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औरतों की सहमति को नज़रअंदाज़ करने वाले बॉलीवुड में साहिर के ये गीत याद आते हैं

हॉलीवुड डायरेक्टर बेर्नार्दो बेर्तोलुची का एक बयान सामने आया था कि 1972 में आयी उनकी निर्देशित फिल्म ‘लास्ट टैंगो इन पेरिस’ में हीरोइन मारिया स्नाइडर पर जो रेप सीन फिल्माया गया था उसमें मारिया की सहमति नहीं ली गयी थी। गौरतलब रहे कि इस फिल्म के बाद मारिया ने मानसिक संतुलन खो दिया था और वो ड्रग्स के चंगुल में फंस गयी थी। उन्होनें एक से ज़्यादा बार आत्महत्या का प्रयास भी किया था और दो साल पहले ही उनकी मृत्यु हो चुकी है। इसके साथ ही इस बहस ने फिर ज़ोर पकड़ लिया है कि औरत की सहमति (कंसेंट) का कितना महत्व है और हमारा पुरुषप्रधान या पित्रसत्तात्मक समाज इसको किस हद तक नज़रअंदाज़ करता रहा है।

फ़िल्म ‘पिंक’ की इस लिहाज़ से काफी प्रशंसा की गयी थी कि इसमें औरत के ‘ना’ बोलने के अधिकार की अहमियत को दर्शाया गया है। लेकिन तब भी यदि देखा जाए तो ये एक मुख्यधारा से हटकर बनायी गयी फिल्म थी। आज की मुख्यधारा में बनने वाली फिल्मों में औरत की सहमति को दोयम दर्जा ही दिया जाता है।

आमतौर पर फिल्म का हीरो लड़की को पसंद करता है उसका पीछा करता है, उसको छेड़ता है और अंत में लड़की को भी उससे प्यार हो ही जाता है। ये सोच हिंदी फिल्म ‘जब प्यार किसी से होता है’ के हिट गीत ‘चल प्यार करेगी/ हां जी हां जी/ मेरे साथ चलेगी/ ना जी ना जी’ से बखूबी प्रदर्शित होती है। जहां लड़की को लड़का कहता है ‘तू हां कर या न कर तेरी मर्ज़ी सोनिये/ हम तुझको उठा कर ले जायेंगे’। यहां ज़रूरी ये है कि यही लड़का हीरो भी है और आखिरे में हीरोइन इस ही इंसान को दिल भी देती है।

सलमान खान कि हिट फिल्म ‘तेरे नाम’ को अगर लिया जाए तो भी हम यही पाते हैं कि एक ऐसे इंसान को हीरो के रूप में दिखाया जाता है जो कि लड़की का कॉलेज से घर पीछा करता है उसको छेड़ता है। इस फिल्म के ही एक गाने में ये पंक्ति भी आती है ‘इश्क में ना का मतलब तो हां होता है’। आखिर लड़की को ना का अधिकार कहां है। क्या उससे पूछना ज़रूरी नहीं है? या ये पुरुषप्रधान समाज ही तय करेगा कि उसके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा?

आज मुन्नी बदनाम, शीला की जवानी जैसे गीतों के दौर में ये सोचना भी बेईमानी लगता है कि बॉलीवुड नारीवाद की अपनी मुख्यधारा में बात भी कर सकता है। लेकिन आज हमारा जो समाज नारीवाद को सिर्फ पश्चिम की सोच मानता है, उसको शायद ये याद नहीं कि 50 और 60 के दशकों में भारतीय हिंदी फिल्मों में साहिर, मजाज़, सुल्तानपुरी, शैलेन्द्र जैसे तरक्कीपसंद शायर गीत लिख रहे थे और इस्मत चुगताई जैसे कहानीकार कहानी लिख रहे थे। ये वो लोग थे जो औरतों और मज़दूरों के हक के लिए समाज से लड़ रहे थे।

यदि हम केवल नारी की सहमती की ही बात करें तो साहिर लुधियानवी के कुछ गीत बरबस ही आज के किसी भी नारीवादी क्रान्तिकारी से अधिक क्रांतिकारी नज़र आयेंगे। मिसाल के तौर पर 1958 में आयी फिल्म ‘सोने की चिड़िया’; ये एक मुख्य धारा की फिल्म थी और शाहिद लतीफ़ ने इसको निर्देशित किया था। शाहिद उस समय के जन आन्दोलनों से जुड़े हुए थे और महान कहानीकार इस्मत चुगताई के पति भी थे। इस फिल्म की कहानी इस्मत ने ही लिखी थी और गीत साहिर ने। फ़िल्म की कहानी एक ऐसी लड़की के इर्द गिर्द घुमती है जो कि अनाथ है पर समाज और रिश्तेदारों के ज़ुल्मों के बावजूद एक सफल गायक और अदाकारा बन जाती है।

