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पंचायती राज की निरर्थकता

 

जिस भावना से पंचायती राज स्थापित किया गया था क्या वाक़ई वह भावना सिद्ध हुई है…? जहाँ तक मैने इस राज को देखा, भोग और परखा है वहा पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कह सकता हूँ यह राज भ्रष्टाचार का प्रशिक्षण केंद्र है न कि सत्ता का विकेंद्रीकरण।

गुजरात में जगह-जगह स्थानीय चुनाव होने वाले हैं, इनमे मेरा क्षेत्र भी शामिल है, चुनावी तामझाम और जोड़तोड़ शुरू है। बस कुछ दिनों की बात है चुनाव के बाद सारा तमाशा थम जाएगा, तय कर पाना मुश्किल हो जाएगा कि कौन जीता था और कौन हारा, क्योंकि चेहरा तब याद रहता है जब कोई इलाके में आ कर अच्छे बुरे की ख़बर लेता है। यहाँ काम तो कोई होना नहीं है नाही कोई समस्या सुलझने वाली है। हाँ एक काम बहुत लगन से होता है, वह काम है छोटे-बड़े टेंडर पास करवाना और साथ में मोटी रकम भी। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसी लगन से काम भी होता है? जो राशि विकास के कार्य में लगनी थी क्या वह लगी? ऐसा होता तो समस्या ही क्या थी!

पंचायती राज में महिलाओं को आरक्षण भी मिला हुआ है, लेकिन क्या यह आरक्षण महिलाओं को वास्तव में मिला हुआ है? मुझे तो नहीं लगता। इस राज के तहत ऐसी बहुत कम महिलाएं होती है जो खुद सामने आकर चुनाव लड़ती हों या काम करती हों। आरक्षण की मूल भावना का गला घोंटते हुए पुरुष महिलाओं का अधिकार उसी तरह छीन रहे हैं जैसे वह सदियों से करते आए हैं। महिलाओं का सिर्फ और सिर्फ चहेरा होता है सारे अच्छे बुरे काम तो वही मर्द करता है। हमारे समाज में पितृसत्ता की जड़े काफ़ी अंदर तक उतरी हुई है, समाज हो या राजनीति इससे अछूता कोई नहीं है।

मैं पंचायति राज की संकल्पना पर सवाल नहीं उठा रहा बल्कि इसके क्रियान्वयन और इससे जुड़ी समस्या की ओर इशारा कर रहा हूँ। किसी भी लोककल्याणकारी व्यवस्था को बस लागू कर देने भर से कुछ नहीं होगा। इसमें समय के साथ परिवर्तन और परिवर्धन का अवकाश बराबर बना रहता है।

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