दिलीप कुमार की ‘फुटपाथ’ व्यापार, मुनाफा एवं भ्रष्टाचार से बढ़कर गंभीर कालाबाज़ारी की अमानवीय, अत्याचारी, मर्मविहीन समस्या पर सामयिक विमर्श थी। पचास के दशक में बनी यह फिल्म अपने विषय एवं प्रभाव में समकालीन समय और उससे काफी आगे की थी। भ्रष्टाचार व कालाबाज़ार की चुनौती आज भी कायम है। उसका रुप पहले से हो सकता अलग हो गया हो, लेकिन ख़त्म नहीं हुआ। गरीबों के यथार्थ की सुध लेनी वाली फिल्मों में ‘फुटपाथ’ अग्रणी थी।
आसमान छूती महंगाई के लिए भ्रष्टाचार और कालाबाज़ार को बहुत हद तक ज़िम्मेदार माना जाना चाहिए। मुनाफा और सिर्फ मुनाफे के लिए खड़ी यह व्यवस्था अहम चीज़ों की सप्लाई को बाधित कर उनकी कीमतें आसमान पर ले जाती है।
लाभ का व्यापार करने वाले को आदमी के दुख से संवेदना नहीं होती, क्योंकि आपदा या दु:ख से भी मुनाफा कमाने का भारी अवसर मिलता है। बाज़ार और व्यापार की इस संवेदनहीनता को परखने वाली फिल्मों में फुटपाथ ने पहल ली थी। संवेदनशील नज़र से देखें तो समझ आता है कि भ्रष्टाचार तत्कालिक तौर पर मुनाफा ज़रूर लाता है, किंतु आदमी से संवेदना, भावना, सहयोग और समर्पण जैसे मूल्य भी चुरा लेता है। नतीजतन आदमी में आदमीयत खो जाती है। जबकि दूसरी ओर यह इंसान का आदमी होना भी दुश्वार कर देता है। तत्कालिक मुनाफे एवं बहुत अधिक मुनाफे की खराबी से समाज के हर तबके को आगे चलकर नुकसान उठाना पड़ता है। स्वीकार करना, ना करना अलग बात है।
व्यापार की मजबूरी कहिए या रणनीति कि वो मुनाफे बगैर चल नहीं सकता, जिसका वो अक्सर फायदा उठाता रहता है। लेकिन उसे नहीं पता कि मुनाफे के समुद्र की कामना अपराध है। व्यापार का नुकसान बाज़ार बहुत कम उठाना जानता है, उसका असर उपभोक्ता या खरीददार को उठाना है। जिसके पास बाज़ार से खरीदने की कीमत नहीं, वो गरीब और भूखा रहने को मजबूर होता है। जिसके पास कीमत नहीं वो जीने से भी मजबूर हो जाता है या नहीं तो फिर अपराधी बन जाना आम है।
गरीब, मजबूर से उससे जीने का अधिकार छीन लेना, उसे अपराधी बनने को मजबूर करना गुनाह है। गरीब को और गरीब बनाने वाले बाज़ार को ‘कालाबाज़ार’ नहीं कहें तो फिर और क्या कहें? वही कालाबाज़ार जिसे आजकल भ्रष्टाचार भी कहते हैं।
जिसका बचपन फुटपाथ पर गुज़रे, उसके मन में व्यवस्था को लेकर ज़हर सा बन जाता है। गरीबी से भी बद्दतर ज़िंदगी काटने वाले फुटपाथ के गरीब बच्चे अपराधी बन जाते हैं, जो नहीं कर सकते वो महंगाई, गरीबी, लाचारी और अत्याचार के ताप में दम तोड़ देते हैं। क्या कालाबाज़ार इन जवान मौतों के लिए ज़िम्मेदार नहीं? लहलहाते खेतो में यदि पैदावर कम बताई जाए, अनाज गोदामों में सड़े और गरीब भुखमरी में आत्महत्या कर ले। महंगाई आसमान पर हो, महामारी में दवाइयों की कीमतें कम होने बजाए दुगनी कीमत पर मिले, तो समझ लेना चहिए कि कालाबाज़ार काम पर लगा हुआ है। शोषण का कुचक्र काम पर लगा हुआ है।
फुटपाथ नोशू (दिलीप कुमार), माला (मीना कुमारी), बानी मास्टर (रोमेश थापर), धरती अख़बार और फुटपाथ की कहानी है। ये रामबाबू (अनवर हुसैन) सरीखे मुनाफापरस्त द्बारा चलाए जा रहे कालाबाज़ार की कहानी है।
फुटपाथ पर गरीबी, लाचारी, बेबसी की वंचित ज़िंदगी में बचपन खो रहे नोशू को अपनाकर बानी ने बड़ा काम किया। बानी में उसे अपना बड़ा भाई मिल गया था। बानी मास्टर उसे अपने भाई से बढ़कर मानता था। नोशू के बिलखते बचपन को फुटपाथ के अंधेरे और गुमनामी से उठा कर घर की रौनक में ले आया।
नौजवान नोशू ने अख़बार में काम पकड़ लिया कि भाई बानी का बोझ कम हो जाए। वो खुदगर्ज़ नहीं था, लेकिन खुद कमाना चाहता था। नोशू के हालात अब भी पहले जैसे थे। वो गरीबी, लाचारी और फुटपाथ को पीछे छोड़ मुफलिसी को मात देने का ख्वाब देख रहा था। अपने हालात से तंग आकर उसने जुर्म की पनाह ली और कालेबाज़ार की खुदगर्ज़, अंधेरी बेशुमार दुनिया में चला आया। नोशू की लाखों रुपए कमा कर अमीर बनने की चाहत ऐसे ही आसानी से पूरी हो सकती थी!
