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“मैं जब भी कहता हूं गुवाहाटी से हूं, तो लोग कहते हैं ओह्ह्..”

प्यार भी करता हूँ, नफ़रत भी। कॉन्फ्लिक्ट है। किसी कलाकार को इससे बेहतर और क्या चाहिए? गुस्सा आता है इन्हें देखकर, इन चिंकी आँख वालों को। इन अनडिज़ाइरेबल स्किन टोन वालों को। इन मेनलैंड कल्चर और लैंग्वेज से मिलों दूर रहने वालों को। जब भी गुवाहाटी एयरपोर्ट पर उतरता हूँ। अजी सच तो है। न इनकी शक्ल अच्छी है ना भाषा सहज। क्यों आएं मेनलैंड वाले यहां? कैसे कम्युनिकेट करें? क्यों दिखाएं इन्हें और इनकी जगहों को बॉलीवुड फिल्मों में? न उनको, इनके बारे में कुछ पता है न यह ख़ुद को उनके सामने प्रेज़ेंट करना जानते हैं।

बस चिल्लाते रहो तुम सब! तुम्हारे असम फ़्लड्स को भी फुटेज चाहिए न नेशनल न्यूज़ में। वह देखो एक गुड़गाँव फ़्लड हुआ और देश भर में बस उसी के चर्चे होते रहे। मेरे फ़ेसबुक फ़ीड में स्टैंडअप कॉमिक्स के गुड़गांव फ़्लड जोक्स की जैसे बाढ़ आ गयी। ऐसा क्यों न हो? अरे गुड़गाँव कितना डिज़रविन्ग्लि हाइप्ड है भई। कॉर्पोरेट वर्ल्ड है वहाँ, एंजेल इन्वेस्टर्स हैं, स्टार्टअप वाले हैं, स्टैंडअप के इतने सारे प्रसिद्ध वेन्यूस हैं। भारत के भिन्न-भिन्न दिग्गज अक्सर आते-जाते रहते हैं गुड़गाँव।

तुम्हारे पास क्या है असम वालों? अब यह मत कहना ‘पूरा देश पीता है असम की चाय’।  हो सकता है यह सच है पर चाय बस पीने से ही मतलब है लोगों को। और वह चाय की एड भी केरल के बागान में फ़िल्माते हैं। तुम असम वालो। हा हा! और अब वन होर्न्ड राइनो की बात भी मत निकालना। क्या है इसमें देखने लायक? हर एक राज्य के पास कुछ न कुछ होते ही हैं ख़ास जीव जंतु। बंगाल के बाघ और गुजरात के शेर में फिर भी हीरोइज्म है। राइनो में कौन सा मार्केटेबल-फैक्टर है? और हाँ! तुम्हारा बिहु डांस। नाचते रहो उम्र भर। कितना बोरिंग है। कहाँ भंगड़ा कहाँ बिहु।

बोरिंग तो भंगड़ा भी है भाई। अरे कोई भी फ़ोक एंड इंडिजेनियस स्टफ बोरिंग है हम अर्बन यूथ के लिए। लेकिन उसको ‘कूल’ बनाके पेश करना जानते हैं यह लोग फिल्मों में। और तो और, भंगड़ा करने वाले भी पंजाबी है, देखने वाले भी पंजाबी है, चीयर करने वाले भी, म्यूज़िक डायरेक्टर भी, कोरियोग्राफ़र भी, लिरिसिस्ट भी, सिंगर भी, एक्टर भी, डायरेक्टर भी। तभी बनाते हैं यह ‘पंजाबी वेडिंग सॉन्ग’, ‘लौंग दा लश्कारा’, ‘शावा-शावा’ और पता नहीं क्या क्या हर बॉलीवुड फिल्म में एक न एक तो होता है इनका गाना। यही मेकर्स हैं, यही दर्शक हैं। और तो और, तुम्हीं नॉर्थ ईस्ट वासी इनके ‘काले चश्मे’ पे नाच भी रहे हो अपने उत्सवों में। क्या बात!

कोई भी आज के चलतु नैशनल न्यूज़ चैनल देखिये, दो चम्मच दिल्ली की सर्दी, दो चम्मच दिल्ली का प्रदूषण, दो चम्मच दिल्ली का पानी, एक-एक चम्मच केजरीवाल और मोदी, थोड़ा शिव सेना, दो लीटर धोनी, एक कटोरा विराट-अनुष्का, फिर मौसम अनुसार साक्षी मालिक, पी.वी. सिंधु, वगैरह। इंडिया का मतलब ही है दिल्ली और बॉम्बे। थोड़ा बहुत बैंगलोर वगैरा भी है।

ख़ैर छोड़ो, जब भी ऐसे शहरो में होता हूँ, अक्सर यहां के दोस्तों से बातचीत होती है कि कौन कहाँ से है। कोई कहता है बिहार से तो दूसरा कहता है अच्छा लालू के देश से हो। कोई कहता है अहमदाबाद। तो उसे खाखरे और फाफड़े से पहचाना जाता है। कोई कंगना के मंडी से तो कोई अखिलेश के राज्य से। कोई दादा के शहर से तो कोई रहमान के। अब आती है मेरी बारी। और फिर मैं बोलता हूँ – “मैं गुवाहाटी से हूँ।” एकदम जैसे पूरा टेम्पो डाउन हो जाता है घंटे भर के कन्वर्सेशन का। हर एक के मुँह से बस एक ध्वनि – “ओह्ह्ह..”, जैसे यह क्या बोल दिया भाई। एकदम आउट ऑफ़ द वर्ल्ड। ऐसा मुँह बनाते हैं जैसे मैंने किसी का मर्डर कर दिया।

अब मैं किसके शहर से हूँ? भुपेन हज़ारिका के तो नाम तक नहीं सुने होंगे इस टिंडर जेनरेशन ने। फिर सवाल आता है – “प्रॉपर गुवाहाटी से?” क्योंकि इम्प्रोपर गुवाहाटी तो जंगलियों और उग्रवादियों के हैं ना! भाई यह कैसा सवाल है?  क्या मेरी ग़लती है गुवाहाटी में पैदा होना?

