एक ऐसा गांव जिसकी जनसंख्या है ‘1’। सुनने में थोड़ा अजीब ज़रूर है लेकिन उत्तराखंड के मुसमोला गांव की यही हकीकत है। उत्तराखंड में पलायन की अलग-अलग कहानियों को जानने और डॉक्यूमेंट करने के सिलसिले में मेरी मुलाकात हुई लीला देवी से। लीला इस गांव में अब अकेली रहती हैं। इस गांव से बाकी सभी लोग बेहतर या आसान ज़िंदगी के लिए पलायन कर चुके हैं।
तकरीबन 50 साल की लीला देवी ने बताया कि एक समय उनके गांव में 4 संयुक्त परिवारों के करीब 30 से 40 लोग रहा करते थे, लेकिन आज वहां केवल वो ही बची हैं। परिवार के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके पति का देहांत काफी समय पहले हो गया था, एक बेटी है जो शादी के बाद देहरादून में रहती है।
जब मैंने उनसे पूछा कि यहां उन्हें किस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, तो वो भावुक हो गयी और उन्होंने एक ही बात कही, ‘अकेले डर लगता है’। लीला देवी पशु पालती हैं, थोड़ी बहुत खेती भी करती हैं और इसके साथ ही पास ही के प्राइमरी स्कूल में ‘भोजन माता’ यानि कि मिड डे मील पकाने का भी काम करती हैं। वो बताती हैं कि उनकी बेटी उन्हें एक लम्बे अरसे से देहरादून बुला रही है और वो कभी-कभी जाती भी हैं, पर वहां उन्हें अच्छा नहीं लगता। वो कहती हैं कि जब तक बच्चे स्कूल में आते रहेंगे वो यहीं रहेंगी और जब स्कूल बंद हो जाएगा तो वो भी अपनी बेटी के पास चली जाएंगी। उस प्राइमरी स्कूल में 2 गांवों से 9 बच्चे आते हैं।
उनके गांव में मौजूद 4 बड़े-बड़े घरों में से 2 पूरी तरह टूट चुके हैं, एक घर में ताले लगे हैं और एक घर में वो खुद रहती हैं उस घर की स्थिति भी कुछ ख़ास अच्छी नहीं है। उन्होंने बताया कि पहले वो उन दो घरों में से एक में रहती थी जो अब टूट चुके हैं। वो हंसते हुए बताती हैं कि एक दिन रात को वो जब सो रही थी तो घर की छत टूट गयी, बड़ी मुश्किल से वो बाहर आ पाई उसके बाद से वो दूसरे घर में रहने लगी। यहां के घरों की बनावट बड़ी साधारण होती है, आम तौर पर ये मिट्टी पत्थर और लकड़ी से बने दोमंजिले घर होते है जिनकी छत पठाल (काले पत्थर की स्लेट) से बनी होती है। स्थानीय लोग बताते हैं कि अगर ज़्यादा समय तक घर की लिपाई गोबर और लाल मिटटी से ना करें तो वो टूट जाते हैं।
जब मैंने उनसे पूछा कि अकेले खेती के साथ पशुओं को संभालने में तो परेशानी होती होगी, इसके जवाब में उन्होंने बताया, “अकेले करना भी क्या है? बात करने के लिए तो कोई है नहीं यहां, गाय, भैंस और खेती में थोड़ा ‘टाइमपास’ भी हो जाता है।” यहां आपको बता दूं कि लीला देवी के घर से सबसे करीब दूसरा गांव करीब 500 से 700 मीटर की दूरी पर है और वहां भी बहुत ज़्यादा लोग नहीं बचे हैं। लीलादेवी ने बातों ही बातों में दोपहर के खाने के लिए आमंत्रित किया। उन्हीं के खेत की उगी हरी सब्जी, रैंस नाम की स्थानीय दाल और भात खाने के बाद मैंने उनसे विदा ली। जाते-जाते उन्होंने एक डिब्बे में दही और छोटी सी पोटली में कुछ माल्टे (संतरे जैसा एक स्थानीय फल) और नीम्बू भी दिए।
किसी भी क्षेत्र विशेष से पलायन क्यों हो रहा है इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण सवाल ये है कि पलायन क्यों ना हो? हम सभी जानते हैं की ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ और रोज़गार जैसी बुनियादी ज़रूरतों को लेकर क्या स्थिति है। बात अगर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की हो, तो विषम भौगोलिक परिवेश के चलते समस्या और गंभीर हो जाती है।