भारतीय समाजशास्त्री भली भांति यह जानते हैं कि भारत मे हजारों वर्ष पूर्व आदिवासी समुदाय ने ही जंगल, पहाड़ एवं पहाड़ की कन्दराओं और गुफाओं मे आश्रय लेने के उपरांत जंगलों को साफ कर खेती करना सीखा, बनैले पशुओं को पालतू बनाया और एक स्थायी सामाजिक जीवन की शुरुवात की। प्रथम भारतीय ग्रामीण सभ्यता की नींव डालने वाले आदिवासी समुदाय ही थे। यही कारण है कि भारत का आदिवासी समुदाय अपने जल जंगल और ज़मीन से पृथक नहीं रह पाये। भारत के उत्तर पूर्वी राज्य, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड बिहार, ओडिशा, छतीसगढ़ एवं बंगाल आदि राज्यों मे कई आदिवासी समुदायों ने अपनी भाषा संस्कृति और सामाजिक परम्पराओं का विकास किया।
झारखण्ड , बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़, बंगाल के उरांव, मुण्डा, संताल, हो, खडिया, जैसी कई जनजातियों ने गाँव या आतू बसाये जो खूंटकटी या भुईहरी कहलाया। गाँवों की सुरक्षा के लिये ग्रामीण लोगों ने “सागवान” या “सखूआ ” वृक्ष के आसपास “सरना स्थान ” निर्धारित किये गये और गाँव मे “जाहेर एरा” या “जाहेर थान” बनाये जिसमें प्रकृति के रूप में “आतू बोंगा” निवास करते थे जो सबकी रक्षा करते थे। प्रारम्भ से ही प्रकृति के आराधक समुदायों मे काँकरिट या सोने चाँदी से बने भव्य पूजा स्थल नही बनाये जाते।
गाँव का संस्थापक ही गाँव का मांझी या मुखिया होता था। मुखिया (मांझी ) का कार्य ग्रामीण मामले मे प्रधान के रूप में पंचायत की अध्यक्षता करना होता था। धार्मिक मामले में एक पाहन होता था जो धार्मिक मामलों का निपटारा करता था।
खूंटकटीदार सामूहिक रूप से भूमि के मालिक होते थे। गाँव का कोई भी व्यक्ति ज़मीन पर निजी मालिकाना हक की दावेदारी नहीं कर सकता था बल्कि सामूहिक होता था। सिर्फ जीवित सदस्य ही नहीं बल्कि मृत सदस्य भी समुदाय के सदस्य माने जाते थे। आज भी संताल समुदाय मे परिवार के किसी मृत व्यक्ति के नाम को घर मे पैदा हुये किसी शिशु को उस व्यक्ति का गोडोम या नाम देने की परम्परा है ।
कृषि आदिवासी अर्थ व्यवस्था का आधार था और जो व्यक्ति जंगलों को काट कर खेती करने लायक बनाता था वही उस भूमि का मालिक होता था। इस प्रकार आदिवासियों ने कई गाँवों का निर्माण किया और उसको संचालित करने के लिये अलग रूढिगत ग्रामीण व्यवस्था बनाये। कई गाँवों को मिलाकर पड़हा पट्टी, मानकी पीड, मांझी परगना, दोकलो सोहोर जैसे आदिवासी सामाजिक संगठन बनाये । इस प्रकार के ग्रामीण प्रशासनिक व्यवस्था के मुखिया को पाड़हा राजा ,मानकी मुण्डा, मांझी परगनैत के नाम से जाना गया।
आज भी इसी प्रकार की व्यवस्थाओं द्वारा आदिवासी समाज में ग्रामीण सामाजिक व्यवस्थाओं का संचालन किया जाता है लेकिन अफसोस कि राज्य सरकार इस प्रकार की व्यवस्था को कोई मान्यता नहीं देते जबकि अनुसूचित क्षेत्रों मे इस प्रकार की व्यवस्था ही आदिवासियों की रूढिगत पारम्परिक व्यवस्था का आधार था।
आदिवासियों की इस प्रकार की गण व्यवस्था सम्पूर्ण आदिवासी क्षेत्रों मे लोकतांत्रिक और समतावादी सिद्धांतों पर आधारित था। सम्पूर्ण संसाधन पर समाज के हर तबके का समान हक होता था। आदिवासी समाज प्रारम्भ से ही बाहरी लोगों से दूरी रखते थे और यही कारण था कि मुगलों की भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे आदिवासियों के क्षेत्र सीमा में प्रवेश कर जाये। इस कारण आदिवासी समाज बाहरी प्रभाव से मुक्त होकर शांतिपूर्ण और स्वछंद जीवन जीते रहे। बाहरी लोगों का हस्क्षेप आदिवासी समाज को कतई पसंद नही था। आदिवासियों का सामाजिक जीवन आपसी सहयोग और प्रकृति के साथ सामंजस्य पर आधारित था जितनी आवश्यकता होती थी उतनी ही प्रकृति से लेते थे। आदिवासी समाज अन्य धर्मों एवं वर्ण व्यवस्था से अलग समानता पर आधारित व्यवस्था थी। आज जिस प्रकार से विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों का अंधाधुंध प्रवेश आदिवासी क्षेत्रों मे हुआ इसने आदिवासियों की मूल पहचान को ही खतरे में डाल दिया ।
