नमस्कार! भारतीय संसद में आपका स्वागत है, इसके तीन अंग हैं- लोकसभा+राज्सभा+राष्ट्रपति, जिनके ऊपर संसदीय प्रणाली को सुचारू रूप से चलाने का दारोमदार है। दूसरी भाषा में संसद लोगों की वह सर्वोत्कृष्ट संस्था है जिसके माध्यम से लोगों की प्रभुसत्ता को अभिव्यक्ति मिलती है। पहले संसद का काम केवल बनाना ही होता था पर आज यह राजनीतिक और वित्तीय नियंत्रण, प्रशासन की निगरानी, जवाबदेही, हिसाबदेही, शिकायते, शिक्षित करना, मंत्र देना व राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करना भी है, जो एक लोकतान्त्रिक देश को और मजबूती प्रदान करती है।
आज की बात यह है कि संसद के दोनों सदनों में हंगामा बहुत होता है। संसद ठप रहती है, सत्र धुल जाते हैं, कानून अटके रहते हैं और सरकार कहती है कि संसद न चलने का कारण विपक्ष का दिवालियापन है। मीडिया आपको बार-बार यह तर्क देता रहता है कि आपकी मेहनत की कमाई से वसूला गया टैक्स यूं ही खपता जा रहा है, अब मैं जनता हूँ कि आप का खून खौल रहा होगा लेकिन सब्र कीजिये आज हम संसद न चलने के लिए जवाबदेही और हिसाबदेही की लिए जिम्मेदार व्यक्ति को टटोलने की कोशिश करेंगे, क्यूंकि सवाल केवल टैक्स भरने तक का नही है। इसके लिए हमें कुछ एतिहासिक सदनों की कार्यवाही की स्त्थितियों को टटोलने की कोशिस करनी होगी-
आपको ध्यान है की पहली लोकसभा का गठन 1951 में हुआ था जिसमे भारतीय कांग्रेस को 364 सीटें यानि 70% सीटें मिली थी, दूसरी बार कांग्रेस 371 सीटें मिली, तीसरी बार 361 और चौथी और पांचवी बार भी कांग्रेस ही बहुमत में रही। विपक्ष संख्या में बहुत कमज़ोर और टुकड़ों में बंटा रहा किन्तु यह नही कहा जा सकता की विपक्ष प्रभावी नही था या विपक्ष को सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगानी पड़ी हो कि सत्ताधारी पार्टी उसे विपक्ष के रूप में अपनाने को तैयार नहीं। पर 2014 में ऐसा हुआ कि विपक्ष, सुप्रीम कोर्ट गया इसलिए कि उसे कम संख्या में भी होते हुए सदन में बैठने की इजाजत दी जाये।
उस समय कांग्रेस दल में कुछ बड़े और गौरवशाली नेता हुआ करते थे, जो सदन की पूरे सत्र की कार्यवाही में उपस्थित रहते थे और प्रबुद्ध सांसद थे जो अच्छे वक्ता होने के साथ-साथ संसदीय प्रिक्रिया के ममाग्र थे। ये सदन में प्रवेश करते समय लोकतंत्र के मंदिर में माथा टेकते थे जैसे नेहरु,पुरोषोत्तम टंडन,हरे कृष्ण,एस के पाटिल,स्वर्ण सिंह,और भाजपा के श्री अटल विहारी बाजपाई जी या आडवानी जी। विपक्ष इतनी कम संख्या में होते हुए भी हमेशा ताकतवर रहा। तब बहस इस कदर होती थी कि कभी 14 घंटे, कभी 16 घंटे, बोफोर्ष मामले में 64 घंटे बहस हुई और कई दिन संसद ठप भी रही। इंदिरा गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए आठवें आम चुनाव में कांग्रेस को 513 में 402 सीटें मिली और भाजपा को केवल 2, पर ऐसा नहीं हुआ कि विपक्ष कमज़ोर हो गया हो। लगातार बहसें चलती गई, सत्र धुलते गए लेकिन एक बात समझने योग्य है कि जनता के टैक्स रुपी पैसे तब भी बर्बाद हुए और संसद हफ्तों दर हफ्तों ठप रही लेकिन तब यह प्रश्न बिलकुल नही उठा। क्यूंकि घोटाले देशहित के मामले थे लेकिन अब सरकार निर्णय करेगी की कौन सा फैसला देशहित का है और कौन सा नहीं, आज संसद न चलने पर यह सवाल बार-बार गूंजता है।