फिर क्या? ऑक्वर्डनेस शुरू। कैसे रिलेट करवाऊं खुद को इनके साथ? मुझे भी दिलजीत दोसांझ पर झूमना पड़ता है। जगजीत सिंह पर रोना पड़ता है। खुशवंत सिंह पढ़ना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि मैं इनका फैन नहीं हूँ। बट द फ़ीलिंग इज़ नॉट म्यूच्यूअल न ब्रो! क्योंकि भूपेन हज़ारिका और लक्ष्मीनाथ बेज़बरुः को तो यह भारतवासी पहचानते नहीं।

अरे सुनो सुनो, इनकी कोई ग़लती नहीं। भला यह कैसे रिलेट करें हमसे? ‘आप की अदालत’ में कभी तरुण गोगोई, हिमंत बिस्व शर्मा, सर्बानंद सोनोवाल को देखा है आपने? कोई नेशनल लेवल पर स्कैम किया इन्होंने? कोई स्कैंडल्स किये? कोई ट्विट्टर वार? तो कैसे जानेगा देश इन्हें? और अगर जान भी जाएंगे तो इन्हें बुलाएगा कौन इनकी टूटी-फ़ूटी हिंदी सुनने और ज़ीरो प्रेजेंटेबिलिटी देखने? देश जब आज़ाद हुआ, तब सारे कम्युनिटी से कोई न कोई ज़रूर गया मुम्बई शहर फिल्मों में अपना योगदान देने। तभी न हम जानते हैं कश्मीर की वादियों के बारे में, बूट पॉलिश से बॉम्बे के बारे में, पड़ोसन से मद्रासियों के बारे में, आनंद से बंगालियों के बारे में।

या आज के ही उदाहरण ले लो। दंगल से हरियाणा, राम-लीला से गुजरात, बाजीराव से महाराष्ट्र, पीकू से दिल्ली और बंगाल छाए रहे हमारी सिनेमा और ज़हन में। पंजाब की समस्या पे तो पूरी फिल्म बना डाली ‘उड़ता पंजाब’। क्या नॉर्थ ईस्ट की कहानियाँ फ़िल्मों में दिखाने लायक नहीं हैं? बिलकुल नहीं। अबे कौन देखेगा यह सब? फ़िल्म कैसे बिकेगी? बताओ कभी नागा या मणिपुरी हीरो देखे हो? हीरो जाए भाड़ में कोई यहां के दुकानदार तक नहीं होते अपनी फिल्मों के किरदारों में। ‘पटेल स्टोर्स’ और ‘शर्मा जी की चाट’ के आगे क्या हमारे लेखक कभी बढ़ पाए? पर यह उनकी ग़लती नहीं। तुम्हारी है नॉर्थ ईस्ट वालों।

पर मैं यह सब क्यों सोच रहा हूँ? मुझे क्या प्रॉब्लम है? न मैं इनकी तरह दिखता हूँ न मेरी भाषा ख़राब है। मेरे पास तोह फ़ेयर चांस है मेनलैंड वालो की तरह कुछ कर दिखाने का। मैं क्यों परेशान होउं अपनी डाउनट्रॉड्डेन कम्यूनिटी के लिए? पर कैसे? इतना आसान है क्या इतने सालों के नोस्टैलजिया को भूला देना? देखो अभी यह लिखते वक़्त भी तो मैं भुपेन दा के गाने सुन रहा हूँ। जो अक्सर शामों को हमारे घर में बजा करते थे। कैसे भूला दूं गुवाहाटी शहर को, बम विस्फ़ोट के लिए मशहूर गणेशगुड़ी फ्लाईओवर को, पानबाज़ार के बुक शॉप्स को, उलूबारी के मिठाई की दुक़ानों को, शिलांग की चढ़ाई-निचाई को? कितने ख़ूबसूरत तो है यह सब! प्राणों से भी प्यारे! अजीब कॉन्फ्लिक्ट है

ठहरो! कौन हंसा रे? अरे! वह देखो अर्नब गोस्वामी मेरी बातों को सुनके हँसते हँसते गिर पड़ा। साथ में पापोन भी है। तिरस्कार की हंसी छेड़ते हुए। अरे बाप रे! यहां तोह भरे पड़े हैं – डैनी डेंग्जोंग्पा, दीपान्निता शर्मा अटवाल, रीमा कागति, प्लबिता बोरठाकुर, मैरी कॉम, दीपा कर्मकार, आदिल हुसैन, सीमा बिस्वास, पत्रलेखा पॉल, शिव थापा, सोमदेव देववर्मन, बाइचुंग भुटिया, इरोम शर्मिला, किरण रिजिजू, ज़ुबीन गर्ग और नजाने कितने ऐसे चेहरे मेरी तरफ़ देखते हँसे जा रहे हैं। मेरे जज़्बात का तो मज़ाक बन गया।

(फोटो क्रेडिट- फेसबुक पेज People of Northeast India, फ्लिकर)

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