बहुत बुरा लगता है यह जानकर कि करीब 1. 34 बिलियन जनसंख्या वाले विशाल देश को खेलों के सबसे बड़े आयोजन ओलंपिक में मात्र चंद पदकों से संतोष करना पड़ता है। जहां काबलियत, जुनून और मेहनत लोगों की रगों में बहता है, आश्चर्य होता है कि ओलंपिक में पदक की प्रतियोगिता में ऐसा देश दूर-दूर तक कहीं नज़र ही नहीं आता है। भारत के कानों को ओलंपिक का इतिहास किसी कड़वे ताने से कम नहीं लगता है, जब आंकड़े चीख-चीख कर कहते है कि भारत की झोली में हर बार इतने कम पदक आते हैं कि गिनने के लिए एक हाथ की उंगलियां भी ज़्यादा पड़ जातीं हैं।
हर चार साल बाद आयोजित होने वाले ओलंपिक खेलों को दुनिया का सबसे बड़ा खेल मेला माना जाता है। माॅडर्न ओलंपिक की शुरुआत 1886 में हुई थी। भारत ने सन् 1900 में ओलंपिक खेलों में पहला कदम रखा था और तब से अब तक हम केवल 28 पदक ही जीत पाएं हैं। यह और बात है कि इतने पदक तो अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स अकेले ही जीत चुके हैं।
गौर करने वाली बात तो यह है कि माइकल फेल्प्स के नाम सर्वाधिक 23 स्वर्ण पदक हैं, जबकि भारत अपने पूरे खिलाड़ियों के साथ मिलकर भी अब तक महज़ 9 स्वर्ण पदक हासिल कर पाया है। भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ट प्रदर्शन 2012 के लंदन ओलंपिक में था, जहां हमने 6 पदक जीते थे। इसमें दो रजत और चार कांस्य के अलावा एक भी स्वर्ण शामिल नहीं था । सुनने मे अच्छा नहीं लगेगा पर आंकड़ों की हकीकत ही यही है कि भारत सबसे कम प्रति व्यक्ति ओलंपिक पदक की संख्या वाला देश है।
आज हर क्षेत्र में भारत अपनी काबलियत साबित कर रहा है। मगर मात्र क्रिकेट को छोड़ दें तो जब भी बारी खेलों में खुद को साबित करने की आती है, हर बार भारत दूर कहीं भीड़ में गुम हो कर रह जाता है। यूके में करीब 18 मिलियन लोग 15 से 35 उम्र के बीच हैं। वहीं भारत में करीब 400 मिलियन लोग 15-35 उम्र के बीच हैं। रियो ओलंपिक में ग्रेट ब्रिटेन ने 67 पदक अपने नाम किए, वहीं भारत महज 2 पदक ही जीत सका था।
2016 रियो ओलंपिक मे भारत के मात्र 117 खिलाड़ियों ने 15 खेलों में हिस्सा लिया था। जबकि चीन (1. 367 बिलीयन ) के 416 खिलाड़ियों ने 26 खेलों में और अमेरिका (321. 3 मिलीयन ) के 554 खिलाडियों ने 30 खेलों में हिस्सा लिया था। यह आंकड़े पर्याप्त है इस बात को दर्शाने के लिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में भारत की हिस्सेदारी कितनी सीमित है। रियो ओलंपिक में सर्वाधिक 121 पदक के साथ अमेरिका को पहला स्थान और चीन को 70 पदक के साथ तीसरा स्थान हासिल हुआ था।
इस विफलता के लिए मुट्ठीभर खिलाड़ियों पर उंगलियां उठाना गलत होगा। उनसे यह आस लगाना गलत है कि खिलाड़ी मैदान पर उतरेंगे और अपने गले को पदक से सजा लेंगे। हमें यह बात समझनी होगी कि इस नाकामी के ज़िम्मेदार महज़ कुछ खिलाड़ी ही नहीं, बल्कि पूरा देश है। ज़रूर कमी कहीं ना कहीं देश की खेल प्रशिक्षण प्रणाली मे है। यूं कहें कि हम अपने खिलाड़ियों को प्रशिक्षण चूहों सा देते हैं और उम्मीद करते हैं कि शेर से जीत कर लौटेगा। साफ शब्दों में कहूं तो हम अपने खिलाड़ियों को उस स्तर का प्रशिक्षण देते ही नहीं कि वो ओलंपिक में दिग्गजों को धूल चटा सकें।
भारत को अगर ओलंपिक में एक कांस्य पदक के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है तो उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि भारत में खेल सभ्यता की बेहद कमी है। भारत में खेल को उतनी तवज्जों नहीं दी जाती है, जितनी असल में उसे मिलनी चाहिए। बचपन में अपने माता-पिता से सबने ही यह सुना होगा कि “पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब”। यह बचपन की कहावतें साफतौर पर खेल के प्रति हमारे समाज की गलत धारणाओं को उजागर करतीं हैं।
हमारे समाज ने यह मान लिया है कि कामयाबी और शोहरत सिर्फ डिग्री हासिल करके ही मिलेगी, खेल महज़ वक्त की बर्बादी है। हमारे समाज में डिग्री ज़रूरी है, कारोबार ज़रूरी है, चार पैसे कमाना ज़रूरी है, शिष्टाचार ज़रूरी है, बस अगर कुछ ज़रूरी नहीं है तो वह है खेलना। गजब का है ये समाज हमारा, दिल लगा कर खेलने वाला नाकारा कहलाता है और दिल लगा कर पढ़ने वाला महत्वाकांक्षी। 2-3 पदक से ज़्यादा क्या उम्मीद कर सकते है ऐसे देश से जहां खेलों के नाम पर लोगों का मुंह चुकंदर सा बन जाता है। हर मां बाप अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, सरकारी अफसर, लाॅयर बनने की घुट्टी पिलातें है पर कोई यह नहीं सिखाता कि ‘बेटा/बेटी तुम्हें ओलंपिक में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीतना है। भारत में खेल सभ्यता की कमी का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते है कि जिम्नास्ट दीपा कर्मकार को लोगों को यह विश्वास दिलाना पड़ा कि वह कोई सर्कस नहीं करती हैं।
