बहुत धुंधली सी एक याद है बचपन की, मां अक्सर हिदायत देती थी कि बिना वजह प्राइवेट पार्ट्स को मत छूना। मेरी बहुत सी दोस्तों की तरह मुझे भी ये ठीक से याद नहीं कि कब योनी को छूने से आनंद का एहसास होने लगा। बस मुझे ये याद है कि ये मेरे ज़हन में बैठा दिया गया था कि ये ऐसी बातें हैं जिनके बारे में मैं किसी से भी बात नहीं कर सकती।
मैं स्कूल में उन तमाम पुरुषवादी सोच और मान्यताओं का पालन करती थी जो मुझे एक अच्छी और सभ्य लड़की की परिभाषा में सटीक तरीके से बिठाए। मेरे पिता भी यही चाहते थे। ये सोच और सामाजिक कानून इतने सख्त तरीके से दिमाग में बिठाये गए थे कि मैं किसी लड़के से बात तक नहीं करती थी। मेरा ना तो कोई पुरुष दोस्त था और ना ही ब्वॉयफ्रेंड जिससे मैं ऐसी निजी बातें भी कर सकूं और फिर सेक्स करने जैसी बातों की तो कल्पना भी छोड़ दीजिए।
उस उम्र में अपने या किसी और के बॉडी और बॉडी पार्ट के बारे में बात करने के बारे में सोचना ही शर्मनाक था। और ज़ाहिर है कि जो लड़की दोस्त मैंने बनाए थे वो भी अपने शरीर के बारे में खामोश थीं। हां पीरियड्स के दौरान होने वाले दर्द के बारे में वो ज़रूर बात करती थीं।
तो ये 10वीं क्लास की बात है जब मैंने पहली बार अलग-अलग तरह के पॉर्न देखा और सेक्स कैसे किया जाता है ये जाना। पॉर्न देखने के बाद ही मुझे खुद से आनंद लेने के बारे में भी पता चला। पहली बार अॉर्गाज़्म महसूस करना वो भी अपने हाथों से, ये सब मेरे लिए अद्भुत था।
हां अब मैं ये जानती हूं कि हस्तमैथुन को लेकर मेरे शुरुआती खयाल या समझ कितनी गलत थी। पॉर्न से सीखने पर ये तो होना ही था, जो हकीकत से बहुत दूर और सिर्फ पुरुषों की उत्तेजनाओं के लिए बनाई जाती है।
काश तब मेरे कुछ करीबी दोस्त होते जो मुझे इन बातों पर चर्चा करने के लिए गलत नहीं समझते या मेरी एक अलग छवी नहीं बनाते। और हां यहां पर मैं ये भी साफ कर दूं कि अपने शुरुआती सेक्शुअल एक्सप्लोरेशन के लिए मैं पॉर्न को कोई दोष नहीं दे रही।
उस उम्र में ये मेरी ऐसी सच्चाई थी या यूं कहें ऐसा राज़ था जो मुझे बार-बार ग्लानी और दोषभाव से भर देता था। मैं चेकअप के लिए गायनैकोलॉजिस्ट के पास जाने से भी डरती थी। मुझे लगता था कि वो मेरी योनी देखकर मेरे हस्तमैथुन के बारे में पता लगा लेंगी और फिर मां को बता देंगी।
मैं ये सोच भी नहीं पाती थी कि हो सकता है दूसरे लोग इस बात को लेकर काफी सहज़ हों। और इसमें मेरा कोई दोष नहीं था क्योंकि मेरे 19 साल के जीवन में मैंने इन बातों के बारे में कभी किसी से नहीं सुना था। मुझमें भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि इन बातों को किसी के साथ शेयर करूं अपने सबसे अच्छे दोस्तों के साथ भी नहीं। लेकिन महिला कॉलेज में बिताए एक साल ने सब कुछ बदल दिया। मुझे कुछ ऐसे बेहतरीन दोस्त मिलें जो हर बात डिसक्स करने में सहज थे।
