घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये।
– निदा फाज़ली
यहाँ नींद नहीं है। रात-रातभर का जागना है। मिन्नते हैं। गिड़गिड़ाना है। ढाढस है। आंचल की आड़ में रोना है। यहाँ मूक-बधीर होकर उम्मीदों में बाट जोह रही आँखें हैं। जो कभी पिता तो कभी माँ बन जा रही हैं। सूजी हुई आँखों में जमकर पत्थर हो गई पुतलियाँ हैं। यहाँ कुछ भी ठीक नहीं है पर सब ठीक हो जाने की आस है। उजले कपड़ों में टहलते फरिश्ते हैं। जो जाने-अनजाने कई बार अपना ओहदा भूल जा रहे हैं। यहाँ होने के नाम पर सिर्फ लम्बी कतारे हैं। अपनी बारी का इंतजार है। सैकड़ों ऑक्सिजन की शिशियाँ (सिलेंडर) हैं। जिंदगी के लिए लड़ाई कर रही नन्हीं साँसे हैं। निमोनिया है। टाइफाईड है। बुखार है। सूख रहे गले हैं। माथे पर उभरता पसीना है और जान तक बेच देने की जिद्द है। यहाँ दूर-दूर तक हँसी नहीं है पर इंतज़ार है हर माँ-बाप को, अपनें बच्चों के हँसने का।
यह दिल्ली के गीता कॉलोनी में अवस्थित चाचा नेहरु बाल चिकित्सालय है। देश के सभी बाल चिकित्सालयों की तरह बीमार बच्चें और लाचार माँ-बाप से ठसा-ठस भरा हुआ। लेकिन यह कुछ विशेष कर रहा है। कुछ विशेष होता चला जा रहा है। क्योंकि इन्होनें इलाज में हँसी भी शामिल कर ली है। नहीं….। यह कोई नई सूई या टैबलेट नहीं है। ना ही किसी नई कम्पनी का कोई नया आविष्कार। यह तो बस एक सामान्य नाक-नक्श की साधारण-सी लड़की है – शीतल अग्रवाल। हॉस्पिटल के बच्चों और डॉक्टरों के लिए लाफ्टर गर्ल (क्लाउन गर्ल)। जेएनयू से एमए और डीयू से एंथ्रोपॉलोजी में एमफिल करने के बाद कुछ विश्वविद्यालयों में बतौर विजिटिंग प्रोफेसर के रुप में काम कर चुकी शीतल अब इसी नाम से मशहूर हो रही हैं। वह हर शनिवार तय वक़्त से हॉस्पिटल पहुँचकर रोते और उदास चेहरों पर हँसी लाने में जुट जाती हैं। दिनभर सभी माले और हर वार्ड में पहुंचकर वह हँसी परोसती है और हँसी समेटकर बाहर आ जाती है।
शीतल के शब्दों में –
मैं हमेशा से क्लाऊनिंग करना चाहती थी इन बच्चों के लिए। इनके चेहरों पर हँसी देखना चाहती थी। यह ऐसी जगह है जहाँ हँसी बड़ी मुश्किल से आपको ढूंढ़ने पर मिलेगी। इसलिए मैंने काम करने के लिए सरकारी बाल चिकित्सालय का चुनाव किया। आज यह करते महीनों हो गए हैं। बहुत से नए साथी भी जुड़ रहे हैं। पूरा हॉस्पिटल खुश है। क्लाउनिंग के बाद बच्चों के हालात में तेजी से सुधार देखने के बाद डॉक्टर भी अब मदद कर रहे हैं। पर हम और हॉस्पिटलों तक पहुँचना चाह रहे हैं।
शीतल के इन प्रयासों ने आज दस-पंद्रह लोगों की एक छोटी-सी टीम खड़ी कर ली है। यह टीम क्लाउनसेलर्स (Clownselors) के नाम से आपको सोशल मीडिया पर मिल जाएगी। हर शनिवार इच्छुक युवा अपने-अपने काम और छुट्टियों से वक़्त निकालकर हँसी कमाने के लिए शीतल के साथ हो लेते हैं। सुबह नौ बजे हॉस्पिटल के सभाकक्ष में मिलने के बाद का एक घंटा बैलून फुलाने और चेहरे को क्लर करने से लेकर नए लोगों को कुछ इंसट्रक्शन देनें में चला जाता है। फिर इनकी टीम अलग-अलग हिस्सों में बटकर बारी-बारी से सभी वार्डों में धूमकर अपनी क्लाउनिंग से उदास चेहरों को हँसी में तब्दील करने में जुट जाती हैं। अपनी इस कोशिश में कभी-कभी इन्हें उदासी भी मिलती है जब लाख जतन करने के बावजूद कुछ चेहरों पर हँसी नहीं ला पाते हैं।
क्लाउनसेलर्स के साथ जुड़ी ऋषिका अपने अनुभव साझा करते हुए कहती हैं –
एक बार हम लाख कोशिशों के बावजूद एक बच्चे को हँसा नहीं पा रहे थे। तभी अचानक से मेरा क्लाऊन नोज़ मेरे नाक से निकलकर नीचे गिर गया। इतना देखते ही वह बच्चा खिलखिलाकर हँसने लगा यह देखकर सारे नर्स और डॉक्टर बहुत खुश थे। बच्चे की माँ खुशी के मारे रोने लगी। मैं आज भी उस दिन को याद करती हूँ तो धनी हो जाती हूँ। यह ऐसा सौदा है जिसमें आप अपनी हँसी के बदले हजारों हँसी अपने साथ ले जाते हैं। यह दिन बहुत खुबसूरत होता है मेरे लिए।
यहाँ अपने बच्चों का इलाज करा रहे लाचार चेहरे और इलाज कर रहे डॉक्टर्स भी अपनी यही राय रखते हैं।
नौ साल की सुहानी की अम्मी तो यहाँ तक कहती हैं कि –
जब मैं अपनी बच्ची को इन लोगों के साथ खेलते देखती हूं तो मैं भूल जाती हूँ कि मेरी बच्ची का हाथ नहीं उठता है। मुझे लगता ही नहीं कि मेरी बच्ची बीमार है। अब तो हर शनिवार यहाँ के बच्चों को इनका इंतजार रहने लगा है। अल्लाह इन नेक काम करने वालों को लम्बी उम्र बख्शे।
अब एक लम्बी साँस भरकर थोड़ा रुककर एक नज़र आँखें बंद कर पूरे शहर को देखिए। देखिए कि यहाँ का कोना-कोना दुधिया और आँखें चौंधिया देने वाली लाईटों से नहा रही हैं। खुशियाँ खरीदने के नाम पर ऊंची ईमारतों में बड़ी-बड़ी दुकाने हैं। बड़ी शानों-शौकत हैं पर कहिए इनकी शीतल से क्या बराबरी। कितनी अमीर हो गई है यह। कितनी अमीर हो रही है यह।
फोटो आभार- दिपक यात्री और clownselors फेसबुक पेज