बच्चों का मनोबल शुरुआत से ही यह कहकर कमज़ोर कर दिया जाता है कि “मैदान में रहोगे तो जिंदगी में कहीं के नहीं रहोगे।” इस मानसिकता से आज हमारे समाज के शिक्षा संस्थान, स्कूल, कालेज आदि पूरी तरह से प्रभावित हैं। सरकार द्वारा संचालित ‘सर्व शिक्षा अभियान’ की टैग लाइन तक यही कहती है कि ‘सब पढें, सब बढ़ें’। स्कूल और कालेज में हर रोज़ पढ़ाई के लिए कम से कम 5-6 घंटे निर्धारित होते हैं, पर खेलों के लिए एक हफ्ते में मुश्किल से मात्र एक घंटा।
आज भारत में सुचारू रूप से सक्रिय खेल संस्थान बेहद कम हैं और अगर कुछ हैं तो वो गरीब की पहुंच से बहुत दूर हैं। अफसोस बड़े स्तर पर खेलों को बढ़ावा देने के लिए सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाएं न के बराबर हैं। जिस प्रकार प्राथमिक शिक्षा को हर बच्चे तक पहुंचाने के लिए सरकार ने महत्वपूर्ण कदम उठाएं है, वैसे कदम खेलों को बढ़ावा देने के लिए देखने को नहीं मिल रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि शिक्षा समाज के लिए बेहद ज़रूरी है, पर विकासशील भारत के लिए खेल और पर्सनेलिटी डेवलपमेंट भी अब ज़रूरी है।
पिछले कुछ सालों में लोगों में खेलों के प्रति रूचि और जागरूकता ज़रूर बढ़ी है, पर वो केवल कुछ खेलों के प्रति देखने को मिली है। बड़े शर्म की बात है कि भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी महज कुछ लोकप्रिय खेलों के सिवा कोई नाम नहीं जानता है। ]जिमनास्टिक को आज भी भारत में सर्कस के तौर पर देखा जाता है। भारत में कुल मिलाकर एक ही खेल धनवान है, वो है क्रिकेट। ताजुब नहीं कि क्रिकेट वर्ल्डकप में पूरा भारत टीवी, रेडियो और फोन से चिपका रहता है और ओलंपिक शुरू होकर खत्म भी हो जाता है लेकिन लोगों को खबर भी नहीं होती है। भारत में गौतम गंभीर को बच्चा-बच्चा जानता है पर कर्णम मल्लेश्वरी को मात्र कुछ लोगों को छोड़ कर कोई नहीं जानता है।
भारत में किसी भी सरकार के वक्त खेल कभी भी प्राथमिक सूची में नहीं रहे। हमेशा से ही सरकार खेल के नाम पर जेब ढीली करने में तालमटोल करती रही है। वोटों का कोई भी रास्ता खेल से होकर नहीं गुज़रता है, इसलिए सरकार का खेलों के लिए हमेशा से सुस्त रवैय्या देखने को मिलता रहा है। ओलंपिक खिलाड़ियों को तैयार करने के लिए जितनी राशि यूके खर्च करता है उसका भारत मुश्किल से तिहाई से चौथाई हिस्सा खर्च करता है। भले ही 2017-2018 खेल बजट को बढ़ा कर 1943. 21 करोड़ रूपए कर दिया गया है, मगर यह अब भी शिक्षा बजट (79, 685. 95 करोड़) का महज़ 2.43% ही है। शिक्षा बजट से तुलना करना शायद सही ना हो पर असल में मकसद सिर्फ यह दिखाना है कि सरकार खेलों के नाम पर कितना कम खर्च करती है।
खेलों के लिए स्तरहीन इन्फ्रास्ट्रक्चर, संसाधनों की कमी और बेहद औसत ट्रेनिंग भी एक बड़ा मसला है। एथलीटों के लिए डाईट प्लान का आधार वैज्ञानिक नहीं है, नतीजा खिलाड़ियों की मांसपेशियों का अच्छे से विकास न हो पाने और स्टेमिना की कमी के रूप में सामने आता है।सरकार का यह मानना है कि वह विभिन्न खेलों की संस्थानों को चला रही है, परंतु ज़मीनी हकीकत यह है कि ऐसे संस्थान फिलहाल खस्ता हाल पड़े हैं। खेलों के लिए जो कुछ सरकारी योजनाएं हैं वो सुस्ती से कछुए की चाल रही हैं। सरकार के ज़्यादातर संस्थानों का आलम यह है कि वो पूरी तरह भ्रष्टाचार और राजनीति में लिप्त हैं।
सरकार को ज़रूरत है ऐसी योजनाओं की पहल करने की जो निचले स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय खेलों से लोगों के जुड़ाव को मुमकिन कर सकें। हम सब को अब यह समझना बहुत ज़रूरी है कि चैम्पियंस एक दिन में नहीं बनते हैं, बल्कि सालों की कड़ी मेहनत का नतीजा होते हैं। अचानक महज़ खिलाड़ियों को खेल के मैदान में खड़ा कर देने से पदक देश में नहीं आएंगे। ओलंपिक में अगर पदक की दौड़ में भारत को आगे देखना है तो सिर्फ कुछ खिलाड़ियों को ही नहीं बल्कि पूरे देश को मेहनत करने की आवश्यकता है।