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“उसके क़त्ल पे मैं भी चुप था, मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं”

एक वक़्त था जब आपसी मनमुटाव या झगड़े रोड से होते हुए अदालत तक जाते थे। एक वक़्त था जब मज़हबी मतभेद गांव की चौपालों पर बैठकर आपसी सहमति से सुलझा लिए जाते थे। एक वक़्त था जब जानबूझकर ना की गई दुर्घटना के मामले को इलाज़ के ज़रिये सुलझा लिया जाता था। एक वक़्त था जब ईद और दिवाली साथ मिलकर मनाई जाती थी।

वक़्त वो भी था जब रहमान दशहरे की झांकी में राम बना करता था और सब उससे दुआएं लेते थे। मुझे आज भी याद है जब मनोज, रहमान की ख़ातिर ठाकुर साहब के बेटे से लड़ बैठा था और बड़े बूढ़ों ने रहमान और ठाकुर साहब के बेटे को दो दिन साथ में बिताने की सजा से नवाजा था।

सवाल ये है कि ये सब बातें अब कोई मायने रखती हैं भी या नहीं? क्या इंसानियत अभी भी ज़िन्दा है? ये जो भीड़ आ रही है और सरेआम किसी को भी, कहीं भी सिर्फ अफवाहों या शक की बिना पर जान से मारने में भी नहीं हिचकिचा रही है, ये उनमें तो बिल्कुल भी नहीं है। हम और आप ये बिल्कुल भी नहीं चाहते होंगे कि देश में ऐसा माहौल हो। लेकिन शायद वो यही चाहते हैं –

“वो चाहते है हर ख़ुशी मुसीबतों में कैद हो, वो चाहते है हर तरफ कदूरतों का दौर हो। वो चाहते है…”

आख़िरकार ये भीड़ कहां से आ रही है? क्या इन्हें भेजा जा रहा है या फिर इन्हें किसी का डर नहीं है? या फिर इन्हें सत्ताधारी लोगों का समर्थन मिल रहा है? क्या ये कल को अपने माँ-बाप, भाई-बहन को भी इसी तरह भीड़ का शिकार होने देंगे? या फिर देश में एक माहौल बनाया जा रहा है जो पूरा का पूरा कंट्रोल किया जा रहा है किसी व्यक्ति विशेष द्वारा, संस्था या संगठन द्वारा या फिर सिर्फ धर्म ही इसकी रीढ़ है? गौर करने वाली बात है।

अगर आंकड़ो पर गौर किया जाए तो ज़्यादातर मौतें मुस्लिम समुदाय के लोगों की हुई हैं। चाहे वो पहलु खान हो या फिर जुनैद। लेकिन भीड़ ने हिन्दू परिवारों को भी नहीं बख्शा और ना ही औरतों को। दुनिया का कौन सा धर्म किसी की हत्या करने की इजाज़त देता है?

इनमें से ज़्यादातर घटनाओं में एक बात कॉमन है और वो है गौरक्षा। अब उन गौमाताओं का क्या जो सड़कों पर पॉलीथिन खाने पर मजबूर हैं? ये भीड़ अगर उन्हें अपने घर ले जाती तो सही मायनों में गौसेवा या गौरक्षा होती। ये सभी घटनाएं, पुलिस और सरकार के रवैया पर सवालिया निशान खड़े करती हैं। इन गौरक्षकों और धर्म के ठेकेदारों में कानून या पुलिस का कोई डर नज़र नहीं आता। नवाज़ देवबंदी ने बिल्कुल सही लिखा है –

“जलते घर को देखने वालों फूस का छप्पर आपका है, आग के पीछे तेज़ हवा है आगे मुकद्दर आपका है।
उसके क़त्ल पे मैं भी चुप था मेरा नम्बर अब आया, मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं अगला नम्बर आपका है।”

सोचिये हम कैसा समाज बना रहे हैं जिसमे इंसान की जान से ज़्यादा कीमती कुछ और है, सोचिये…

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