इस फिल्म का ही एक गीत जो कि साहिर ने लिखा और तलत महमूद और आशा भोंसले ने गाया था सहमती और असहमति के इस मुद्दे का सटीक जवाब है। गौरतलब रहे ये आज से लगभग साठ बरस पहले भारत में लिखा जा रहा था। एक ऐसा सवाल जिससे कि पश्चिम के नारी आन्दोलन आज तक उलझे हुए हैं।

गाने की शुरुआत में ही हीरो हीरोइन से कहता है, ‘प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी/ तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या ना करूं’। यहां ऐसा नहीं है कि हीरो प्यार का इज़हार नहीं कर रहा है पर वो इस बात को लेकर बिलकुल साफ नज़रिया रखता है कि लड़की की रज़ामंदी के बिना वो आगे नहीं बढ़ सकता। यहां ये नहीं कहा जा रहा कि तेरा ना कहना भी एक अदा है तो हम ना को भी हां मान लेंगे।

देखा जाए तो ये सोच वही है, जिसको 2013 में भारतीय संसद ने सही मानते हुए सहमती के कानून में संशोधन किया। ये कानून साफ कहता है, “केवल इस कारण कि लड़की ने संभोग का बलपूर्वक विरोध नहीं किया यह साबित नहीं करता कि उसने सहमति दे दी थी”। ये कानून इस सोच पर टिका है कि औरत का ना कहना ही सब कुछ नहीं है बल्कि उसकी हां के बिना आप उस से यौन सम्बन्ध नहीं बना सकते।

साहिर की सोच यही दर्शाती है, जहां कि वो लड़की से हां का इंतज़ार कर रहे हैं। इस गीत में आगे साहिर लिखते हैं कि ‘पूछ कर अपनी निगाहों से बता दे मुझको/ मेरी रातों के मुकद्दर में सहर है के नहीं’। यहां ध्यान देने वाली बात ये भी है कि साहिर खुद को प्रेमिका के बराबर रख कर देख रहे हैं। ना तो उनमें कोई दया मांगने का भाव है और ना ही खुद को बड़ा दिखाने का। वो प्रेमिका का साथ मांग रहे हैं बिना उस पर कोई ज़ोर ज़बरदस्ती के। कोई कसमें नहीं दी जा रही, कोई जीने मरने की धमकी नहीं है। हां एक वादा ज़रूर है कि अगर प्रेमिका हां कर दे तो वो उसको प्यार करेंगे।

साहिर सिर्फ यही नहीं रुकते। वो इस गीत में ये भी दर्शाते हैं कि प्रेमिका उनके लिए कोई प्रेम भोग की वस्तु नहीं है बल्कि वो एक जीवनसाथी है जिसकी ज़रूरत उनको हर कदम पर है और वो उस साथ के लिए हां चाहते हैं। ‘कहीं ऐसा ना हो पांव मेरे थर्रा जाएं/ और तेरी मरमरी बाहों का सहारा ना मिले/ अश्क बहते रहें ख़ामोश सियाह रातों में/ और तेरे रेशमी आंचल का किनारा ना मिले’। साहिर ये बात साफ कर रहे हैं कि जीवन की मुश्किलों में वो उम्मीद करते हैं कि उनकी प्रेमिका उनका साथ देगी। ये वो सोच है जो औरत और मर्द को बराबर मानती है।

साहिर की ही कलम से 1980 की फिल्म ‘इंसाफ़ का तराज़ू’ में आया गीत ‘हज़ार ख्व़ाब हक़ीक़त का रूप ले लेंगे/ मगर ये शर्त है तुम मुस्कुरा के हां कह दो’ एक और ऐसा गीत है जहां वो लड़की कि सहमती को ज़रूरी दर्शाते हैं। गीत के दौरान बार-बार वो कहते हैं ‘ये सारे शौक सदाक़त का रूप ले लेंगें/ मगर ये शर्त है तुम मुस्कुरा के हां कह दो’। ये सोच का विषय है कि ऐसा पिछले 30-35 बरस में क्या हुआ कि हमारे गीत औरत को केवल एक वस्तु के तौर पर देखने लगे। ऐसा क्या हुआ कि हमारे नारीवादी प्रेरणा के लिए पश्चिम की ओर देखने लगे। कैसे हम प्रेमिका की रज़ामंदी पूछते-पूछते ‘डर’ के शाहरुख़ की तरह ‘तू हां कर या ना कर तू है मेरी किरन’ कहने लगे।

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