जिस भारत में अनुच्छेद 39 जैसे कानून महिला और पुरुष के समान वेतन की बात करते हैं, उसी देश में सरकारी स्कूलों में मिड डे मील के तहत कड़ी मेहनत करने वाली रसोइया को दिन भर का वेतन महज 30 रूपया मिलता है। इनकी दासता की कहानी कुछ अजीब ही है, रसोइयों को हेड मास्टरों की तैश व अफसरसाही भी झेलनी पड़ती है। यह महिला रसोइया अशिक्षा, गरीबी और पैरवीकार न होने के नाते तमाम शोषण व उत्पीड़न को झेलती रहती हैं।
महीने भर मेहनत के बाद 1200 रूपया मिलने की ख़ुशी पर अचनाक ग्राम प्रधान व मास्टरों का गुस्सा या चुनावी रंजिश भारी पड़ जाती है। यहां तक कि कुछ रसोइयों ने इस बात का भी जिक्र किया कि उन्हें काम से निकाल दिए जाने का डर हमेशा रहता है। हेड मास्टर व प्राचार्य तो इन्हें अपनी निजी नौकरानी के रूप में में ही देखते हैं। हद तो तब हो जाती है, जब इनका महीनों का वेतन बेसिक शिक्षा अधिकारी व प्राचार्य मिलकर खा जाते हैं और मांगने पर बदसलूकी भी करते है।
उत्तर प्रदेश की महिला एक्टिविस्ट चन्दा यादव, पिछले सात सालों से रसोइयों की आवाज़ उठा रही हैं व भारी तादाद में इनके आंदोलन को समर्थन भी मिला है। चन्दा बताती हैं कि उन्होंने इनकी मांगो के खातिर लखनऊ मे धरना भी दिया है, जिससे मुख्यमंत्री ने इनके प्रतिनिधिमंडल से बात भी की। अंत मे रसोइयों के मानदेय मे 200 रुपया की बढ़ोतरी की जाने के बाद अब उनकी तंख्वाह 1200 रुपया है। उनका मानना है कि रसोइयों की कम पगार व उनके साथ हिंसा एक महिला होने और कम पढ़े-लिखे होने की वजह से होती है।अधिकारी भी उनकी सीमा जानते है कि वह उनके खिलाफ कुछ भी करने में असक्षम हैं। लेकिन एक दिन ये महिलाऐं जरूर सशक्त व ऊर्जावान होंगी। चंदा व इनके कुछ खास महिला साथियों पर रसोइयों की आज़ उठाने के सिलसिले में मुक़द्दमा भी दर्ज है।
वर्तमान समय में हमारे नेतागण को प्रसिद्धि की राजनीति छोड़कर अधिकारों के लिए और शोषण के खिलाफ लामबंद होने की सख्त आवश्यकता है।वरना चीन जैसे मार्क्सिस्ट आंदोलनों की ज़रूरत भारत में भी पड़ने लगेगी जहां गरीब बनाम अमीर, नौकर बनाम मालिक और मजदूर बनाम ठेकेदार की लड़ाई शुरू हो जाएगी जिससे उबर पाना काफी मुश्किल व नामुमकिन सा होगा। वक़्त है कि समाज भी अपना कोई विशेष पार्टी प्रेम छोड़ विकास व आवाज़ उठाने वाले नेताओ का साथ दे।
फोटो आभार: दीपांकर गुप्ता