पहाड़ों के बीच एक छोटी सी टीनशेड की इमारत, एक मास्टर जी कुल जमा 5 बच्चों को पढ़ा रहे हैं। स्कूल के अहाते में एक ही टेबल पर ये सभी बच्चे बैठे हैं। इस स्कूल के टीचर लक्ष्मी प्रसाद जोशी जी से में मेरी मुलाकात उत्तराखंड में पलायन की कहानियों को डॉक्यूमेंट करने के सिलसिले में हुई। सीढ़ीदार खेतों के बीच इस छोटे से स्कूल की कल्पना करने पर बड़ा ही सुन्दर चित्र दिमाग में बनता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। ये जगह है टिहरी गढ़वाल ज़िले के खोला, बडियारगढ़ गांव का प्राइमरी स्कूल।
सड़क से लगभग एक किलोमीटर दूर इस स्कूल में 57 वर्षीय लक्ष्मीप्रसाद जी 2 गांवों से आने वाले 9 बच्चों को पढ़ाते हैं। जब उनसे मैंने बात की तो उन्होंने बताया कि वो मुस्मोला गांव के रहने वाले हैं जो स्कूल से करीब 700 मीटर दूर है। अपने गांव के बारे में बताते हुए वो कहते हैं कि कभी उनके गांव में करीब 250 परिवार रहा करते थे और आज वहां बस 30 परिवार मौजूद हैं।
पलायन के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि यह समस्या काफी पुरानी है और पलायन कर चुके कई लोगों को तो वो भी नहीं पहचानते। रोज़गार को पलायन का सबसे बड़ा कारण बताते हुए वो कहते हैं, “पढ़-लिख जाने के बाद खेती कोई क्यूँ करना चाहेगा? और जो एक बार गांव से चला गया उसके वापस आने की संभावनाएं ना के बराबर ही होती हैं।”
उन्होंने बताया कि वो अभी तक गांव में हैं क्यूंकि उनकी सरकारी नौकरी है, लेकिन गांव में युवाओं के लिए रोज़गार के कोई ख़ास साधन मौजूद नहीं हैं, वो अगर पलायन ना करें तो क्या करें? खेती की स्थिति, लोगों के जाने के बाद और खराब हुई है। सुअर, हिरन और बंदरों की बढ़ती तादात से फसलों को ख़ासा नुकसान पहुंचता है, जिससे खेती करने वालों में गहरी निराशा और उदासीनता का माहौल है। उन्होंने स्वास्थ्य व्यवस्था को भी एक बड़ा मुद्दा बताया। उन्होंने बताया, “छोटी-मोटी दुःख-बीमारी के लिए भी लोगों को 50 किलोमीटर दूर स्थित शहर श्रीनगर ही जाना पड़ता है।”
जब मैंने उनसे शिक्षा-व्यवस्था के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उनके खुद के गांव में भी एक प्राइमरी स्कूल है, जिनमें कुल 12 बच्चे पढ़ते हैं। 2 ग्राम सभाओं में कुल 21 बच्चे। सबसे पास का हाई स्कूल करीब एक किलोमीटर और इंटरमीडीएट स्कूल 3 किलोमीटर की दूरी पर है, जहां तक पैदल ही जाना पड़ता है।
पलायन की समस्या से कैसे निपटा जाए यह पूछने पर उनका जवाब बेहद सीधा था वो कहते हैं, “यहां उद्योग तो नहीं लगाये जा सकते तो खेती को ही प्रोत्साहन देना ज़रूरी है। जरूरत है कि शिक्षा का ऐसा मॉडल विकसित किया जाए जिससे खेती को बढ़ावा मिले और यहां के शिक्षित युवा को रोज़गार के लिए कहीं बाहर ना जाना पड़े। शायद उसके बाद पलायन कर चुके लोग भी वापस आना चाहें।” वो आगे कहते हैं की अगर यहां बचे लोगों को ही रोका जा सके तो भी कुछ समय में सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं।
पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण अब भी कई सारे गांव सड़कों से नहीं जुड़े हैं। शिक्षा की बात करें तो उत्तराखंड में हर दो गांव के लिए एक प्राइमरी स्कूल है लेकिन हाईस्कूल और इंटरमीडीएट स्कूलों की स्थिति ऐसी नहीं है। इस कारण से आगे की पढ़ाई के लिए लोग अब भी शहरों पर ही निर्भर हैं।