किसी ने सच ही कहा है- “प्रगतिशील होने के लिए खुद की सोच में बदलाव लाना आवश्यक है ना कि दूसरों की सोच में।” एक मीडिया स्टूडेंट के तौर पर कई बार यह पढ़ा और सुना है कि फिल्में समाज का आईना होती हैं। हमारी फिल्में किसी ना किसी तरह समाज की मानसिकता, विचारधारा, पिछड़ेपन या प्रगतिशीलता को दर्शाती हैं। निजी तौर पर कई बार मुझे एहसास भी हुआ कि यह बात काफी हद तक सही भी है। पर कई बार यह एहसास भी होता है कि ये फिल्मकार भी तो हमारे इसी पुरुषसत्तात्मक समाज में पले-बढ़े हम-आप जैसे लोग हैं। कितनी भी प्रगतिशील फिल्म निर्माण की बात कर लें पर उस में भी पुरुषवादी सोच झलक ही जाती है।
हाल के कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा में जिस तरह महिलाओं को सशक्त दिखाया जा रहा है वह काफी सराहनीय है। चाहे वह “लव आज कल” की मीरा हो या फिर “ऐ दिल है मुश्किल” की अलीजे़ ये दोनों ही आज की स्वतंत्र, स्वाभिमानी, सशक्त, आत्मनिर्भर, आज़ाद ख़याल महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।
इन्हें देखकर यह ख़याल आता है कि अरे! ये मैं ही तो हूँ। थोड़ी ज़िम्मेदार, थोड़ी बेपरवाह, थोड़ी मनमौजी, कभी समझदार तो कभी नासमझ। हर रंग मेरे हैं, हर भाव मेरे हैं।
पर इन सब में एक बात खटकती है। क्यों ये किरदार सशक्त होकर भी कमज़ोर हैं? क्यों इन किरदारों के लिए प्यार से उबर पाना इतना मुश्किल है? क्यों “मीरा” और “अलीजे़” इतनी सशक्त नहीं जितने कि उनके साथी किरदार “जय” और “अली”?
एक ओर जहां इन दोनों ही फिल्मों में दर्शाया गया है कि ब्रेकअप के बाद ब्रेकअप का जश्न मनाकर फिल्म के दोनों ही पुरुष किरदार अपने करियर में काफी अच्छा करते हैं। “लव आज कल” का जय जहां विदेश चला जाता है वहीं “ऐ दिल है मुश्किल” का अली फेमस डीजे बन जाता है। वहीं दूसरी ओर “मीरा” को अपनी शादी के दूसरे ही दिन तलाक लेकर “जय” की याद में घुटते हुए दिखाया गया और “अलीजे़” को “अली” को भुलाने की हरसंभव कोशिश करते हुए दिखाया गया।
मुझे इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं कि इन दोनों ही फिल्मों में पुरुष किरदार सफल क्यों थे, बस सवाल ये है कि अगर ज़िंदगी में अपार सफलता का पैमाना ब्रेकअप तय करता है तो भला ये सफलता उन महिला किरदारों के हिस्से में क्यों नहीं दी गई? क्यों दिल टूटने पर इन दोनों महिलाओं की जिंदगी सामान्य होकर भी असामान्य सी थी? क्यों ये दोनों चाहकर भी अपनी ज़िंदगी के पिछले रिश्ते से निकल नहीं पायी? क्यों जब वही शख्स़ वापस उनकी जिंदगी में आया तो उन्होंने उसे यूं अपना लिया जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं?
क्या वाकई ये सारी चीज़ें, घटनाक्रम सही थे? मेरे ख्याल से नहीं। वास्तविकता ये है कि अगर चीज़ों को उल्टा कर दें तो यह हमारे समाज में स्वीकारा नहीं जा सकता। अगर इन महिला किरदारों को सफल होते हुए दिखाया जाता, उन्हें अपनी नई ज़िंदगी में खुश दिखाया जाता, पुराने रिश्ते को नई ज़िंदगी पर हावी नहीं होते दिखाया जाता तो ये शायद “महिला प्रधान फिल्में” कहलाती।
असल ज़िंदगी में भी तो यही होता है ब्रेकअप हो या तलाक तकलीफ से घुटने वाली महिलाओं को बेचारी कहा जाता है।सलाह दी जाती है कि ज़िंदगी में आगे बढ़ें, इतना “ओवर रिएक्ट” ना करें। एक रिश्ता ही तो था टूट गया तो क्या हो गया? और तो और अक्सर रिश्ता टूटने की ज़िम्मेदारी भी उन पर ही डाल दी जाती हैं।
पर अगर कोई महिला ठीक इसका उल्टा करें तो भी कुछ खास नहीं बदलता। लोग कहते हैं बड़ी “फास्ट” है, तकलीफ नहीं होती इसे? ज़रूर उस लड़के का फायदा उठाया होगा, ज़रूर मन भर गया होगा इसका “उस टाइप की लड़की” लगती है और ना जाने कितनी ही ऐसी-वैसी बातें।
पर हमारी फिल्मों में ये नहीं दिखाते कि प्यार में नाकामयाब महिलाएं ना तो किसी पर एसिड एटैक करती हैं, ना किसी का एमएमएस बनाकर उसे ब्लैकमेल करती हैं, ना किसी का रेप करती हैं। अगर फिल्में वाकई समाज का आईना हैं तो ये दोहरापन क्यों? ये अधूरा सच क्यों?
फिल्मों के पुरुष किरदार हों या असल ज़िंदगी के पुरुष, प्यार में नाकामयाब होने के बाद उनकी ज़िंदगी की सफलता को हमारे समाज में “ठोकर खाकर संभलना” कहते हैं। वहीं दूसरी ओर अगर वो ग़म से उबर ना पाए तो सच्चे आशिक कहलाते हैं। यानि चित्त भी उनकी और पट भी उनकी।
वाह! रे आधुनिक सिनेमा और हमारा आधुनिक समाज जो कल भी पुरुषसत्तात्मक था और आज भी है और शायद हमेशा ही रहेगा और ऐसी स्थिति में हमें “महिला सशक्तिकरण” दिखाने के लिए “महिला प्रधान फिल्में” बनाने की ज़रूरत पड़ती रहेगी ताकि हम आवाज़ और गर्दन ऊंची कर के “गर्व” से कह सकें कि भारतीय सिनेमा और समाज में “बदलाव” तो आया है।