पिछले साल रिलीज़ हुई फिल्म ‘टॉयलेट: एक प्रेम कथा’ को लोगों ने काफी पसंद किया। श्री नारायण सिंह के निर्देशन में बनी इस फिल्म में मुख्य किरदार अक्षय कुमार व भूमि पेडनेकर ने निभाया है। फिल्म का ताना-बाना टॉयलेट यानी शौचालय के इर्द गिर्द बुना गया है और यह कॉन्सेप्ट लोगों को खूब पसंद भी आया है।
खैर, फिल्म के कॉन्सेप्ट ने अगर आपको भी आकर्षित किया है, तो आपको देश की राजधानी दिल्ली के पालम डबरी रोड पर स्थित टॉयलेट म्यूज़ियम ज़रूर देखना चाहिए। इस म्यूज़ियम में शौचालय के इतिहास को संजोया गया है। इस बेहद छोटे-से म्यूज़ियम में बहुत कुछ है, जिन्हें देखकर आप दांतों तले अंगुली दबा लेंगे और सहसा ही आपके मुंह से निकलेगा-अच्छा, ऐसा भी था क्या!
सुलभ इंटरनेशनल के इस म्यूज़ियम में शौचालय का पूरा इतिहास दर्ज है। संभवतः यह विश्व का एक मात्र म्यूज़ियम है, जहां शौचालय के संबंध में मुकम्मल जानकारी उपलब्ध है। इसमें शौचालय की विकास यात्रा को बेहद बारीकी और खूबसूरती से दर्शाया गया है।
म्यूज़ियम में आप जाएंगे, तो आपको पता चलेगा कि विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता मोहनजोदाड़ो के वक्त भी शौचालय हुआ करते थे और इन शौचालयों को सीवर लाइन से जोड़ा गया था, जिनके रास्ते मल और अपशिष्ट पदार्थ बाहर जाया करते थे। इससे साफ है कि उस वक्त भी शौचालय का महत्व था और लोग खुले में शौच नहीं करते थे। म्यूज़ियम से ही यह भी पता चलता है कि आर्यों के आने के बाद भारत में खुले में शौच की प्रथा शुरू हुई लेकिन खुले में शौच करने के कुछ कायदे भी बताए गए थे।
इस म्यूज़ियम में शौचालय को लेकर सूक्ष्म से सूक्ष्म सूचना दी गई है। इन्हीं सूचनाओं में एक सूचना यह भी है कि यूरोप में वर्ष 1348 से 1350 के बीच प्लेग महामारी फैली थी, जिसमें असंख्य लोग मारे गए थे। इसे इतिहास में ब्लैक डेथ के नाम से जाना जाता था। प्लेग फैलने की वजह यह थी कि उस वक्त अच्छे सीवर सिस्टम नहीं थे जिस कारण वे भर जाते थे जिससे मानव मल सड़कों-गलियों में बहता था। इस गंदगी के चलते चूहों की संख्या बढ़ी और प्लेग की बीमारी ने सैकड़ों लोगों को मौत की नींद सुला दिया। म्यूज़ियम में लगी एक तस्वीर बताती है कि मिडीविल यूरोप में लोग अपने घरों की खिड़कियों से मानव मल बाहर फेंक दिया करते थे। सन 1088 तक लंदन व पेरिस में घरों से निकले मानव मल को सड़कों पर रखा जाता था, जहां से इसे बाद में उठाकर शहरों के बाहर फेंका जाता था।
म्यूज़ियम में कमोड की विकास यात्रा को भी सुंदर तरीके से दिखाया गया है।
यह जानकर बहुत अजीब लग सकता है कि फ्रांस के राजा लुई चौदहवें (वर्ष 1638 से 1715) ने अपने सिंहासन के नीचे कमोड लगा रखा था। उसके ढक्कन को सीट बनाकर वह बैठा करते थे। ज़रूरत पड़ती, तो ढक्कन उठाकर वे नित्यक्रिया निपटा लेते थे और वह भी दरबारियों के सामने। म्यूज़ियम के तथ्य बताते हैं कि उनके दरबारी कई बार दबी ज़बान में शिकायत भी करते थे कि शहंशाह खाना तो लोगों की गैरमौजूदगी में खाते हैं, लेकिन नित्यक्रिया सबके सामने निबटाते हैं।
