेकिन इस मामले में अब तक कोई भी कार्रवाही नहीं की गयी है, ना ही कोई जांच समिति गठित की गई है।
हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि आदिवासी इलाका और ग्रामीण क्षेत्र तो छोड़िए, राजधानी तक में शवों के लिए एम्बुलेंस की व्यवस्था कर पाने में सरकार विफल है। प्रशासन की लापरवाही, पराकाष्ठा पार कर चुकी है। 12 जुलाई 2017 को मुंबई से कैंसर का इलाज करवाकर लौट रहे अजय साव की ट्रेन में मृत्यु हो जाती है। परिजनों द्वारा संजीवनी 108 को सूचित करने के 2 घंटे बाद भी शव को लेकर जाने के लिए एम्बुलेंस नहीं पहुंचती है।
विगत 3 से 4 महीने में लगभग ऐसे दो दर्ज़न से भी अधिक मामले सामने आ चुके हैं। कांवड़, खाट, मोटरसाइकिल से लेकर ठेले तक पर शवों को ढोया जा रहा है। यह सारी घटनाएं प्रमाण हैं कि राज्य सरकार की मुक्तान्जली वाहन, संजीवनी 108 जैसी कई योजनायें बस कागज़ों में ही सिमट कर रह गयी हैं, जिससे समाज का हर तबका परेशान है।
आखिर कब तक सरकार सुराज का खोखला दंभ भरती रहेगी? आखिर कब तक यह खबरें हम पर दहशत बनकर टूटती रहेंगी? कब तक मानवता की शव यात्रा निकालकर इस तरह इंसानियत को शर्मसार किया जाता रहेगा? कब तक छत्तीसगढ़ के दाना मांझियों को इस तरह शवों को ढोना पड़ेगा? क्या खिलेश्वरी, बुधराम, गयानाथ जैसे दर्ज़नों को सम्मान सहित इस दुनिया से विदा लेने तक का अधिकार नहीं है? क्या हमारा तंत्र इतना लाचार हो चुका है कि रोटी, कपड़ा और मकान तो दूर, अर्थी तक नहीं मुहैया करा सकता? क्या हमारा समाज भी इतना कमज़ोर हो चुका है कि हम किसी भी अमानवीयता-अत्याचार का एकजुट होकर मुकाबला नहीं कर सकते?