‘आरा जिला घर बा त कौन बात के डर बा’ बचपन से सुनते आए हैं, लेकिन आरा में कोई अनारकली भी रहती है इस बात से पूरा बचपन अंजान निकल गया। अविनाश दास अपनी फिल्म में ढूंढ लाए हैं आरा से अनारकली को। अविनाश की पहली फिल्म ‘अनारकली ऑफ आरा’ में अनारकली बनी हैं स्वरा भास्कर। स्वरा के अलावा जिन दो लोगों की फोटो आपने हमारे बैनर पर देखी होगी आप समझ गए होंगे कि फिल्म में ऐक्टिंग किस स्तर की होगी। संजय मिश्रा और पंकज त्रिपाठी पोस्टर में रंगीन अवतार में नज़र आ रहे हैं। सोशल मीडिया पर पंकज की बुशर्ट की भी काफी डिमांड चल रही है।
अविनाश इस फिल्म का नाम पहले ‘अनारकली आरावाली’ रखना चाहते थे। वो बताते हैं कि यूट्यूब पर ताराबानो फैज़ाबादी का एक वीडियो देख कर अनारकली आॅफ आरा बनाने का आइडिया आया वो एक इरॉटिक गाना गा रही थी जिसमें कोई इमोशन नहीं था। हालांकि इस फिल्म के गाने पूरे इमोशन के साथ 20 फरवरी से एक-एक करके रिलीज़ किए जाएंगे।
इन्ही बातों पर Youth Ki Awaaz के लिए निखिल आनंद गिरि ने डायरेक्शन में डेब्यू कर रहे अविनाश दास से खास बातचीत की।
निखिल आनंद गिरि: फिल्म के डिस्ट्रीब्यूशन को लेकर क्या-क्या दिक्कते आती हैं, ख़ास तौर पर एक नए डायरेक्टर के लिए?
अविनाश दास: प्रोड्यूसर का समर्थ होना ज़रूरी है, वही नये डायरेक्टर के साथ फिल्म बनाने का ज़ोख़िम लेता है। फिल्म के फाइनल प्रिंट से प्रोड्यूसर संतुष्ट होता है, तभी वह रीलीज़ के लिए क़दम आगे बढ़ाता है। वैसे कई तरह से डिस्ट्रीब्यूशन होते हैं- आप गूगल करेंगे तो इसका जवाब आसानी से मिल जाएगा। हां, मेकिंग के लिए धन हो और उससे आगे आप ठन-ठन गोपाल हों, तो मुश्किल आती है। लेकिन फिल्म आउटस्टैंडिंग हुई, तो कोई न कोई डिस्ट्रीब्यूटर आपका हाथ थाम ही लेता है।
निखिल: क्या 24 मार्च को और भी कोई बड़ी रिलीज़ हो रही है? क्या रिलीज़ की तारीख तय करने में ये सब गणित भी
देखना पड़ता है? कौन तय करता है?
अविनाश: 24 मार्च को अनारकली आॅफ आरा के साथ दो और फिल्में रीलीज़ हो रही है। अनुष्का शर्मा की फिल्लौरी और अब्बास मस्तान की मशीन। लेकिन हमारी टीम में अपनी फिल्म को लेकर काफी उत्साह है।
निखिल: ख़ुद ही स्क्रिप्ट, डायलॉग, डायरेक्शन करना अच्छा रहता है कि अलग-अलग लोगों से करवाना?
अविनाश: यह निर्देशक पर निर्भर करता है कि वह किस तरह से कमफर्टेबल है।
निखिल: बिना डायरेक्शन की ट्रेनिंग के मैदान में कूदना कितना चैलेंजिंग होता है?
अविनाश: मूल बात है संवेदना, फिर कल्पनाशीलता और फिर उस कल्पनाशीलता की भौतिक अभिव्यक्ति। ट्रेनिंग अच्छी चीज़ होती है, लेकिन कई बार वह तकनीकी मामलों में ही आपको समृद्ध कर पाती है। निर्देशक का मूल काम है सोचना। बाकी एग्जीक्यूशन के लिए वह एक टीम बनाता है और यही टीम निर्देशक की सोच को फिल्म में रूपांतरित करती है।
फोटो आभार: फेसबुक और निखिल आनंद गिरि