मुरांबा (हिंदी: मुरब्बा) युवा निर्देशक वरुण नार्वेकर की एक परिपक्व फिल्म है। फिल्म की भाषा मराठी है, लेकिन जिस कुशलता से निर्देशक ने कथानक को रचा बुना है वो इस फिल्म को भाषाई सीमाओं के परे ले जाता है। बेहतरीन अदाकारी, संवाद, कॉस्ट्यूम, संगीत और सुलझा हुआ निर्देशन इस फिल्म को, इस समय की एक बहुत महत्वपूर्ण भारतीय फिल्म बनाता है।
अपनी पहली फिल्म बनाते वक़्त ज़्यादातर निर्देशक या तो किसी सामाजिक मुद्दे को सीढ़ी की तरह प्रयोग करते हैं या लीग से हटके फिल्म बनाने के चक्कर में कुछ ज़्यादा ही गंभीर फिल्म बनाते है। हालांकि वरुण बहुत समय से नाटक और फिल्मों में काम करते रहे हैं। लेकिन ये बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म है और उनका इस तरह के विषय को चुनना एक सुखद संकेत है। उम्मीद है इससे नए निर्देशकों को भी बिना लाग-लपेट के अपनी पहली फिल्म दिल से बनाने की हिम्मत मिले।
ज़्यादातर लोगों ने फिल्म देखने के बाद लिखा कि सचिन-चिन्मयी में वे कहीं न कहीं अपने आई-बाबा को देख सकते हैं। हो सकता है कई लोगों ने आलोक-इंदु में भी अपने आप को देखा हो, वैसे कोई सबके सामने तो ये स्वीकार करने से रहा। खैर मेरा अनुभव थोड़ा अलग है।
मैं ना तो आलोक-इंदु में अपने आप को देख सका और आलोक के आई-बाबा तो मुझे किसी परी कथा की कहानी के चरित्र से लगते हैं। खासतौर से अपने लड़के और होने वाली बहू से प्रेम सम्बन्ध के बारे में इतनी सहजता से बात करते हुए। बावजूद इसके मुझे फिल्म बेहद पसंद आई और यही इस फिल्म की खासियत है। कलाकारों का सहज अभिनय और निर्देशक की बारीकियों पर पकड़ इसे इतना बेहतरीन बनाता है। जैसे आई के मोबाइल को आलोक द्वारा साइलेंट करना। आई को ताना देने के बाद भी आलोक का उसके पर्स से बेझिझक पैसे निकालना। या बाबा का आई की साड़ी की प्लेट बनाने में मदद करना, भाई दिल खुश हो गया।
वैसे आज के दौर का हर पढ़ा-लिखा शहरी युगल, इंदु-आलोक में अपनी छवि देख सकता है। कोई भी आत्मनिर्भर लड़की एक असफल या डरे हुए इंसान को अपने साथी के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर सकती। वहीं एक लड़के के लिए लड़की के सामने अपनी कमज़ोरियों को स्वीकार करना सबसे बड़ी चुनौती होती है। हर कोई ऐसे समय में घबरा जाता है, भाग जाना चाहता है। ज़्यादातर सम्बन्ध इसी कारण टूटते हैं।
तो बंधुओं जिनकी प्रेमिका इंदु जैसी है वो ईश्वर का शुक्रिया करें। जिनकी प्रेमिका अभी इंदु के जैसी नहीं है वो उम्मीद न छोड़े, शादी के बाद कभी न कभी वो इंदु की तरह हो ही जाएंगी। जिन लड़कियों के प्रेमी आलोक की तरह हैं वे मुरांबा टेस्ट का प्रयोग करें और देखे कि उनका आलोक कैसे बर्ताव करता है। और अगर आपका प्रेमी आलोक की तरह नहीं लगता तो इसका मतलब है कि अभी आप उसे अच्छी तरह नहीं जानती।