हस्तमैथुन (मास्टरबेशन) के तरीकों से लेकर उसके प्रभाव तक। एक दोस्त ने बाइसेक्शुएलिटी की पहचान भी ज़ाहिर की और उसके प्रति लोगों के रवैय्ये को भी। और तब जाकर मैं अपनी योनी और उसकी ज़रूरतों के साथ बहुत ही सहज हुई।
मुझे अंदाज़ा है कि इस मुद्दे को लेकर हमारे समाज में कितना बड़ा टैबू है। ये पुरुषों के लिए तो ठीक है लेकिन महिलाओं के लिए तो जैसे कलंक या पाप हो। इसको लेकर तमाम तरह के मिथक जैसे जो महिलाएं हस्तमैथुन करेंगी उनके पति का दृष्टिहीन हो जाना, या हस्तमैथुन के दौरान निकले वीर्य के साथ गर्भधारण करने की क्षमता का खत्म हो जाना, ये तमाम चीज़ें हमारी मानसिकता और सोच को दिखाती है कि कैसे हमने पुरुषत्व को ही सबसे ऊपर, भावनात्मक रूप से दृढ़, शारीरिक रूप से बलिष्ठ होने की परिभाषा गढ़ दी है। महिलाओं से हमेशा ये उम्मीद की जाती है कि वो अपनी कामेच्छाओं को आसानी से दबा दें या छुपा लें। हां शादी के बाद जैसे पति सेक्स करना चाहे वैसे ठीक।
महिलाओं के लिए आनंद हमेशा कलंक के साथ ही आता है। अगर आप इस बात को नहीं मानते तो वो दो वर्ग देख लीजिए जिसमें महिलाओं को बांटा गया है एक मां और दूसरी वैश्या।कोई भी लड़की या महिला जब अपनी कामेच्छाओं को खुल कर जीती है पूरा करती है या उस पर बात करती है वो बहुत से लोगों के लिए बर्दाश्त से बाहर की बात हो जाती है।
फिर शुरू होता है उसका नामाकरण जैसे रंडी, बद्चलन, बेसलीका। ये तमाम बातें बार-बार हमारी उस सोच पर मुहर लगाती है कि महिलाओं की कामेच्छाएं, सेक्स के लिए पहल, या सेक्स पर बात करना असमान्य और असभ्य है। ये कितना भयानक और शर्मनाक है कि लाखों महिलाएं इन तमाम तरह की दकियानूसी बातों के कारण खुद के सेक्शुअल प्लेज़र यानी कामुक आनंद पर पूरी तरह से पाबंदी लगा देती हैं।
और हां हस्तमैथुन को सेक्स क्रिया का महज़ एक विकल्प मानना इंसान के कामुक क्षमताओं का मज़ाक उड़ाना भर है। ऐसा करके हम एक स्वस्थ इंसानी शरीर की सेक्शुअल मांगों और प्रक्रियाओं को नकार भर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर बहुत सी महिलाओं ने तो क्लिटोरिस नाम तक नहीं सुना है क्योंकि भारत में सेक्स एजुकेशन के दौरान भी इनका ज़िक्र नहीं किया जाता, क्योंकि सेक्स क्रिया का एक ही मतलब निकाला जाता है योनी में लिंग का प्रवेश।
मैं इसे पुरूष बनाम स्त्री का मुद्दा नहीं बना रही। ये तो तय है कि हमारा समाज बच्चे को जन्म देने के अलावा सेक्स को लेकर किसी भी अन्य तरीके से सहज़ नहीं है और ऐसा सभी जेंडर के लोगों के साथ है। लेकिन ये भी तय है कि ये पाबंदियां महिलाओं के उपर ज़्यादा हावी हैं।
शायद मैं अपनी शरीर और उसकी ज़रूरतों को बेहतर समझ पाती अगर मुझे इन तमाम तरह की ग्लानियों और उलझनों से ना गुज़रना पड़ता या कोई बात करने को होता या कहीं से भी ये पढ़ने को मिलता कि जो मैं कर रही हूं या जो महसूस करना चाहती हूं वो गलत नहीं है।