पश्चिम बंगाल एक बार फिर खबरों के घेरे में है और कारण है सांप्रदायिक हिंसा। पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा पहली बार नहीं हुई है। भारत के विभाजन से पूर्व 16 अगस्त 1946 के दिन जिन्नाह द्वारा डायरेक्ट एक्शन डे घोषित किया गया था और उस कत्लेआम में सैकड़ों लोग मारे गए थे। लेकिन भारत की आज़ादी के बाद भी हिंसा का ये दौर रुका नहीं। मुर्शिदाबाद में 1988 में एक मस्जिद में प्रार्थना के अधिकार को लेकर पश्चिम बंगाल मुस्लिम लीग ने कासिम बाज़ार में हिंसक प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारियों ने बंगाल के पाकिस्तान में विलय के भी नारे लगाए। पर इतिहास को दोहराकर हम आज की उपेक्षा नहीं कर सकते।
वर्तमान पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों ने सत्तर के दशक में क्रान्ति के नाम पर सशस्त्र गिरोहों का गठन किया था, उन्हीं गिरोहों ने वाम दलों को तीन दशकों तक सत्ता में बनाये रखा। आज वही गिरोह जिन्हें काडर भी कहा जाता है, वर्तमान तृणमूल सरकार का सहयोग कर रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में पनप रही हिंसा की एक जड़ बांग्लादेश तक जाती है। वहां के कट्टरवादी संगठन जैसे- जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश को एक इस्लामिक देश बनाना चाहते हैं।
2009 में हसीना के पद संभालने के बाद वहां इस्लामी कट्टरवाद पर निशाना साधा गया और आतंकी संगठनों का दमन किया गया। नतीजा यह हुआ कि बांग्लादेशी कट्टरवाद सीमा लांघकर पश्चिम बंगाल आ पहुंचा।
ममता बनर्जी की तुष्टिकरण की नीति और बांग्लादेश से कट्टरवाद और अवैध घुसपैठ का नतीजा आज यह है कि बंगाल के कम से कम तीन ज़िलों में प्रशासन अपना नियंत्रण खो चुका है। अफीम की खेती हो या आतंकी घुसपैठ, इन ज़िलों में सब खुलेआम हो रहा है। मुर्शिदाबाद, मालदा और उत्तर 24 परगना, तीन ऐसे ज़िले हैं जहां पिछले सात वर्षों में व्यापक सांप्रदायिक हिंसा हुई है।
वोट की राजनीति और तुष्टिकरण के चलते बंगाल में सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहा है। इमामों को दिए जाने वाला मासिक भत्ता हो या स्थानीय मीडिया पर सांप्रदायिक हिंसा के प्रसारण पर रोक हो, बंगाल सरकार इस्लामिक तुष्टिकरण को खुलेआम प्रोत्साहन दे रही है। जहां वामपंथी पूंजीवाद विरोध की आड़ में हिंसा फैलाते थे, वहीं ममता सरकार इस्लामी हिंसा की ओर आंखे मूंदे बैठी है।
हिंसा और सांप्रदायिक तनाव तृणमूल सरकार का हथियार बन चुके है। अवैध हथियारों और विस्फोटकों का पकड़ा जाना हो या लगातार हो रहे देसी बेम विस्फोट, यह सरकार की अक्षमता या विध्वंसकारी ताकतों से सांठ-गांठ का प्रतीक है।
प्रेस पर सरकार का कड़ा नियंत्रण इस लेख से आंका जा सकता है। मिडिया द्वारा हिंसा के समाचार प्रसारित करने पर उनके खिलाफ पुलिस में प्राथमिकी (FIR) दर्ज़ कर दी जाती है।
इस सप्ताह बशीरहाट में हुए सांप्रदायिक दंगे भी देश की नज़र में नहीं आते अगर सोशल मीडिया पर स्थानीय लोगों ने तस्वीरें और वीडियो नहीं डाले होते। आखिर क्या चाहती हैं ममता बनर्जी? क्या देश में सांप्रदायिकता से जूझ रहा एक राज्य जम्मू-कश्मीर काफी नहीं है? क्या बंगाल को भी वोट की राजनीति के वेदी पर कुर्बान कर दिया जाएगा? क्या मालदा की तरह बंगाल के बाकी हिस्सों में भी इस्लामी कट्टरवाद सर चढ़कर बोलेगा? इसका जवाब शायद ममता बनर्जी के पास ही है, लेकिन राजनीतिक दल तो सत्ता की धुन में अंधे हो जाते हैं।
शायद हमें अपने बुद्धिजीवी वर्ग से ही उम्मीद रखनी चाहिए। बुद्धिजीवी जो फिलिस्तीन से लेकर परमाणु बिजलीघरों जैसे मुद्दों पर प्रदर्शन करने से नहीं कतराते, क्या वह बंगाल में हो रही कट्टरवादी हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे?
आश्चर्य यह है कि बुद्धिजीवी वर्ग को यह हिंसा नहीं दिखाई देती, दिखाई देता है तो केवल राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच चल रहा पत्राचार।
हमारा संविधान सभी नागरिकों को सामान अधिकार देता है। फिर क्यों एक और भारत “लिंचिस्तान” बन जाता है पर दूसरी ओर उतनी ही वीभत्स हिंसा को केवल क़ानून व्यवस्था का मामला बताकर हम किनारा कर लेते हैं?
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