दिल्ली के लक्ष्मी नगर में ‘खास’ नाम की एक टूर एंड ट्रैवल एजेंसी है। जहां सिर्फ 5 लोग काम करते हैं। उनमें से 4 वे लड़कियां जिनसे हम आपको आज मिलवाएंगे और 5वें हैं खास के फाउंडर आकाश। ये चारों लड़कियां दृष्टिहीन हैं लेकिन अपने दम पर पूरी कंपनी चला रही हैं। क्षमता इतनी कि आप दंग रह जाएंगे। पढ़िए क्या बात की उन्होंने Youth Ki Awaaz के प्रशांत से, और हां, पढ़ने के बाद डिसेबिलिटी को लेकर समझ या नज़रिया थोड़ा भी बदला हो तो इन चारों लड़कियों को सलाम भेजते जाइएगा। क्रमबद्ध तरीके से पहले आपकी पहचान इन चारों से करवा दें।
कमलेश- मैं हरियाणा से हूं, LSR से ग्रैजुएशन किया, जामिया से MA किया, फिर कंप्यूटर कोर्स किया हौजखास से और उसके बाद मैं खास से जुड़ी। मैं यहां पर as a HR काम करती हूं।
दिप्ती- मेरा नाम दिप्ती है, मैंने पढ़ाई त्रिपुरा से की, फिर कंप्यूटर का कोर्स करने हौज़ खास आई और वहीं से खास से जुड़ी।
प्रेमा- मेरा नाम प्रेमा है, उत्तराखंड से हूं मैं, मैं लेट ब्लाइंड हूं तो मैंने 8वीं क्लास तक आर्मी स्कूल में पढ़ाई की, फिर कॉरेस्पाँडेंस से BA कर रही हूं। हौजखास से कंप्यूटर ट्रेनिंग के बाद मुझे यहां जॉब मिली।
अर्चना- मेरा नाम अर्चना है मैं गोरखपुर से हूं। मैं लेट ब्लाइंड हूं। 2005 में ब्लाइंड हुई मैं, कुछ पता नहीं था ब्लाइंड्स के लिए क्या होता है, कहां होता है, कैसे पढ़ाई होती है, कैसे नौकरी मिलती है तो फिर मैं हौज खास में ट्रेनिंग के दौरान खास से जुड़ी और अब यहां जॉब कर रही हूं।
प्रशांत- तो आप सबको यहां काम करने में बहुत मज़ा आ रहा है? अच्छा लग रहा है?
सब एक साथ- हां बिल्कुल, जी बहुत अच्छा लगता है।
प्रशांत- तो कैसे करती हैं आपलोग काम और क्या करती हैं ज़रा बताइये
कमलेश- जब हम यहां आए थें तो सोचा नहीं था कि कोई विज़ुअली चैलेंज्ड इंसान टूरिज़्म सेक्टर में भी काम कर सकता है,लेकिन फिर आकाश सर ने ट्रेनिंग दी, हमें प्रैक्टिकल नॉलेज दी। हमें हर जगह की जानकारी दी। हमें जानकर अच्छा लगा और धीरे-धीरे हम क्लाइंट्स से डील करने लगें और उनको अलग-अलग जगहों के बारे में बताने लगें।
प्रशांत- जब आकाश ने इंटरव्यू लिया था और रिज़ल्ट आने में देरी थी तो डर लगता था कि सेलेक्शन होगा कि नहीं, क्या होगा?
कमलेश- बहुत डर लगता था, लगता था कि कैसे काम करेंगे, कैसे क्या होगा, सेलेक्शन हो भी जाएगा तो कैसे समझेंगे सबकुछ।
अर्चना- लग रहा था कि किसी से फोन पर बात भी नहीं करते हैं अभी तक, अगर सेलेक्ट हो गई तो फोन पर कैसे अप्वाइंटमेंट लूंगी लोगों से, लेकिन जब सर ने सब बताया तो अब मज़ा आने लगा है काम करने में।
प्रशांत- खास से पहले और अब लाईफ कितनी बदली है?
