Site icon Youth Ki Awaaz

अंदरूनी कलह से कराह रहा देश, फिर भी चिंता पाकिस्तान की

दिल्ली से हज़ारों किलोमीटर दूर दार्जलिंग में आन-बान-शान का प्रतीक भारतीय ध्वज तिरंगा लेकर सड़कों पर निकले लोग कोई क्रिकेट मैच के बड़े प्रशंसक नहीं हैं, बल्कि उन्हें अपने लिए अलग राज्य गोरखालैंड चाहिए। जिसके लिए वो पिछले 10 सालों से यह लड़ाई लड़ रहे हैं। ये लोग अपनी-अपनी दुकानें बंद कर सड़कों पर उतरकर आंदोलन कर रहे हैं और “वी वॉन्ट गोरखालैंड” के नारे लगा रहे हैं। इस दौरान हुई हिंसा में कुछ लोगों की जानें भी गयी हैं, कई लोग घायल भी हुए हैं और पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया है। फिर भी लोग नहीं मान रहे हैं, उनका आंदोलन रोज़ तेज़ होता जा रहा है। उन्हें मज़दूरी नहीं मिल पा रही है, पैसे नहीं आ रहे हैं, फिर भी उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं है।

जंतर-मंतर पर अलग राज्य गोरखालैंड की मांग के लिए धरना देते प्रदर्शनकारी। फोटो आभार: getty images

कई बार लगता है जैसे भारत विविधताओं के साथ विवादों का भी देश है। देश के अन्दर छोटे-मोटे इतने विवाद है जिन्हें सुलझाना किसी के बस की बात नहीं है। नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक वी.एस. नायपॉल ने एक बार लिखा था कि भारत अपने आप में लाखों छोटे-छोटे विद्रोहों का देश है। कुछ विवाद पुराने है तो कुछ विवाद राजनीतिक उमस से वोटों की बारिश में खुद ब खुद ही पैदा हो जाते हैं।

आज हम एक उभरते हुए भारत में खड़े हैं। हमारी सीमाएं वीर सैनिकों के कारण सुरक्षित हैं, लेकिन अन्दर जो आग लगी है उसे नजरंदाज़ करना इस सरकारी आत्ममुग्धता को चुनौती देता दिख रहा है। कहने का मतलब है कि जंगल में सुलगती आग को धुएं के गुबार और पक्षियों के शोर से पहचान लेना चाहिए। मात्र चेहरे से किसी के अच्छे स्वास्थ का अंदाज़ा लगाने वाले जानते हैं कि कई बार इंसान एकदम से हुई किसी अंदरूनी समस्या से भी दुनिया छोड़ देता है।

कश्मीर विवाद पर सवाल उठते ही जवाब आता है कि ये नेहरु की देन है, चलो मान लिया। लेकिन हरियाणा में जाट आन्दोलन, गुजरात में पटेल, सहारनपुर में दलित-राजपूत टकराव, मंदसोर का हिंसक किसान आन्दोलन, महाराष्ट्र में दूध सब्जी बहाते किसान, बीफ बैन पर अलग देश द्रविड़नाडू की मांग और अब अलग प्रदेश गोरखालैंड की मांग ये विवाद किसने पैदा किये? आखिर क्यों इन मुद्दों को लेकर मेरा देश सुलग रहा है?

ये सब वो विवाद हैं जिनमें सरकार को गोली चलानी पड़ी। हालांकि ये भारत है और यहां रेहड़ी से अंडा गिरने से लेकर धर्मग्रंथ के पन्ने फटने तक में करोड़ों की सम्पत्ति स्वाहा होते देर नहीं लगती। दो मिनट में संविधान के परखच्चे उड़ाते, सड़कों पर हथियार लहराते लोग आसानी से दिख जाते है। जबकि सब जानते है कि पता नहीं ऐसे कितने धर्मग्रन्थ, हर रोज़ कबाड़ी किलो के हिसाब में घरों से खरीदकर ले जाता है।

ये देश की वो अंदरूनी कराह है जिसे अनसुना करना घातक होगा। या कहो ये लोकतांत्रिक भारत के लिए चुनौती है। कुछ देर के लिए गाय, मंदिर-मस्जिद और तीन तलाक के मुद्दों को बिसरा दीजिए और याद कीजिए 1983-84 के उस दौर को जब जरनैल सिंह भिंडरावाले की लगाई चिंगारी ने पंजाब में ख़ालिस्तानी लहर को उठाकर शोला बना दिया था।

मैंने प्रधानमंत्री का वो भाषण भी सुना जिसमें वो किसानों को फसल की लागत से डेढ़ गुना ज़्यादा देने की बात करते हैं। लेकिन जब वो किसान दाम नहीं मिलने पर सड़कों पर उतरता है तो उसे गोली खाते भी देखा।

देश में हर गंभीर मुद्दे को राष्ट्रवाद को चोला पहनाकर उसे टाल देने की कोशिश की जाती है। आजकल इस बात को यह कहकर टाल दिया जाता है कि सीमा पर तैनात हमारे जवान लड़ रहे हैं। आतंकवाद की कमर टूट रही है, नक्सली सरेंडर कर रहे हैं, अलगाववादियों पर छापे पड़ रहे हैं और देश की जीडीपी सरपट दौड़ रही है और क्या चाहिए सरकार से?

सामाजिक समस्या को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है और पिंजरे में बंद मीडिया ने सिर्फ सोच की खिड़कियां और रोशनदान बंद ही किए हैं। जितना हम कहें बस उतना ही सोचो!!

जब दूसरे के बारे में पता ही नहीं चलेगा तो खुशी और तकलीफ बांटने की आदत ही कहां से पड़ेगी? इन हालात में यदि कोई साफ सच्ची बात लेकर लोगों को बाकी देश और दुनिया से जोड़ता है तो ऐसे आदमी को कम से कम एक बार घूरकर देखना तो बनता ही है।

जितने लोग लन्दन, पेरिस में आतंकी घटनाओं में मरते हैं, उससे कहीं ज़्यादा तो हर रोज़ हमारे यहां गाय, भैंस, मुर्गी या फिर आन्दोलन और प्रेम के नाम पर मारे जाते हैं। हालांकि इसके बाद भी मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि भारत एक महान देश है, क्योंकि जब देश पर कोई विवाद खड़ा होता है तो हम सब एक हो जाते हैं। लेकिन फिर सरकार का दायित्व बनता है कि सबकी सुने, तभी ‘सबका साथ-सबका विकास’ संभव होगा।

Exit mobile version