आज भी जल जंगल और ज़मीन इनके सामाजिक और आध्यात्मिक जन जीवन का स्रोत है और वे उनका सम्मान करना जानते हैं। भारत में जितने भी आदिवासी आंदोलन हुए हैं वह सिर्फ जल जंगल और ज़मीन के लिये हुये हैं।
जब भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी उस समय कई कानूनविदों ने आदिवासियों के हजारों वर्षों से संचालित नियमों एवं परम्पराओं को ब्रिटिश शासनकाल में कानून के रूप मे एकत्रित किया जिसे हम “कस्टमरी लॉ ” के रूप में जानते हैं। भारत के आदिवासियों की मौखिक व्यवस्था के नियमों की व्याख्या बहुत ही विस्तृत है इसे सरल शब्दों में नहीं समझाया जा सकता। आदिवासी कस्टमरी लॉ मे सिर्फ व्यक्ति, परिवार एवं गाँव की ही कल्पना नहीं की गई वरन जल , जंगल , जीव , पर्यावरण और उसके परिवेश के साथ तालमेल की भी कल्पना की गई है जो की आदिवासी समाज और उसकी संस्कृति की पहचान के लिये एक सशक्त पहलू है।
आदिवासी रीति रिवाजों एवं परम्पराओं की अन्य “धार्मिक पर्सनल लॉ” के रूप मे कानूनी रूप से व्याख्या नहीं की जा सकती बल्कि इसे अलिखित परम्पराओं के रूप मे व्यक्ति की भावनाओ से जोड़ा जा सकता है। आदिवासियों के पास उनके रीति विधियों की कोई पुस्तक नहीं पाई जाती वरन व्यक्ति का सम्बन्ध बिना किसी मध्यस्था के प्रकृति के आलौकिक शक्ति मारानंग बूरू (पर्वत ) ,सींग बोंगा (सूर्य ) चाँदु बोंगा (चंद्रमा )से जुड़ा हुआ है।
आदिवासी समाज का अर्थतंत्र सहयोग और सहभागिता की बुनियाद पर बना है। उपभोक्तावाद, पूंजीवाद और व्यक्तिवाद का आदिवासी समाज मे कोई स्थान नहीं है। आदिवासी समुदाय हजारों वर्षों से अपने रीति रिवाज़, परम्परा और धार्मिक मान्यताओं से जुड़े परम्परावादी कानून यानी “कस्टमरी लॉ” को मानता आया है ।
आदिवासियों के उनके प्राकृतिक प्रदेश एवं उनके कस्टम और कल्चर को संरक्षण प्रदान करने के लिये भारत में आजादी के पूर्व एवं उसके उपरांत कई कानून बने। भारतीय संविधान के “अनुच्छेद 244” मे पांचवी अनुसूची और छठी अनुसूची का कानून बनाया गया था।
1.विलिंकसन रुल – 1837 (कोलहान क्षेत्र मे )
2.छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम -1908
3.संतालपरगना काश्तकारी अधिनियम -1948
4.शेड्यूल एरिया रेगुलेशन एक्ट – 1969
5.पि – पेसा अधिनियम – 1996
6.वनाधिकार अधिनियम – 2006
7. भारत सरकार अधिनियम – 1858
दुखद बात की आज तक आदिवासियों के हक मे बनाये गये उन कानूनों को अभी तक पूर्ण रूप से लागू तक नही किया गया । क्या हमे यह स्वीकार कर लेना चाहिये की हमारे दोनो सदन लोकसभा और राज्य सभा आदिवासियों के हित मे बने उन कानूनों से अनभिज्ञ है ? क्या नौकरशाही ने भी अपना कर्तव्य ठीक से नही निभाया ?
देश की आज़ादी के 70 वर्ष पश्चात आदिवासी क्षेत्रों का कितना विकास हुआ ? क्या राज्य सरकार के पास कोई रिपोर्ट है ? संविधान की धारा 275 के अनुसार वित्तीय अनुदान को आदिवासियों के जल ,जंगल और ज़मीन से प्राप्त होने वाले राजस्व एवं संचित निधि कोष का केन्द्र सरकार द्वारा दिये गये अनुदान को राज्य सरकार अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिये कितना प्रतिशत खर्च करती है ? कोई रिपोर्ट है राज्य सरकार के पास ? कितने स्कूल और कॉलेज या स्वास्थ्य केन्द्र खोली गईं ? शायद इसका कोई जवाब नहीं।
अनुसूचित क्षेत्र मे किसका विकास हुआ है ? यह हम भारत के आदिवासी जानना चाहते हैं। राज्य सरकार द्वारा अनुसूचित क्षेत्र के साथ सौतेला व्यवहार करना उचित नहीं और ना ही अपने नगरपालिका का कानून जबरदस्ती अनुसूचित क्षेत्र मे थोपना यह और भी असंवैधानिक है।
अब अनुसूचित क्षेत्र के लोग जागृत हो रहे हैं और आने वाले समय में राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की जिम्मेवारी बढ़ने वाली है, क्योंकि भारत के एक करोड़ आदिवासी संसद का घेराव करेंगे और हक और अधिकार की माँग करेंगे।