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जुनैद, अयोध्या या अखलाक, मुद्दे नहीं बनते तो हम क्या चर्चा कर रहे होते?

रविवार 9 जुलाई 2017, हम लखनऊ के अनुराग लाइब्रेरी हॉल में सईद अख्तर मिर्ज़ा द्वारा निर्देशित 1989 की फिल्म, “सलीम लंगड़े पे मत रो” देख रहे थे। अभी कुछ ही दिनों पहले रेलगाड़ी में भीड़ द्वारा जुनैद की निर्मम हत्या की खबर आई थी और सारे देश में इस पर तरह तरह की चर्चाएं अपने अपने दृष्टिकोण से हो रही थी। इस परिवेश में उक्त फिल्म की प्रासंगिकता को महसूस करते हुए स्थानीय NGO लखनऊ सिने फाइल्स ने फिल्म के प्रदर्शन तथा तदोपरांत इससे मिलने वाले पैगाम पर विचार विमर्श का आयोजन किया था।

फिल्म की कहानी एक गरीब मुस्लिम मवाली लड़के सलीम के इर्द-गिर्द घूमती है जो मुंबई के झोपड़पट्टी का निवासी है। अनपढ़ होने के साथ-साथ रोज़गार के तौर पर सलीम छोटे-मोटे जुर्म तथा दादागिरी कर के जीवित रहता है। फिल्म भिवंडी के दंगों के बाद के माहौल को चित्रित करती है। ये फिल्म 1989 के बेस्ट फीचर फिल्म इन हिंदी और 1990 के नेशनल फिल्म अवार्ड सहित अनेकों पुरस्कारों तथा सम्मानों से अलंकृत है। यदि आप चाहें तो फिल्म को YouTube पर देख सकते हैं। फिल्म में बेरोज़गारी, मुसलमानों में फैली नाउम्मीदी, दंगे, भीड़ की मानसिकता, सरकारी तंत्र तथा बेईमान व्यापारियों व स्मगलरों के बीच साठगाठ, इत्यादि जैसे अनेकों मुद्दों पर सवाल उठाए गए हैं।

फिल्म के बाद हम दर्शकों में एक छोटी सी परिचर्चा शुरू की गई। परिचर्चा का मकसद था कि यह जानने की कोशिश की जाए कि इस फिल्म से हमें क्या कोई ऐसे संदेश मिलते हैं जो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्वपूर्ण हो गए हों। जब मेरी बारी आई तो मैंने सबके समक्ष यह प्रश्न रखा कि क्या कोई बता सकता है कि 1989 – 92 के बीच का काल भारत के इतिहास के लिए क्यों अति महत्वपूर्ण है? जवाब वही था जो ऐसे में संभावित है यानी यह काल अयोध्या विवाद के कारण कभी नहीं भूला जा सकेगा।

मैंने पुनः दोहराया कि क्या आप अयोध्या विवाद के अतिरिक्त भी किसी ऐसी घटना का नाम ले सकते हैं जो शायद अयोध्या की घटना से भी अधिक महत्वपूर्ण है और जिसने आने वाले सभी वर्षों के लिए भारत की जनता के भविष्य को एक अलग ही  राह पर लगा दिया। लोग देर तक चुप बैठे रहे आखिर में एक युवक ने, जो कि मुझे बाद में पता चला, एम फिल के शोधकर्ता है, वह उत्तर दे ही दिया जो मैं चाहता था । उन्होंने कहा की इसी बीच आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को भी अपनाया गया था।

मैं आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के पक्ष या विपक्ष में कोई बात नहीं करूंगा पर ज़रा गौर से सोचिएगा, यदि इसी बीच अयोध्या विवाद ना चला होता तो समस्त जनता – सभी बुद्धिजीवी, मीडिया, विधि विद्, अर्थशास्त्री, व्यापारी, उपभोक्ता, इत्यादि सब के सब आर्थिक उदारीकरण के एक-एक पहलू का बारीकी से जायज़ा ले रहे होते। हर बात पर प्रश्न उठाए जाते और यह देखने की कोशिश की जाती कि कहीं जनता का हित केवल कुछ बड़े घरानों अथवा विदेशी कंपनियों के हाथ मैं तो नहीं चला जा रहा है। पर अयोध्या विवाद से उठने वाली धूल के पर्दे में यह सारे प्रश्न इस तरह छुप गए कि आज एक मामूली पढ़ा लिखा आदमी यह तक नहीं बता पाता है कि वर्ष 1992 भारत में आर्थिक उदारीकरण के लागू किए जाने के चलते अति महत्वपूर्ण है। किसी ने कोई सवाल नहीं उठाया कहीं कोई बात नहीं हुई क्योंकि बुद्धिजीवी मीडिया और जनता सब के सब केवल मंदिर और मस्जिद के मुद्दे में उलझे हुए थे।

क्या इन दोनों घटनाओं का साथ साथ घटित होना संजोग मात्र है या कहीं ऐसा तो नहीं कि अयोध्या विवाद की साजिश ही किसी के द्वारा इसलिए की गई हो कि उदारीकरण से संबंधित मुद्दों को जनता की आंखों से छुपा लिया जाए। सत्य क्या है मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं है।

