बिहार में दहेज की समस्या को लेकर जनमानस में एक आम सहमति है। लोग दहेज का विरोध भी करते हैं फिर भी सामाजिक प्रचलन के नाम पर दहेज ले लेते हैं। जब हर व्यक्ति इसे बुरा मानता है तो फिर ये समाज कौन है जिसके नाम पर यह चल रहा है? क्या समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है? क्या समाज, किसी अलग दुनिया के लोगों से बना है? हम ही तो समाज हैं, फिर हम दोषारोपण किस पर कर रहे हैं? गाँधी जी ने कहा था कि कुछ बदलाव देखना चाहते हो तो खुद को बदलो। असल में व्यक्ति अपनी कुकृत्यों को ढंकने के लिए भी कई बार समाज पर सारा दोष मढ़ देता है। मुख्यरूप से, व्यक्ति जब समाज को दोषी बना रहा होता है तो उसे शायद ये पता नहीं कि वो खुद कठघरे में खड़ा है।
सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ विद्रोह का इतिहास, भारत में स्वर्णिम है। ऐसा ही एक विद्रोह, बिहार में दहेज के खिलाफ हुआ था। दहेज के खिलाफ इस विद्रोह की कहानी नब्बे के दशक की है। इसे बिहार में पकड़ुआ बियाह( फोर्स्ड मैरेज) के नाम से जाना जाता है। दहेज ने लोगों को इतना असहाय कर दिया था कि (शादी जिसमें लड़के-लड़की की सहमति के साथ-साथ पारिवारिक सहमति भी ज़रूरी होती थी) लोगों ने लड़के को अगवा कर विवाह कराना शुरू कर दिया था। मुझे याद है इस विद्रोह का डर इतना बढ़ गया था कि लोग अपने लड़के को किसी की बारात में भेजने से भी कतराते थे। लड़कों ने अकेले कहीं भी अंजान जगह पर जाना बंद कर दिया था। पहली बार पितृसत्ता के पुरोधा मर्द, अब डरने लगे थे, सहमने लगे थे।
पकड़ुआ बियाह के तौर-तरीके निस्संदेह सही नहीं थे, लेकिन जब समाज ही लुटेरा बन चुका हो तो उसमें साधन पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है। दिनों-दिन दहेज की बढ़ती रकम के कारण पकड़ुआ बियाह को मान्यता मिलने लगी थी। इसकी मुख्य वजह, गरीब लड़की वालों का लगातार तिरस्कार था। इसमें लड़के को बन्दूक की नोंक पर उठा लिया जाता था और फिर पूरी पहरेदारी में तमाम रीति-रिवाज के साथ उसका विवाह लड़की से करा दिया जाता था। इस घटना में कई बार लड़के के रिश्तेदारों की भी अहम भूमिका होती थी। रीति-रिवाजों को निभाने में लड़के की आना-कानी पर उसकी थोड़ी पिटाई भी की जाती थी। सिंदूर-दान के समय लड़के का डर देखने लायक होता था।
आज तक की शादियों में हमने लड़की को सहमे और डरे हुए देखा था, लेकिन इस शादी में लड़के को सहमा हुआ किसी लड़की ने पहली बार देखा होगा। शादी के बाद लड़की-लड़के को एक कमरे जिसे “कोहबर घर” कहते हैं, में सुहागरात के लिए छोड़ दिया जाता था। अब यह लड़की के ऊपर निर्भर करता था कि वो उससे कैसे शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर ले। एक दूसरे का मन मिले या ना मिले लेकिन शादी में शारीरिक मिलन कितना ज़रूरी होता है, इस तरह का विचार ही मनुष्य में आत्मा का न होने का प्रमाण भी है।
कुछ दिनों तक यही प्रक्रिया चलती थी। अब नव-विवाहित जोड़ी को ‘ससम्मान’ लड़के के घर पर भेज दिया जाता था। फिर लड़के वालों का विद्रोह शुरू होता था, दोनों गांव की पंचायत बैठती थी और किसी तरह इसको सुलझा लिया जाता था। लेकिन विडम्बना देखिये, यह विवाह भी दहेज से मुक्त नहीं होता था। पंचायत, थोड़ा-बहुत दहेज दिलवा ही देती थी, हालांकि यह रकम काफी कम और कई बार नहीं भी होती थी। कुछ एक बार मामला पंचायत से बाहर पुलिस में भी जाता था और पुलिस भी इसे मिलाजुला कर सेटल कर देती थी।
कई बार ऐसी शादियां सफल भी हुई, सफल होने के लिए ज़रूरी था लड़की का सुन्दर होना। यह इस बात का प्रमाण है कि हम रंगभेद से कितने ग्रसित हैं। लेकिन मन मुताबिक दहेज न मिलना और लड़की का सुन्दर नहीं होने के कारण, कई शादियां सफल नहीं हो पायी। वैसे तो लड़कियों को किसी भी तरह की शादी में बहुत बड़ा स्थान प्राप्त नहीं था, लेकिन पकडुआ बियाह के बाद लड़की की मानसिक यातना बढ़ जाती थी। उसे नौकरानी से बड़ा दर्जा शायद कभी नहीं मिल पाता था, ऐसी शादियां ज़्यादातर गरीब लड़की वालों के द्वारा ही की जाती थी। लड़की को बार-बार लड़के वाले उसकी निर्धनता का एहसास कराते रहते थे।
वैसे ये शादियां ऊंची जाति के लोगों तक ही सीमित थी। कई बार, जिन्हें लड़की पसंद थी और माँ-बाप दहेज के कारण शादी से इनकार करते थे, तो लड़के पकुड्वा ग्रुप के पास जाकर खुद भी किडनैप हो जाते थे। पकड़ुआ विवाह ने समाज को काफी डरा दिया था और अब दहेज की मांग की रकम घटने लगी थी। बहरहाल, दहेज ने बढ़ते सेंसेक्स आंकड़ों के साथ खूब उछाल मार दिया है। अभी तक हम सिर्फ लड़की के नुकसान को देख रहे थे, पकड़ुआ विवाह से यह साफ़ था दहेज लेने का नुकसान लड़कों को भी हो रहा था। दहेज से कैसे लड़कों को नुकसान होता है, दहेज डायरी के अगले पार्ट में।