कमलेश- खास से जुड़ने से पहले खुद में ही सिमट के रहती थी, अब मैं सीमित नहीं हूं बस कुछ लोगों तक, बहुत लोगों से मिलना होता है काम के सिलसिले में, और मैं अब बिल्कुल नहीं झिझकती।
अर्चना- जब मैं हॉस्टल में रहती थी तो लाईफ ही अलग थी। ना किसी से मिलना जुलना ना बात करना, अपना काम करो और कमरे में रहो, लेकिन यहां तो लाईफ ही बदल गई है। अब बाहर जाती हूं, सब से मिलती हूं।
प्रेमा- मैं उत्तराखंड से हूं लेकिन मुझे पता तक नहीं था कि जिम कॉरबेट उत्तराखंड में है, धीरे-धीरे सारे जगहों के बारे में पता चला, तो अब बहुत मन करता है हर जगह जाने का लोगों से मिलने का, तो काफी पॉज़िटिव हो गई हूं अब।
दिप्ती- लोगों से मिलने के साथ कम्यूनिकेशन स्किल बहुत सही हो गई है। मेरी हिंदी बेहतर हो गई है। हर जगह के बारे में हर स्टेट के बारे में जानकारी मिल गई। तरह-तरह के कस्टमर्स से बात होती है तो बहुत अच्छा लगता है।
प्रशांत- इस संस्था से जुड़ने से पहले बहुत मुश्किल भी होती थी? कितनी स्ट्रगल होती है?
कमलेश- मैं और मेरे पेरेंट्स हमेशा सोचते थे कि मैं एक नॉर्मल स्कूल में पढ़ूं और सब लोगों के साथ रहूं-देखूं और समाज का हिस्सा बनकर रहूं। लेकिन सबने बोला कि नहीं ब्लाइंड स्कूल में ही पढ़ाओ सही रहेगा, एक जैसे लोग मिलेंगे तो घुल-मिल जाएगी। लेकिन जब स्कूल में एडमिशन मिल भी गई तब भी बहुत दिक्कत हुई, स्कूल में ब्रेल टेक्नीक होती नहीं थी। लेकिन फ्रेंड्स का सपोर्ट था हमेशा।
प्रशांत- आप लोगों को लगता है हमारे सोसायटी में इक्वॉलिटी की बात तो होती है लेकिन हमारा इंटरैक्शन ही नहीं होता है डिसेबल्ड लोगों के साथ। डिसेबल्ड बच्चों को शुरू से ही अलग कर दिया जाता है?
प्रेमा- इसको लेकर तो खुद के स्तर पर लोगों को सोच बदलनी होगी।आस पड़ोस के लोग कहते थें कि मां-बाप पर बोझ बन गई, भाई पर बोझ बन गई, इससे अच्छा तो मर ही जाती, बचपन में ही मर जाती। काफी बुरा लगता था।
अर्चना- हम कोशिश कर तो सकते हैं, लेकिन सोच बदल जाए ये गैरेंटी नहीं, हमारे पेरेंट्स तो खुश होते हैं ये देखकर की हम काम कर रहे हैं लेकिन दूसरों के लिए ये मज़ाक का विषय होता है कि देखो, देख नहीं सकती फिर भी इधर-उधर करते रहती है। ये नहीं कि चुप-चाप एक जगह बैठी रहे।
कमलेश- हमारे हरियाणा साइड तो ये भी कहते हैं कि कोई लड़का होता तो फिर भी ठीक था कोई देखने वाली बहू ले आतें लेकिन लड़की है तो क्या करें।
अर्चना- समाज है ना वो कहीं नहीं जीने देती, लड़की लड़की कह के तो जीना मुश्किल कर देते हैं।
प्रेमा- ताने सुन सुनकर तो बहुत दुख होता था, लोग ये तक बोल के गए हैं घर पर कि ज़हर दे दो। क्या करेगी जी के। ये नहीं कि इतनी छोटी उम्र में ब्लाइंड हो गई तो सपोर्ट करें। उल्टा ऐसे ताने मारते हैं।
प्रशांत- लड़कियों को लेकर बहुत अच्छा रवैय्या नहीं है हमारा उसपर से डिसेबल्ड होना ये कितना बड़ा स्ट्रगल रहा है।
दिप्ती- समाज तो नॉर्मल लड़की की वैल्यू नहीं करती और डिसेबल्ड हों तो फिर क्या कहा जाए। मेरे लिए सबसे दुखी कर देने वाला टाईम वो था जब मेरे प्राइवेट ट्यूटर ने कहा कि ब्लाइंड हो क्या करोगी MA करके, जॉब करके क्या करोगी?