तभी एक नवयुवक उठ कर बोले “पर श्रीमान उदारीकरण कांग्रेस राज में हुआ था”।

“आप बिल्कुल सही कह रहे हैं” मैंने उत्तर दिया तथा उन से अनुरोध किया कि वह मेरी बात पूरी होने दे, जो वह कहना चाह रहे हैं उसका उत्तर शायद उंहें स्वयं ही मिल जाएगा।

2015 में भारत के इतिहास में एक और घटना पहली बार घटित हुई। दादरी गांव में अखलाक नामी भारतीय नागरिक की हत्या एक हिंसक भीड़ ने जिसे लोग हिंदू कट्टरवादियों की भीड़ कहते हैं इस आरोप में कर दी कि अखलाक के घर में गौमांस था। अखलाक धर्म से मुसलमान थे और सारा मीडिया यह कह रहा था कि हत्या करने वाले हिंदू लोग थे जो गौरक्षा के नाम पर यह कार्य कर रहे थे। शायद देश में धर्म के नाम पर एक बड़ी फाड़ बन जाने के लिए यह घटना पर्याप्त होती पर शुक्र करें की जितनी भीड़ अखलाक की हत्या के लिए इकट्ठी हुई होगी उससे कहीं बड़ी हिंदू समुदाय की भीड़ ने सोशल मीडिया पर तथा और हर जगह पूर्ण रूप से मुखर स्वर में इस हत्या की अत्यंत कड़ी निंदा की और यह आग थम सी गई। इससे यह साबित हो गया की हत्या करने वाले हिंदू धर्म के सच्चे अनुयाई नहीं थे बल्कि सच्चे अनुयाई तो वह सब लोग थे जो इस घटना को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे।

मैं दुखी मन से Google पर अखलाक और दादरी ढूंढ रहा था तभी मुझे पता चला एक आश्चर्यजनक तथ्य का!

दादरी वही गांव था जहां एक बड़े कॉरपोरेट के लिए, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा औने पौने दामों पर ज़मीन एक्वायर किए जाने के विरुद्ध किसानों  ने मिल-जुल कर भारी प्रदर्शन किया था। और इस प्रदर्शन में हिंदू और मुसलमान दोनो साथ थे।

कहा जाता है कि प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने बल का अच्छा खासा प्रयोग किया जिससे बहुत से लोग बुरी तरह घायल हो गए और यह मुद्दा नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन तक जा पहुंचा। आप अभी भी इस केस की खोज इंटरनेट पर कर सकते हैं।

कृपया बताएं क्या अखलाक की हत्या हो जाने के बाद अभी दादरी के हिंदू और मुसलमान मिल जुलकर अपने हक के लिए किसी तरह आवाज उठाने के लायक रह गए हैं? क्या इन दोनों घटनाओं में कोई संबंध है या यह भी इत्तेफाक है कि अखलाक की हत्या उसी गांव में हुई जहां सरकार ओने पौने जमीन एक्वायर कर रही थी।

जिन सज्जन ने मुझसे प्रश्न किया था मैंने उनसे पूछा कि आपको याद है कि उस समय प्रदेश की सत्ता में कौन सी पार्टी थी वह बोले “समाजवादी पार्टी”। मैंने कहा तब से अब तक अनेकों हिंसक घटनाएं होती ही चली आ रही है जिस कड़ी की नवीनतम घटना जुनैद की हत्या है क्या कोई बता सकता है कि आज सरकार किसकी है, सब ने हंसकर कहा भाजपा की।  मैंने कहा कि शायद आपको जवाब मिल गया होगा इन घटनाओं से किसी पार्टी विशेष का कोई लेना देना नहीं।

तो क्या ऐसा है कि पार्टी चाहे कोई भी हो देश को भावनात्मक रुप से विभाजित करने के लिए कोई और ही प्रयासरत है और अगर हां तो वह कौन हो सकता है। क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि असल दोष बड़े-बड़े कारपोरेट की अधिकाधिक धन अर्जन की नीति को दिया जाना चाहिए जो इस विषय में कुछ भी करने तैयार प्रतीत होते हैं जिनमें बहुत से बहुराष्ट्रीय व्यापार समूह तथा कुछ बड़े देशी व्यापार घरानों के प्रबंधन तंत्र भी हैं।

इस फिल्म के प्रदर्शन के दूसरे ही दिन एक और अत्यंत दुखद घटना घटित हुई। अमरनाथ के निर्दोष यात्रियों पर कुछ आतंकियों ने गोलियां बरसाई जिससे बहुत सारे निर्दोष भारतीय नागरिक वीरगति को प्राप्त हो गए।

माना जाता है कि गोली चलाने वाले मुसलमान थे। मैं भी मुसलमान हूं पर यदि वे मुसलमान थे तो मैं मुसलमान नहीं हूं और यदि मैं मुसलमान हूं तो वह मुसलमान नहीं थे वह वहशी दरिंदे थे।

हां पर घटनास्थल पर एक मुसलमान था एक मुसलमान जिसका नाम था सलीम जो बस का चालक था और जिसने बरस रही गोलियों की परवाह न करते हुए बस भगाकर कितने ही मासूम भारतीय नागरिकों की जान बचा ली। सोचता हूं जिस रेल के डिब्बे में जुनैद की हत्या हो रही थी वहां भी सलीम जैसा कोई जियाला होता, अखलाक के घर के आस-पास भी कुछ ऐसे ही वीर भारतीय नागरिक होते तो शायद इनकी जान भी बच जाती।

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