आकाश पांडे:
15 अगस्त 1947 को हमारे देश को अंग्रेजों से आज़ादी मिली थी, पर आज भी हमारे देश में दो देश रहते हैं। पहला देश है इंडिया जो कि धनाढ्य लोग, पूंजीपतियों आदि का प्रतिनिधित्व करता है। इनका ही देश के अधिकतर संसाधनों पर कब्ज़ा है। दूसरा देश है भारत जो गांवों में, गरीबों में, मजदूरों में, जंगलों के आदिवासियों में बसता है। इनका देश के संसाधनों पर कोई अधिकार नहीं है बल्कि ये खुद देश इंडिया के पूंजीपतियों के लिए एक संसाधन बन जाते हैं जिनका जम कर शोषण किया जाता है। इस शोषण में देश में जो लोकतांत्रिक सरकार है जिसे चुनने के लिए उस गरीब ने भी वोट दिया है जिसका शोषण हो रहा है,पूंजीपतियों का खूब साथ देती है। इसके साथ ही स्टेट मिशनरियां भी इन गरीबों का शोषण करती हैं। तब मन में ये विचार अनायास ही आ जाते हैं कि लोकतंत्र का जो वर्तमान ढांचा है वो सिर्फ गरीबों के शोषण और पूंजीपतियों के सहयोग के लिए ही बनाया गया है।
गरीबों, मजदूरों का शोषण हर स्तर पर और सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाली हर संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है। इसी की एक बानगी देश के सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों में से एक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में देखने को मिल रही है। यहां विश्वविद्यालय के दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी अपने को नियमित व स्थायी करने की मांग लेकर लगभग पिछले 150 दिनों से धरनारत हैं। इसी क्रम इन लोगों ने लगभग 42 दिनों तक अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल भी की, परन्तु विश्वविद्यालय प्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। यहां तक कि 42 दिनों की भूख हड़ताल के दौरान बीएचयू प्रशासन या जिला प्रशासन द्वारा किसी प्रकार की मेडिकल जांच उन भूख हड़तालियों की नहीं की गयी। यह बहुत ही निंदनीय है और मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है।
अब बात दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों की मांगों की तो ये कर्मचारी अपने को नियमित व स्थायी करने की मांग कर रहे हैं। बीएचयू की कार्यकारिणी परिषद ने 1998 में एक प्रस्ताव पास किया था कि जो भी दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी 10 साल या उससे अधिक दिनों से कार्य कर रहा है उसे नियमित व स्थायी किया जायेगा और इन कर्मचारियों की शत प्रतिशत नियुक्ति के बाद ही नयी नियुक्तियां की जायेंगी। परन्तु विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा इन कर्मचारियों से छल किया गया और इन्हें बिना नियमित व स्थायी किये ही नयी नियुक्तियां की गयी। आज वर्ष 2016 में कर्मचारियों को 1998 के उस प्रस्ताव के बारे में पता चला तो ये कर्मचारी अपने अधिकारों को लेकर आंदोलनरत हो गए तब विश्वविद्यालय प्रशासन ने इन्हे नौकरी से निकाल दिया। अब उन आंदोलनरत कर्मचारियों, जिन्होंने अपने जीवन का 30-40 वर्ष इस विश्वविद्यालय को दिए, के सामने ये समस्या है कि वे कहां जाएं? उनके सामने अब अपने जीविकोपार्जन का भी संकट गहरा गया है।
इन कर्मचारियों में कम पढे-लिखे लोग हैं। इन गरीब कर्मचारियों के पास पर्याप्त धन भी नहीं है कि वो कानूनी मदद ले सकें। इस तरह विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा कर्मचारियों का शारीरिक रूप से शोषण करने के बाद अब मानसिक रूप से भी शोषण किया जा रहा है।
गौरतलब है कि 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आरएसएस से सम्बन्धित प्रो. जी.सी. त्रिपाठी को कुलपति नियुक्त किया गया है। इनके कार्यकाल में कर्मचारियों के साथ-साथ छात्रों और शिक्षकों का भी शोषण अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया है। कुछ दिनों पहले ही कुलपति ने 9 छात्रों को चौबीस घंटे विश्वविद्यालय में लाइब्रेरी की सुविधा मांगने पर बिना कारण बताओ नोटिस दिये ही 2 शैक्षणिक सत्र से निलंबित कर दिया। जब कर्मचारियों ने अपने अधिकार मांगे तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।
विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं पर नये-नये तुगलकी फरमान थोपे जा रहे हैं। जो कि विश्वविद्यालय में फासीवादिता की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करता है। एक खास विचारधारा जिससे हमारे कुलपति जुड़े हुए हैं, का अपनी विचारधारा थोपने का एक खास एजेंडा है और इसी लिए वो मोदी जी द्वारा बीएचयू के कुलपति बनाये गये हैं। अब छात्रों को सोचना होगा कि वो किसके पक्ष में हैं? मजदूरों-छात्रों के पक्ष में या फासीवादिता के पक्ष में।