सड़क पर जाओगी किसी की मदद लेनी पड़ेगी, गाड़ी से ठोकर लग जाएगा, इससे अच्छा है कि गॉवर्नमेंट से अप्लाई कर दो घर में बैठे-बैठे स्टाइपेंड मिल जाएगी। वो खुद MA कर रहे थे।
आप ये देखिए कि घर में भाई और बहन हो तो भाई को ज्यादा वैल्यू दिया जाता है और खासकर डिसेबल्ड होना तो अलग ही स्ट्रगल है। देखिए जैसे अभी त्रिपुरा में ट्राइबल लैंग्वेज सिखाने के लिए रूल्स आए हैं, कंपलसरी कर दिया गया है एक ट्राइबल सब्जेक्ट सीखना, तो डिसेबिलिटी के उपर एक सब्जेक्ट हो सकता है ना 10-20 परसेंट तो चेंज आएगा ही ना।
प्रशांत- एजुकेशन के साथ साथ फैमिली में भी बात करें तो बदलाव आ सकता है।
दिप्ती- मैं एक उदाहरण देती हूं, चित्रा विहार में मेरा हॉस्टल है अपार्टमेंट में, तो वहां जो हमारी मैम हैं उन्हें वहीं रहने वाली एक महिला ने कहा कि इन लोगों को बोलो दूसरे रास्ते से जाएं। ये ब्लाइंड हैं ना तो हमारे बच्चे डर जाते हैं इनका चेहरा देखकर। बताइये हमारा चेहरे से क्या है। क्या इतना कुछ है कि लोग देख के डर जाएं।
कमलेश- स्कूल में मुझे नौकरी नहीं मिलती थी इसकी वजह से, मुझे प्रिंसिपल बोलते थे कि तुम कैसे पढ़ाओगी। लेकिन आप बताइये कि अगर बच्चे ये देखेंगे कि हमारे टीचर्स हैं तो कुछ तो बदलेगा ना
अर्चना- जो बाहर का एरिया है हमारे हॉस्टल का, तो उसमें भी घूमने पर लोग कहते हैं कि अंदर जाओ, यहां बैठना अलाउड नहीं है तुमलोगों को, अंदर जाओ।
कमलेश- बताइये कहां स्वतंत्र हैं हम, और वो लोग तो पढ़े लिखे भी थे जो हमें भगा रहे थे।
प्रशांत- यानी पब्लिक स्पेस और पब्लिक स्पेस की एक्सेसिबिलिटी में भी बहुत दिक्कत होती है आपलोगों को, आपको लगता है इसपर गॉवर्नमेंट के लेवल पर कुछ हो सकता है?
दिप्ती- मैं तो कहूंगी कि सरकार ही गलत है नहीं तो अलग नाम कैसे दे सकती है सरकार हमें दिव्यांग का? हम क्या अलग हैं, दिव्य हैं? सरकार से तो बिलकुल भी जुड़ाव महसूस नहीं होता।
प्रेमा- जैसे कुछ दिन पहले बात हुई थी कि नोट्स पर ब्रेल में भी लिखा होगा हमारी सहूलियत के लिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ, हम कैसे पहचानेंगे नोट? आपलोग तो गांधी जी की फोटो देख कर पहचान जाते हैं हम कैसे पहचानेंगे? और इसी चक्कर में हम कभी कभी ज़्यादा पैसा दे देते हैं और वो लोग लौटाते भी नहीं है।
प्रशांत- मदद करते करते लोग कई बार दया दिखाने लगते हैं?
अर्चना- बिल्कुल ऐसा होता है, और दया जब दिखाते हैं तो गुस्सा आता है, जैसे रोड क्रॉस करने के लिए किसी से मदद मांगो तो लोग कहते हैं कि आप पैसे ले लो, यहीं से ऑटो कर लो रोड क्यूं क्रॉस करेंगी। मैं कहती हूं कि पैसे हमारे पास भी है हम से पैसे ले लिजिए।
प्रशांत- एक बात तो है कि आपलोग गज़ब काम कर रही हैं, अच्छा लगता है कि जितने लोग उंगली उठाने वाले थे वो अब आपकी अबिलिटी को सलाम करते हैं।
कमलेश- वो खुद मीडिया में देखते हैं, और कहते हैं कि वाह छा गई हो
प्रेमा- पहले लोग कहते थें कि क्यों जाती हो सड़क पर अकेले अब कहते हैं कि वाह कमाने लगी हो अच्छा है।
प्रशांत- अपने उम्र के लोगों से कुछ कहना चाहेंगी आपलोग?
कमलेश- जैसे आकाश जी ने हमें यहां काम करने का मौका दिया है वैसे हीं देश के लोग कोशिश करें कि सबको काम दें।
अर्चना- हम ये कहेंगे कि हम दृष्टिहीन ज़रूर हैं लेकिन दिशाहीन नहीं है और हमें मौका दिया जाए तो सबसे बेहतर काम कर सकते हैं।
प्रेमा- ऐसी स्थिती किसी के साथ कभी भी आ सकती है तो डिसकरेज़ मत करिए सपोर्ट करिए।
दिप्ती- अगर आपके आस-पास कोई डिसेबल्ड है तो उनसे बात करिए, उनको समझने की कोशिश करिए, साथ दीजिए, दया मत दिखाइये।
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