शाम होते ही गांव हो या शहर एक बात देखने की होती है कि कितने लोग किस तरफ रुख करतें है। बच्चे स्कूल से आने के बाद ट्यूशन ,कॉलेज स्टूडेंट बाइक राइडिंग ,जॉब वर्कर पब-बार की तरफ जाते दिखते हैं। केवल बुजु़र्ग ही शाम को या तो पार्क में मिलते हैं या वो भी भजन-कीर्तन में चले जातें है। गांव के हो तो खेत या धर्मशाला में हुक्का या ताश के पत्तों पर अपना सारा अनुभव दिखातें मिलेंगे। सुबह की बात न ही करें तो अच्छा है, शहरों में तो अगर नौकरी नहीं तो सुबह दोपहर के बाद ही होती है।
दोस्तों ये सब बातें मैं इसलिए कर रहा हूं ताकि हम अपना ध्यान थोड़ा सा खेलों की तरफ भी दें। सरकारों को दोषी तो हम पलक झपकाते ही बना देते हैं कि हमारे यहां संसाधन नही हैं। यह सही भी है, सरकार जितने रूपये धूम्रपान और शराब के दुष्प्रभाव को बताने में लगाती है अगर उसका कुछ हिस्सा भी खिलाड़ियों और खेल को प्रोत्साहित करने में लगा दे तो… पर क्या फायदा इन बातों का?
हमारे लेखकों को भी खेलों से कुछ नाराज़गी सी दिखाई पड़ती है, शायरों को भी फुर्सत कहां? अब बात आती है लोगों के टाइप की, आजकल दो ही तरह के युवा दिखाई देते हैं- एक जो सरकारी नौकरी में हैं और दूसरे जो नही हैं। इसके अलावा कोई तीसरी टाइप नहीं है, उसी से आपका आंकलन किया जायेगा। समाज में ये बात एक बीमारी की तरह फ़ैल गयी है, अब माँ-बाप का ध्यान इसके अलावा कहीं जायेगा ही नहीं तो फिर शाम को मम्मी बाहर पार्क में क्यों जाने देगी खेलने? क्योंकि उनका तो सपना अपने बच्चे को उन एक करोड़ लोगों में शामिल करना है जो सरकारी तनख्वाह पातें है।
क्रिकेट के अलावा तो इस देश में खेलों में भविष्य सुरक्षित भी नहीं है और उसमें तो सिर्फ ग्यारह ही खिलाड़ी खेलेंगे। तो बेटा रूम में बैठ कर पढ़ाई ही कर ले, कोई तो सरकारी नौकरी मिल ही जायेगी। फिर भी तेरा ज़्यादा मन करे तो मोबाइल पर गेम डाउनलोड कर! हमने जाने-अंजाने में अपने बच्चों का जीवन इतना सीमित बना दिया है कि उनको घर से बाहर निकलने और मैदान में जाकर खेलने में असहज सा महसूस होता है। इसका कोई और कारण नही है कि 2016 में कोटा जहाँ इंजिनियर्स-डॉक्टर्स की पौध तैयार की जाती है, वहां 45 बच्चों ने अपनी जान दे दी। क्योंकि पता ही नहीं है कि वो बच्चे क्या चाहते हैं? पढ़ना या खेलना…
यकीन मानिये दोस्ती करने और लोगों के साथ तालमेल बैठाने के लिए बच्चों को किसी पर्सनालिटी डेवलपमेंट का कोर्स करने की ज़रूरत नहीं है। बस उनको आज़ाद कीजिए अपनी उम्मीदों से, खेल खेलते-खेलते ही युवाओं का शारीरिक और मानसिक विकास दोनों ही ऊंची उड़ान भरते हैं जो इस समाज की नींव साबित होगी। इसलिए बच्चों को मैदान में जाकर खेलने से रोकना उनके और हमारे दोनों के लिए घातक है।