हम सब आज जिस दौर में जी रह रहे हैं, क्या उसे सामान्य कहा जा सकता है? कहीं हम लगातार खास तरह के तनाव या डर या खौफ के साए में तो नहीं जी रहे हैं? क्या हम ‘मानसिक आपातकाल’ के दौर में जी रहे हैं? आइए इस सवाल की पड़ताल करते हैं।
हम सब ने ध्यान दिया होगा, जब अचानक कुछ होता है तो दिमाग हमें तुरंत अलर्ट करता है। जैसे- कोई मारने के लिए हाथ उठाता है तो हम झटके से बचने की कोशिश करते हैं या उसका हाथ पकड़ लेते हैं। कोई हिंसक जानवर हमारी ओर दौड़ता है तो हम अपने आप बचने के लिए मुस्तैद हो जाते हैं। कई बार किसी अनहोनी के डर की चेतावनी भी हमें मिल जाती है।
यानी जब कुछ ऐसा होता है, जो आमतौर पर अमन और शांति के दौर में हमारी ज़िंदगी में नहीं होता, तो उस आपात माहौल से हममें जूझने की ताकत पैदा हो जाती है। ऐसी ताकत हमें प्रकृति से हार्मोन की शक्ल में मिली है। विज्ञान की ज़बान में इसे एड्रीनलिन कहते हैं। यह खास तरह का हार्मोन बड़ा करामाती है। यह हमें तुरंत ही लड़ने या बच निकलने की सलाहियत देता है।
जब हम अचानक उतार-चढ़ाव के दौर से गुज़रते हैं या तनाव में आते हैं या खौफज़दा होते हैं, तो हमारा दिमाग तुरंत आगाह करता है। फिर यह हार्मोन सक्रिय होता है। यह हमें किसी भी आपात हालात में सामान्य रहने की सलाहियत पैदा करता है। चूंकि यह आपात हालात में सक्रिय होता है, इसलिए इस दौरान हमारे बदन में खून की रफ्तार बढ़ जाती है। दिल को ज़्यादा काम करना पड़ता है, इसलिए इसकी धड़कन बढ़ जाती है और ब्लड प्रेशर भी बढ़ जाता है।
ऐसे अध्ययन हुए हैं, जहां डर का रिश्ता इस हार्मोन से साफ दिखता है। महिलाओं पर होने वाली हिंसा के खिलाफ काम करने वाले गैरी बार्कर का मानना है कि अगर कोई शख्स लगातार तनाव/हिंसा के माहौल में रह रहा है या किसी तरह डर या शंका का साया है तो उसमें दो हार्मोन बढ़ जाते हैं। ये हैं- कार्टिसोल और एड्रीनलिन। इसे वे डर वाले हार्मोन भी कहते हैं। गैरी बार्कर के मुताबिक, यह ज़रूरी हार्मोन हैं जो हमें खतरों से अलर्ट करते हैं। खतरे या आपात हालत कभी-कभी आएं तब तो गनीमत है पर लगातार ऐसे असमान्य माहौल में रहना, इंसान को सामान्य कैसे रहने देगा? सवाल है, कोई लगातार अलर्ट की हालत में रहे तो उसकी दिमागी दशा क्या होगी?
[envoke_twitter_link]हमारे दौर में मुल्क का बड़ा तबका लगातार अलर्ट की हालत में जी रहा है।[/envoke_twitter_link] पिछले दिनों यह अलर्ट ज़्यादा बड़े रूप में सामने आया है। बैंकों और एटीएम के बाहर लगी लाइनें इस बात की तस्दीक कर रही हैं कि आम लोगों की बड़ी तादाद बेचैन हैं। क्योंकि, अचानक एक दिन पता चलता है कि सबसे ज़्यादा जो मुद्रा बाज़ार में है, वह अब चलन में ही नहीं है, रद्दी हो गई है। जिनके पास थोड़े भी बड़े नोट थे, वे डर गए। वे कम पैसे में ही बड़े लोगों से इसे एक्सचेंज करने लगे। किसी के पास हॉस्पिटल में देने के लिए पैसा नहीं है तो किसी के पास रोज़मर्रा की जिंदगी चलाने का खुदरा नहीं है।
[envoke_twitter_link]फेरी, ठेला, गुमटी लगाने वाली स्त्रियों और मर्दों का धंधा चौपट हो गया है।[/envoke_twitter_link] मज़दूरों को पैसा नहीं मिल रहा है। हमारे मुल्क के बड़े हिस्से में यह शादियों का मौसम है। हमारे समाज में शादियां लगन और अच्छे दिन देख कर होती हैं। अच्छे दिन के लिए तय शादियां टल रही हैं। बैंड-बाजा-टेंट-बावर्ची-घराती-बाराती सब पर तनाव का साया है। यह मौसम नई फसलें बोने का भी है। किसानी का ज़्यादातर काम नकदी में होता है। वह ठप पड़ा है। सब्ज़ी उगाने वाले किसानों के लिए मुनाफा तो दूर लागत निकालने के लाले पड़ गए हैं।
[envoke_twitter_link]हमारे समाज में अब भी काफी बड़ी तादाद बड़े बैंकों से बाहर है।[/envoke_twitter_link] वे अपनी रोज़ की पूंजी किसी सहकारी या स्वयं सहायता समूह या छोटे बचत के लिए बनीं संस्थाओं में जमा करते हैं, वे भी परेशान हैं। अहम बात है कि ये सब अपने ही पैसे के लिए परेशान हैं, सब तनाव और डर के साए में हैं। खासतौर पर गांव-कस्बे वाले ज़्यादा खौफज़दा हैं।
और तो और 70 से ज़्यादा लोगों के मरने की खबरें हैं। इनमें वह बुज़ुर्ग महिला भी है जिसके पास एक हज़ार के दो नोट थे। उसे नोटबंदी इल्म नहीं था, पता चलते ही वह सदमे में मर गई। कई लोगों की जान लाइन में ही चली गई। ये सब हमें खबरों से पता चल रहा है। क्या ये मौतें सामान्य हालात की मौतें कही जाएंगी? क्या हम कह सकते हैं कि इन जान गंवाने वालों को अपने ही पैसे से जुड़ी किसी तरह की चिंता, तनाव, डर या खौफ नहीं था? या वे किसी अनहोनी की आशंका से परेशान नहीं थे?