म्यूज़ियम से यह भी पता चलता है कि महारानी एलिजाबेथ-1 के दरबारी कवि जॉन हेरिंग्टन ने 1596 में पहला फ्लश टॉयलेट बनवाया था। महारानी एलिजाबेथ और जॉन हेरिंग्टन के अलावा किसी तीसरे व्यक्ति को इस टॉयलेट के इस्तेमाल की इजाज़त नहीं थी।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के वर्धा आश्रम में बापू द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शौचागार के बारे में भी म्यूज़ियम में विस्तार से बताया गया है कि सेप्टिक टैंक वाले उक्त शौचालय का निर्माण ई.जी. विलियम्सन ने किया था। बापू खुद शौचालय साफ किया करते थे और जब भी नित्यक्रिया करने जाते तो अपने साथ पत्र-पत्रिकाएं, अखबारों की कतरने आदि ले जाया करते थे।
इन सबके अलावा भी बहुत कुछ है जो इस म्यूज़ियम को खास बनाता है। इस म्यूज़ियम का निर्माण वर्ष 1992 में किया गया था। इसके लिए व्यापक तौर पर शोध किया गया था। बिंदेश्वर पाठक कहते हैं, “वर्ष 1992 में मैंने मैडम तुसाड का वैक्स म्यूज़ियम देखा। इस म्यूज़ियम को देखकर मेरे मन में खयाल आया कि भारत में भी एक ऐसा म्यूज़ियम बनाना चाहिए, जो विश्व के दूसरे म्यूज़ियमों से एकदम अलग हो। काफी सोच-विचार करने के बाद मैंने तय किया कि क्यों न टॉयलेट म्यूज़ियम बनाया जाए।” पाठक बताते हैं, “विश्वभर के 100 देशों के दूतावासों और राजदूतों को पत्र भेजकर अपील की गई कि उनके पास शौचालय से जुड़े जो भी ऐतिहासिक और समसामयिक तथ्य हैं, उन्हें साझा करें। लम्बे शोध और विचार-विमर्श के बाद इस म्यूज़ियम को तैयार किया गया।”
टॉयलेट म्यूज़ियम के क्यूरेटर बागेश्वर झा वर्ष 2001 से यहां कार्यरत हैं। वह कहते हैं, “चूंकि मैं म्यूज़ियम का क्यूरेटर हूं, तो इस म्यूज़ियम की हर चीज़ मुझे पसंद है लेकिन बतौर व्यक्ति अगर मैं बात करूं तो अमेरिका के इलेक्ट्रानिक टॉयलेट का रेप्लिका मुझे बेहद आकर्षित करता है। इसकी वजह यह है कि विश्वभर में पानी की किल्लत मुंह बांए खड़ी है, ऐसे में फ्लश टॉयलेट में पानी बहाना उचित नहीं। इलेक्ट्रानिक टॉयलेट में एक बूंद पानी की ज़रूरत नहीं पड़ती है, इसलिए यह मुझे बहुत पसंद है।”
ऐतिहासिक इमारतों और पर्यटनस्थलों से भरी इस दिल्ली में ही यह म्यूज़ियम उतनी लोकप्रियता नहीं पा सका जितनी अपेक्षित थी, लेकिन इसे अंतरराष्ट्रीय पहचान मिल चुकी है। वर्ष 2014 में टाइम मैगज़ीन ने विश्व के 10 अद्भुत म्यूज़ियमों की सूची में इस म्यूज़ियम को भी शामिल किया था।
बिंदेश्वर पाठक ने कहा, “म्यूज़ियम बनाने का उद्देश्य महज़ लोगों की भीड़ इकट्ठा करना नहीं है, बल्कि इसके ज़रिए लोगों को शौचालय की विकास यात्रा के बारे में बताना मेरा असल उद्देश्य है। इस म्यूज़ियम के ज़रिए मैं नीति निर्धारकों को बताना चाहता हूं कि वे देखें कि उनसे पूर्व के नीति निर्धारकों ने किस तरह काम किया था।”