हर लड़के में एक आलोक छुपा होता है और हर लड़की में इंदु। बस हर लड़के के मां-बाप आलोक के आई-बाबा की तरह नहीं हो सकते। जिन लोगों के मां-बाप आलोक के आई-बाबा की तरह हैं, वे तो ईश्वर को रोज़ सुबह शाम धन्यवाद दें। जो लोग पहले से शादीशुदा हैं और उन्हें लग रहा हो कि वो आलोक और इंदु नहीं हैं, ना हो सकते हैं। उन्हें उम्मीद नहीं हारनी चाहिए। वो कम से कम बेहतरीन आई- बाबा बनने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। जो इनमें से किसी भी श्रेणी में नहीं आते वो कम से कम सिनेमा हाल में जाकर मुरांबा देख आएं।
जिस तरह कभी स्विट्ज़रलैंड ना जा सकने वाले लोग एक समय यश चोपड़ा की फिल्मों को देख कर खुश होते थे वैसे ही आप इस सुलझे हुए परिवार को देख कर खुश तो हो ही सकते हैं। खासतौर से टीवी धारावाहिक के सताए हुए दर्शकों के लिए तो ये फिल्म रामबाण औषधि का काम करेगी। संभवतः आपकी वर्षों की मूर्छा टूट जाए।
वैधानिक चेतावनी: टेलीविज़न धारावाहिकों के निर्माता/लेखकों को ये फिल्म देखने से मानसिक आघात हो सकता है। इस फिल्म के किरदार उन्हें किसी अन्य गृह के प्राणियों (एलियंस) की तरह लग सकते हैं। जहां सास-ससुर होने वाली बहू पर बेटे से ज़्यादा विश्वास रखते हैं।
मैं मराठी फिल्मों पर बहुत अधिकार से तो नहीं बोल सकता, लेकिन मुझे लगता है मराठी सिनेमा में यह एक महत्वपूर्ण फिल्म साबित होगी। क्यूंकि ये ब्रेक-अप जैसे विषय को रिश्तों की एक असाधारण कहानी बना देती है, इसलिए मुझे लगता है ये मराठी सिनेमा की ‘दिल चाहता है’ साबित हो सकती है (जिसका इशारा निर्देशक फिल्म के शुरू में देता भी है)। खासतौर से जिस सहज़ता के साथ फिल्म को प्रस्तुत किया गया है। ड्रामा और कॉमेडी का एक नया स्वरुप इस फिल्म में देखने को मिलता है।
उम्मीद है आने वाले समय में इसी तरह के सहज कथानकों वाली और अधिक मराठी फिल्मों का निर्माण हो जिसमें इस तरह का स्वाभाविक अभिनय, वस्त्र-सज्जा, संगीत और कला निर्देशन देखने को मिले। फिल्म के संवाद बहुत ही बेहतरीन हैं, सिर्फ डबिंग ने मुझे निराश किया। खासतौर से नाज़ुक दृश्यों में डबिंग, दृश्य के प्रभाव को कम करती है (खैर ये बाल की खाल निकालने जैसी बात है)।
मुरब्बा हर क्षेत्र में अलग ढंग से बनता है। यहां तक कि एक ही सयुंक्त परिवार में भी अलग-अलग लोग इसे अलग-अलग ढंग से बनाते हैं। इसमें क्षेत्र, मौसम, उपलब्ध सामग्री और परिवार के स्वाद का विशेष महत्त्व होता है, ठीक उसी तरह फिल्मों की मूल तकनीक सामान होते हुए भी देश, काल, संस्कृति के हिसाब से हर किसी को अपनी विधि से इसे बनाना होता है। अक्सर फिल्म समारोहों में विदेशी फिल्में देखकर कई युवा फिल्मकार हुबहू उनके विषयों या कहानी कहने के ढंग को अपना लेते हैं। वे ये भूल जाते हैं, की अगर भारतीय विषयों को किसी अन्य देश की संवेदनाओं के साथ प्रस्तुत करेंगे तो फिल्म में उसकी आत्मा नहीं होगी।
पुणे के चाय-खारी में रची बसी इंदु-आलोक की कहानी जहां एक ओर विश्व के सभी युवा प्रेमियों की कहानी बन जाती है। वहीं माता-पिता की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका इस फिल्म को व्यापक भारतीय आधार प्रदान करती है। उम्मीद है वरुण की तरह हर निर्देशक अपने-अपने मुरब्बे की सफल रेसिपी विकसित कर पाएं।