शतरंज में घोड़ा और राजनीति में गधा महत्वपूर्ण होता है। घोड़े की चाल जल्दी समझ में नहीं आती और गधे की चाल तो क्रिकेट के गुगली विशेषज्ञों को भी समझ में नहीं आती। गधा जब चाल चलता है तो घोड़े टापते रह जाते हैं। गधे को सिर्फ देखते रहने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं होता।
इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव में गधा तुरूप का इक्का और घोड़ा चिड़ी की दुक्की साबित हो गया। परिणाम कुछ भी हो, लेकिन इस बार पूरे चुनाव में गधे की TRP ज्यादा रही।
गधे की TRP को देखते हुए रामजस कॉलेज का हुड़दंग भी फीका नजर आ रहा है। लेकिन एक बात माननी पड़ेगी कि गधे पर देशद्रोही प्रचार का धब्बा नहीं लगा और ना ही उसे दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश करने का आरोप सहना पड़ा। गधे का इतना प्रचार-प्रसार हुआ कि रामजस कॉलेज के विद्यार्थी उस पर PHD करने के लिए गाइड सर के घर के चक्कर पर चक्कर लगाते नजर आ रहे हैं। हां यह भी सही है कि इस चुनाव में गधों पर इतना लिखा गया है कि अगर उसे संकलित कर लिया जाए और थीसीस के रूप में सबमिट कर दिया जाए तो मुझ जैसे गधे को भी PHD मिल जाएगी। यह बात दीगर है, मैंने कहीं से टॉप नहीं किया।
इस बार के चुनाव ने साबित कर दिया है कि राजनीति में गधों का महत्व बढ़ रहा है और गधा बुद्धिजीवियों की पहली पंक्ति में आ गया है। हर कोई उसकी विशेषताओं पर ध्यान दे रहा है। उसका गधापन, सहनशीलता, शालीनता, ईमानदारी, शांत धीमी राजशाही चाल, उसके मौन से साधू/मुनि परेशान नजर आ रहे हैं। कितना ही अत्याचार कर लो वह बोलता ही नहीं। ऐसा लगता है जैसे गधा यज्ञ कर रहा हो और उसमें व्यवधान डालने के उददेश्य से राक्षस अपनी वाकपटुता से व्यवधान उत्पन्न करना चाह रहे हैं।
मुझे बड़ा गर्व महसूस होता है, जब सामने वाला मुझे गधा कहता है। मेरी तुलना गधे से करता है तो ऐसा लगता है जैसे मुझे किसी राज्य का मुख्यमंत्री पद मिल गया हो। मेरे गांव की चौपाल पर गधा क्या दिखाई दिया सभी चर्चा बीच में छोड़ उस पर ही बहस में लग गए। गधा चौपाल पर क्यों आया। इसके पीछे जरूर दुश्मन की चाल है। वह हमारे इस अमूल्य प्राणी को अगवा करना चाहता है। चौपाल पर सभी राजनीतिक दलों ने गधे को घेर लिया। उसे छू कर देखने लगे। कोई उसे सांप तरह की टेडा तो कोई उसे जलेबी की तरह गोल, तो कोई उसे कामदेव की तरह कामी नजरों से देख रहा था, तो कोई उसे बादशाह समझ लम्बा सलाम कर रहा था। चौपाल पर गधा और चौपाल में हंगामा न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। सबसे बड़ी बात तो यह कि कौन सा गधा। सभी एक बात की रट लगा रहे थे, मैं इस गधे की तरह हूं। कोई भी यह मानने को तैयार नहीं था कि वह गधा नहीं है।
अब बात चली है तो दूर तक नहीं, लेकिन गधे तक तो जाएगी। गधा वह होता है जो गधा होता है। गधा वह होता है जो दूसरे को गधा समझता है और गधा वह होता है जो अपने आपको गधा नहीं समझता। गधे का जीवन मानव जाति को अक्षुण्ण बनाये रखने का सूत्र है। गधा राजनीति से दूर रह कर भी राजनीति में है। वह उसी तरह है जैसा समाज में रहकर भी विरक्त रहना। गधों के इतिहास में गद्दारी शब्द नहीं मिलता। गधा न तो युद्ध के लिए प्रेरित करता है और ना युद्ध के लिए वाहक को ले जाता है। लेकिन आज तक किसी गधे को नोबल पुरस्कार नहीं मिला, जबकि शांति का नोबल पुरस्कार तो उसे मिलना चाहिए।
अब सवाल अहम हो जाता है कि चुनाव के बाद भी गधे की लोकप्रियता कायम रहेगी। इस देश में एक गधा ही ऐसा जो हर शहर, ऑफिस, घर, मुहल्ला, कस्बा में पाया जाता है। संख्या कम होने पर न तो अल्पसंख्यक माना जाता है और अधिक होने बहुलतावादी। देश की राजनीति को धर्म से अलग कर नहीं सकते, हां गधों को अलग कर देना चाहिए। क्योंकि अब राजनीति में गधे के रूप में घोड़े पाये जाने वाले अधिक हो गए हैं, बारात के लिए गधों की नहीं घोड़ों की जरूरत होती है। राजनीति में जीतो तो बारात, हारो तो बारात।