आइये देखते है कि तब तर्क कैसे दिए जाते थे, जब अटल बिहारी जी ने नेहरु के एक पूर्व सचिव एम ओ मथाई के विरुध्द एक विशेषाधिकार हनन की एक शिकायत पेश की तो स्वंय नेहरु ने सिफारिश की, “जब सदन का अंग चाहता है की कुछ किया जाना चाहिए तो फिर यह मामला ऐसा ही नही रह जाता जिसे बहुमत से तय किया जाना चाहिए और उन भावनाओ की अवेहलना कर दिया जाये।”
ऐसे कितने ऐतिहासिक दृश्य याद आते हैं जब डॉ. लोहिया जी ने कमज़ोर विपक्ष का हिस्सा होते हुए भी प्रधानमंत्री नेहरु जी को अपनी तल्ख़ और कठोर आलोचना का शिकार बनाया। तीन आने बनाम पंद्रह आने के वाद-विवाद में उन्होंने ठोस तर्क देकर सिद्ध किया कि एक आम आदमी की आय 3-4 आने प्रतिदिन थी और पंडित जी की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि, “इन जनाब को देखिये इनके कुर्ते के रोज़ का खर्च 25 रु. और आम आदमी की आमदनी 25 पैसे” पर नेहरु जी पूरी सद्भावना और शालीनता से अपनी आलोचना सुनते गए। क्या दौर था वो है न! और ज़्यादा पड़ना हो तो एक इतिहास की अच्छी किताब खरीद लेना। एक आज का दौर है जब विपक्षी नेता अगर प्रधानमंत्री को सूट-बूट वाला बोल दें तो जनसभाओं में कुतर्को का वाद-विवाद शुरू हो जाता है।
अब संसद के आज के हालात टटोलने की कोशिश करते है-
संसद देश के लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, संसद में कौन बहुमत में है ये महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि एक जवाबदेह सरकार का होना महत्वपूर्ण है। इस संसद में मनमानी नामक कोई नियम नहीं है। हद तो तब हो जाती है जब एक सांसद और सरकार का मुखिया यानी कि भारत का प्रधानमंत्री देश की संसद से बाहर,जनसभा में यह बोलता है कि उसे संसद में बोलने नही दिया जाता। इससे शर्मनाक कोई बात नही हो सकती, संसद को सीधे-सीधे महत्त्व न देकर आप संसदीय व्यवस्था/प्रणाली पर चोट कर रहे हैं। यहाँ तक कि सरकार को बताना पड़ता है कि प्रधानमंत्री किस दिन संसद में मौजूद रहेंगे। सोचिये ज़रा संसद के लिए सरकार के पास वक़्त नही है और देश में जनसभाओ में संसद-संसद चिल्ला रहे हैं।
दरहसल वर्तमान सरकार ताली बजवाने में बहुत विश्वास रखती है जहाँ ताली के बदले आलोचना मिले वह उसे बर्दाश्त नही। जो व्यक्ति लोकतंत्र के मंदिर की चौखट पर माथा टेककर और बाद में संसद से भागकर जनता के बीच बार-बार जाना पसंद करे वह महान नही कायर है जो अपनी सत्ता के गवाने से डरता है। हालिया मामला नोटबंदी से जुड़े सत्र के धुलने का है जिसमें मीडिया आपको चिल्लाकर बता रहा है कि आपके पैसे कैसे बर्बाद हो रहे हैं और सरकार बता रही है कि संसद की कारवाही ठप करने के लिए विपक्ष ज़िम्मेदार है। लेकिन यदि सारे देशहित के मामले सड़क पर ही होने लगे तो फिर संसद का मतलब क्या है?
संसद में तालियाँ नही बजती, जवाबदेही और हिसाबदेही देनी होती है, जिससे सरकार आज या खुद प्रधनमंत्री भाग रहे हैं। यदि संसद में वाद-विवाद, आलोचना, सराहना ख़त्म हो जाएगी तो यह सरकार को तानाशाही सरकार बना देगी। जैसे अभी टैक्स शंशोधन बिल (धन विधेयक,अ-110) बिना विचार-विमर्श के 5 मिनट में पास हो गया। नोटबंदी जैसे मामले पर विपक्ष लगातार प्रधानमंत्री की संसद में मौजूदगी की चाह में रहा। संसद चलने के लिए सरकार का रवैय्या लचीला होना चाहिए और विपक्ष का तेज-तर्रार, लेकिन अब तो यह उल्टा है तो आप समझिये की किसका पैसा, कैसा पैसा, कौन सा टैक्स और संसद को रोक कौन रहा है? पर नोटबंदी की लाइन सीधी रखियेगा…