सोचिए अगर राजनीतिक पार्टियों को चंदे मिलना बंद हो जाएं तो क्या होगा ? क्या वो भव्य रैलियाँ तब भी आयोजित हो सकेंगी? क्या रथ यात्रा, विकास यात्रा, परिवर्तन यात्रा निकल पाएंगी। कितना ही पैसा गलत स्त्रोतों से इन राजनीतिक पार्टियों तक विदेशी योगदानों के रूप में आता है।
FCRA [ Foreign Contributions (Regulations) Act ] या विदेशी योगदान ( नियंत्रण) अधिनियम सन 1976 में इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में लाया गया था । सन 2010 में मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा इस कानून में कुछ बदलाव लाए गए। FCRA कानून राजनीतिक पार्टी, चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार, कोर्ट के जज, सांसद, स्तंभकार, चित्रकार, समाचार पत्रिका के एडिटर, मालिक या प्रकाशक पर किसी भी तरह का विदेशी योगदान प्राप्त करने और उसके प्रयोग पर प्रतिबंध लगाता है। कानून के मुताबिक योगदान के अंदर मुद्रा कोई वस्तु ( व्यक्तिगत तोहफों को छोड़कर जिनकी कीमत 25000 रुपए से अधिक न हो ) , या फिर किसी विदेशी व्यक्ति, कंपनी या संस्था द्वारा सिक्योरिटीज आती है।
इस कानून को कार्यान्वित करने की ज़िम्मेदारी गृह मंत्रालय की होती है जो ये देखता है कि किसी व्यक्ति, कंपनी या संस्था को विदेशों से प्राप्त सहायता का उपयोग ऐसे कार्य में तो नहीं हो रहा जो राष्ट्रीय हित के खिलाफ हो। यदि कोई व्यक्ति, कंपनी या संस्था किसी ऐसी गतिविधि में लिप्त पाए जाते हैं जो की राष्ट्र हित के खिलाफ हो या उसके लिए हानिकारक हो तो सरकार ऐसे व्यक्ति, कंपनी या संस्था को विदेशी सहायता प्राप्त करने से प्रतिबंधित कर सकती है ।
1976 में जब ये कानून आया तब देश में आपातकाल लग चुका था । चित्रकार, स्तंभकार, अखबार के एडिटर, प्रकाशक आदि पर विदेशों से सहायता प्राप्त करने पर शायद इसलिए प्रतिबंध लगाया गया ताकि सरकार उन लोगों पर रोक लगा सके जो उससे असहमति रखते हैं । राजनीतिक पार्टियों को भी इसमें शामिल किया गया था ताकि विदेशी ताकतों को घरेलु राजनीति से दूर रखा जा सके ।
2010 में मनमोहन सिंह की सरकार ने 1976 के अधिनियम में कुछ बदलाव किये जिससे कि ये अधिनियम और सख्त बन गया । 1976 के अधिनियम में यदि कोई एक बार पंजीकरण करवा ले तो उसे फिर से पंजीकरण कराने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। यानि कि पहली बार पंजीकरण करवाने के बाद जो लाइसेंस मिलता था वो स्थाई होता था। पर 2010 से पंजीकरण करवाने के हर 5 साल के बाद फिर से लाइसेंस का नवीनिकरण कराना होगा। यदि नवीनिकरण का कार्य नहीं करवा पाते हैं तो लाइसेंस अपने आप रद्द हो जाएगा। FCRA की धारा 14(3) के अनुसार यदि सरकार किसी NGO का पंजीकरण निरस्त कर देती है, तो वो NGO अगले तीन साल तक पुन: पंजीकरण करने योग्य नहीं रह जाएगा।
2011 में UPA सरकार ने FCRA के नियमों में कुछ बदलाव किए । इन बदलावों के अनुसार सरकार ने “राजनीतिक प्रकृति वाले संगठन” की परिभाषा को और स्पष्ट करते हुए व्यापार संघ, छात्र संघ, कार्मिक संघ, युवा मोर्चा, किसान संगठन तथा अन्य ऐसे ही युवा संगठनों को इसके दायरे में ला दिया ।
साल 2014 से अभी तक करीब 20,000 NGO के लाइसेंस रद्द किये जा चुके हैं। इनमें से अधिकतर वो हैं जिन्होंने सरकार की जवाबदेही की बात की है। सरकार के काम-काज के तरीकों के खिलाफ आवाज़ उठाई है । PTI के अनुसार मानवाधिकार के क्षेत्र में काम कर रहे संयुक्त राष्ट्र के तीन दूतों ने कहा था – “हमें ये शंका है कि FCRA का इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा ऐसे संगठनों को चुप कराने के लिए किया जा रहा है जो सिविल, राजनीतिक, आर्थिक, पर्यायवरण, और संस्कृति के मुद्दों की बात करते हैं, जो की उन संगठनों से अलग हैं जिन्हें सरकार का समर्थन प्राप्त है । ”
इसमें कोई दो राय नहीं है कि कुछ संगठन इन योगदानों का दुरूपयोग करते हैं । ऐसे कार्य करते हैं या गतिविधियों में लिप्त होते हैं जो कि देश के हित के खिलाफ है । जैसे की हाल ही में जाकिर नाईक के संगठन “इस्म्लामिक रिसर्च फाउंडेशन” को अवैध घोषित कर दिया गया ।
तीस्ता सीतलवाड़ का NGO सबरंग, ग्रीनपीस, नामी अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह और गुजरात के सबसे पुराने दलित संगठन- नवसर्जन ट्रस्ट, कुछ ऐसे संगठन हैं जिनके ऊपर सरकार की कैंची चली ।
साल 2014 में दिल्ली हाई कोर्ट ने पाया कि दोनों पार्टियों – बीजेपी और कांग्रेस ने FCRA का उलंघन किया है । दोनों पार्टियों ने लंडन की कंपनी “वेदांता” से योगदान प्राप्त किया था । 2016 में पास हुए वित्त अधिनियम में अरुण जेटली ने बड़ी चतुराई से एक संसोधन कर विदेशी कंपनी को भारतीय कंपनी बना दिया और बीजेपी कांग्रेस को बचा लिया ।
चाहे वो इंदिरा गांधी हों या मनमोहन सिंह या फिर मोदी हर किसी ने अपनी बेहतरी के लिए ही इस अधिनियम का इस्तेमाल किया है। अपने ऊपर आई तो कुछ भी रास्ता अपना कर बच निकले। जो खुद नियमों का पालन नहीं कर पा रहे उन्हें क्या हक है कि वो उन संगठनों को बंद करवा दे जो सही में समाज के लिए कुछ करना चाह रहे । सिर्फ सरकार के हाँ में हाँ न मिलाना ही सबसे बड़ा अपराध है ? इन सब के बाद एक और प्रश्न उठाता है की क्या सही में हमें FCRA जैसे किसी अधिनियम की जरूरत है ? क्यूंकि हमेशा से सत्ता में रहने वालों ने ही इस अधिनियम को अपने फायदे के लिए उपयोग किया है, तो क्यूँ ना इसका कोई विकल्प तलाशा जाए ?
(यह रिपोर्ट Youth Ki Awaaz के इंटर्न श्रेयष कुमार राय, बैच-फरवरी-मार्च,2017, ने तैयार किया है)