ईमानदार भाई बानी, नोशू और उसकी दुनिया से नाता तोड़ लेता है। भ्रष्टाचार, कालाबाज़ार की काली दुनिया के बनावटी उजाले ने मुहब्बत की ‘सच्ची रोशनी’ माला की आस भी ले ली। पुराने साथी बिखर गए, दिल का रिश्ता टूट गया… नोशू को पीछे छूटी दुनिया सदा दे रही थी। दिल मे तूफान उठा। और ऐसे में बुरा नोशू अमीरों से गरीब, मज़लूम और मजबूर लोगों का बदला लेने वाला मसीहा बनकर उभरता है। खुद के गुनाह का उसे एहसास था कि दौलत के अंधे लालच ने उसे बहुत बुरा आदमी बना दिया। काला बाज़ार का व्यापारी बना दिया। जाने-अंजाने शोषण करने वाला बुरा आदमी बना दिया था।
वो यह बात कुछ इस तरह कबूल करता है, “मुझे अपने बदन से सड़ी हुई लाशों की बू आती है। अपनी हर सांस में मुझे दम तोड़ते हुए बच्चों की सिसकियां सुनाई देती हैं। बानी ठीक कहता था कि ‘मैं आदमी नहीं’ मैं एक खूनी दरिंदा हूं। जिन दवाईयों से उसकी जान बच सकती थी उसका एक ढेर हमारे गोदाम में था, पर बानी के पास दाम नहीं थे, मर गया। अपने हमदर्द भाई की मुहब्बत का यह बदला दिया मैंने उसको। अपने हाथों से गला घोंट दिया…”
फिल्म यह रेखांकित करती है कि आराम से ज़िंदा रहना हर आदमी का अधिकार है, मगर इस तरह लोगों को लूटना, उनकी रोटी छीनना, गरीब और मासूम लोगों को व्यापार के नाम पर बर्बाद करना और उनको मार डालना किसी का अधिकार नहीं। यह महंगाई, भ्रष्टाचार, कालाबाज़ार और मुनाफाखोरी के गम्भीर विषयों को इंसानियत और इंसाफ के संदर्भ में देखने वाली फिल्म है।
नोशु किस्म के किरदार से दुनिया बदल सकती है, लेकिन परेशानी यह कि कितने भ्रष्ट लोग, संवेदनाविहीन व्यापार करने वाले कारोबारियों को मुक्ति का यह मानवीय रास्ता नज़र भी सुहाए? क्योंकि यह समर्पण त्याग और इंसानियत और नैतिक ज़िम्मेदारी की बेहतरीन मिसाल थी। नोशू थोड़ी देर के लिए बुरा आदमी ज़रूर था, लेकिन उसका किरदार नहीं मरा था। स्वार्थ के अंधेरे में डूबे को समाज की पीड़ा नज़र नही आती। ऐसा भी नही कि दुनिया में भले लोग नहीं, लेकिन खुश रहने के वास्ते गालिब यह खयाल अच्छा है।
इसी फिल्म की अच्छाई की एक और बानगी
यह संवाद झकझोर देंगे आपको, “नोशू तुम तो समझदार आदमी हो, तुम ही बताओ कि गरीबों के बच्चों की रोटी कौन छीनता है? उन्हे रास्ते की ठोकरें खिलाते-खिलाते कौन मार डालता है? इतनी आबाद दुनिया में हमारे बर्बाद होने के सामान कौन करता है? बताओ नोशू, बताओ क्या बात है? क्या खेतों को आग लग गई… वहां अनाज नही रहा? दुनिया को क्या हो गया? आदमी को क्या हो गया?”
ज़्यादा मुनाफे के लालच में व्यापार अक्सर बेकसूर लोगों की जान का दुश्मन भी बन जाता है। इंसानियत के ऊपर मुनाफा, व्यापार, बाज़ार हावी हो जाता है। फुटपाथ इसी बुराई का पर्दाफाश करती है।
व्यापार एवम मुनाफाखोरी, कालाबाज़ारी ने कई इंसानों की जान ले ली थी। नोशू से उसका अज़ीज़ भाई छिन गया, दौलत की अंधी भूख में उसने बानी की जान ले ली थी। जिसके लिए जी रहा था उसी की जान ले ली। ऐसे में ‘फुटपाथ’ अपनी तकदीर पर मातम ना मनाए तो क्या करे? हाशिए के दु:ख की इंतेहा नहीं।