Site icon Youth Ki Awaaz

70 साल के इस किसान की एक पहल से बदल गई पूरे गांव की तस्वीर

अनछ यादव

धोती लपेटे एक बुज़ुर्ग, चेहरे पर कसावट, लंबा कद और आंखों में एक अलग तरह की रौशनी, अनछ यादव पहली बार में किसी भी दूसरे किसानों की तरह ही सामान्य दिखते हैं, लेकिन उनकी कहानी असाधारण है।

70 साल के अनछ यादव के गांव का नाम है केड़िया, बिहार के जमुई ज़िले में। अनछ मध्यम वर्ग के किसान हैं। धान, रबी, प्याज़ जैसी फसलों को उपजाते हैं। उन दिनों अपने समुदाय में अनछ यादव पहले सबसे पढ़े-लिखे आदमी थे। उस ज़माने में मैट्रिक किया था, खूब सारी नौकरियां भी मिली, लेकिन की नहीं। उनके मुताबिक किसी और की नौकरी करने से अपनी ज़मीन पर खेती करके अपना मालिक खुद बना रहना ज़्यादा अच्छा है।

अनछ यादव हर बात पर प्रकृति से जुड़ा मुहावरा बोलते हैं। करीब चार साल पहले अनछ यादव किसी काम से पास के गांव गए थे। वहीं दस-बारह लोगों की एक टीम नुक्कड़ नाटक कर रही थी। उस नाटक में बताया जा रहा था कि कैसे रासायनिक खाद की खेती करने से मिट्टी बर्बाद हो रही है, किसानों को कर्ज़ में डूबना पड़ रहा है और बिमारियों वाला भोजन करना पड़ रहा है। अनछ यादव के मन में नाटक की ये बातें बैठ गयी। वे वापस आकर अपने गांव वालों से चर्चा करने लगे। कुछ दिनों बाद फिर कुछ गांव वालों के साथ अनछ यादव नाटक देखने गए। फिर क्या था नाटक मंडली जहां-जहां जाती अनछ यादव अपने साथियों के साथ वहां-वहां पहुंच जाते। आसपास के 20 गांव में वे नाटक मंडली के साथ गए। धीरे-धीरे अनछ यादव ने अपने गांव वालों को रासायनिक खेती से तौबा करने के लिये राज़ी कर लिया।

केड़िया गांव का एक दृश्य

आज इस गांव में लगभग 70 फीसदी किसान कुदरती खेती कर रहे हैं। केड़िया जैविक ग्राम (आर्गेनिक विलेज) बन चुका है। किसान अपने घर में ही जैविक खाद और कीटनाशक का निर्माण करते हैं। वे अपनी खेती के लिये बाज़ार पर निर्भर नहीं हैं।

अनछ यादव बताते हैं “हमने बाज़ार आधारित खेती को छोड़कर प्रकृति के साथ सहजीवन वाली खेती को अपनाया है। हमने खेती में ऐसे रसायनों का इस्तेमाल बंद कर दिया है जिससे जीव-जंतुओं और मिट्टी को नुकसान पहुंचता है। मोटर की जगह हम कुएं से सिंचाई करते हैं जिससे हमारा पानी भी बचता है और खेतों में पानी की अधिकता से होने वाले दुष्प्रभाव भी कम होते हैं।”

कभी आवाज़ धीमी तो कभी तेज अनछ यादव के बोलने का अपना अंदाज़ है। हिन्दी में बात करते-करते वे स्थानीय बोली में बोलने लगते हैं। जैविक खेती का महत्व बताते हुए अनछ कहते हैं- केड़िया गांव अभी जैविक खेती सीख ही रहा है। हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है। कुदरती खेती नहीं होने पर आदमी कमज़ोर हो रहा है, रासायानिक खाद वाली फसल सेहत के लिये नुकसानदेह साबित हो रही है।

a)- वर्मी बेड b)- तैयार कम्पोस्ट खाद

जैविक खेती से मिट्टी की जान बची है, मिट्टी का रस लौट रहा है। रासानयिक खाद से ज़मीन जल जाती है। यह किसानों के लिये आर्थिक रूप से भी बोझ ही साबित होता था। पहले एक एकड़ में एक फसल में पांच हज़ार रुपये लग जाते थे, लेकिन अब जैविक खेती की वजह से पैसा बच जाता है। अनछ बताते हैं कि दो साल पहले तक खाद-पानी के लिये सूद पर गांव वाले पैसा लेकर रासानयिक खाद और कीटनाशक खरीदते थे। खेती बारिश के भरोसे टिके होने के कारण हमेशा घाटे की आशंका बनी रहती थी। अगर फसल नहीं होती थी तो महाजन का सूद भरना भी कठिन हो जाता था।

गोबर गैस प्लांट

पहले सरकारी स्तर पर हमेशा उपेक्षा का दंश झेलना पड़ता था। फिर केड़िया गांव के किसानों ने एक संगठन बनाया और नाम दिया जीवित माटी किसान संगठन। अब संगठन की ताकत का कमाल है कि गांव में मंत्री भी आते हैं, कृषि विभाग के अधिकारी भी मदद करने का प्रस्ताव देते हैं। संगठन की वजह से ही जैविक खाद के लिये लोगों को वर्मी-बेड (कीड़ों से तैयार खाद यानी कम्पोस्ट तैयार करने का उपकरण) मिल पाया। अनछ बताते हैं कि पहले हमें सरकारी कर्मचारी कहते थे कि एक पंचायत में सिर्फ 9 वर्मी-बेड दिए जाते हैं, जबकि यह योजना कोटा आधारित नहीं मांग आधारित है। संगठन ने दबाव बनाया और आज गांव के किसानों के पास 262 वर्मी-बेड है।

केड़िया के किसान गांव में पैदा होने वाली सभी तरह के जैविक अवशेष से खाद और कीट नियंत्रक दवाइयां बनाते हैं। गोबर और मवेशी के पेशाब को संग्रहित करने के लिए उन्होंने अपने पशुशेड की फर्श को पक्का किया है। बायोगैस प्लांट लगाकर गोबर आदि के सड़ने से निकली मीथेन गैस को जलावन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। बायोगैस से निकली स्लरी और बचे-खुचे कृषि अवशेष वर्मीखाद बनाने के काम आते हैं। उन्होंने मानव मलमूत्र के सही प्रबंधन के लिए फायदेमंद शौचालय बनाने भी शुरू किए हैं।

अनछ यादव गांव की दूसरी समस्याओं को भी सुलझाने की कोशिश में हैं। उनकी पोती नीलम गांव की पहली लड़की है जो साइंस लेकर कॉलेज में पढ़ाई कर रही है। अनछ यादव और उनके गांव के लोग खेती के पारंपरिक और देशज तरीकों को अपनाकर प्रकृति और खुशहाली की तरफ बढ़ चुके हैं। उन्हें उम्मीद है देश के दूसरे किसान भी उनके रास्ते की तरफ लौटेंगे और खेती-किसानी बचेगी साथ-साथ धरती और प्रकृति भी बचेगी।

Exit mobile version