अपनी ही जमा पूंजी खत्म होने का डर, धंधा चौपट होने का डर, शादी न हो पाने का डर, गेहूं के लिए खेत तैयार न होने का डर, काम छूट जाने का डर, मज़दूरी फंसने का डर, इलाज न हो पाने का डर, बच्चे को क्या खिलाएंगे-इसका डर… क्या ये सब सामान्य हालत हैं? क्या ये आपात हालात एक दिन की थी? क्या यह लगातार तनाव के साए में जिंदगी नहीं है? तनाव में हम कितने दिन रह सकते हैं?
यह तो ताज़ा हालात हैं। मगर हम थोड़ा पीछे भी जाएं तो [envoke_twitter_link]क्या हमारे देश में हालात सामान्य रहे हैं?[/envoke_twitter_link] ऐसा दिखता नहीं है। [envoke_twitter_link]पिछले कुछ सालों में हमारे मुल्क में कई स्तरों पर तनाव काफी तेज़ी से बढ़ा है।[/envoke_twitter_link] इस तनाव का चेहरा सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक और आर्थिक रूपों में हमें अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से दिखाई देता है।
हम ज़रा याद करें, ‘लव जिहाद’ का हल्ला, मुज़फ्फरनगर दंगा, खौफ और इसके इर्द-गिर्द सामाजिक-राजनीतिक गोलबंदी। ‘घर वापसी’ का ज़ोर, गो-हत्या और हिंसा की रफ्तार। नरेन्द्र डाभोलकर, गोविंद पानसारे और एमएम कलबुर्गी की हत्याएं। दलित रोहित वेमूला की मौत, जेएनयू का विवाद और ‘राष्ट्रभक्ति’ का शोर। विश्वविद्यालयों से असहमति को खारिज करने की कोशिश। खास नारे को ही इस ‘राष्ट्रभक्ति’ का पैमाने बनाने का प्रयास। सहिष्णुता और असहिष्णुता का विवाद। देश के माहिर दिमागों को देश के खिलाफ बताने की कोशिश। कश्मीर में हिंसा और सीमा पर तनाव। युद्ध का उन्माद। ‘देशभक्ति’ के नाम पर बोलने की आज़ादी के हक पर रोक की कोशिश। असहमति को राष्ट्रद्रोह बनाने की मुहिम। जंगल-ज़मीन से बेदखल होते और गोलियां खाते आदिवासी। हाल में, दुर्गापूजा और मोहर्रम के दौरान देश भर में चार दर्जन से ज़्यादा जगहों पर साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा। [envoke_twitter_link]हर दिन कोई नया सामाजिक-राजनीतिक विवाद और उसके निशाने पर लोग।[/envoke_twitter_link]
अब आइए, हम कल्पना का सहारा लें। इन हालात में खुद को रखें। अपने आस-पास इन्हें होते हुए महसूस करें। मन को कैसा लग रहा है? क्या ये सब सामान्य है? क्या ये सब तनाव/डर के सबब नहीं हैं? क्या ये सब कुछ पल की बात थी या हैं?
न! ये सब कोई सामान्य हालात की निशानदेही नहीं हैं। न ही इंसान को सामान्य रहने देने की निशानदेही हैं। पहले, यह असमान्य हालात कुछ समुदायों तक सीमित थे। फिर उसका दायरा बढ़ा और हमने ऊना जैसी घटना देखी। झारखण्ड में बड़कागांव का गोलीकांड भी देखा। इसलिए अब इन हालात में रह रहे लोगों की आपात स्थिति से लड़ने के हार्मोन की हालत के बारे में सोचिए। प्रकृति ने जो हार्मोन वक्त-वक्त पर काम आने के लिए दिया है, वह हमेशा काम कर रहा है। वह हमेशा अलर्ट कर रहा है, अलर्ट रख रहा है।
हम मानसिक रूप से हमेशा अलर्ट की हालत में नहीं रह सकते हैं। क्यों? क्योंकि, इन हार्मोन के लगातार बढ़ी हालत में रहने की वजह से अवसाद और नाउम्मीदी घर कर लेती है। हमेशा सब कुछ खो जाने या खत्म हो जाने का अहसास रहता है। व्यवहार में गुस्सा, चिड़चि़ड़ापन, हिंसा बढ़ जाती है। असहिष्णुता बढ़ती है। लखनऊ के संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआई) के एक डॉक्टर का भी कहना है कि एंड्रीनलिन और कार्टिसोल जैसे हार्मोन के लगातार बढ़े रहने की वजह से निश्चित रूप से हमारी मानिसक स्थिति और सामाजिक व्यवहार पर असर पड़ेगा। लगातार डर की हालत असहिष्णुता बढ़ाएगी। इसकी वजह से सामाजिक संतुलन में गड़बड़ी पैदा होगी।
क्या ये सब मानसिक रूप से सेहतमंद होने की निशानी है? क्या यह दशा मानसिक आपातकाल की नहीं है? इसीलिए लगातार अलर्ट की हालत में रहने की वजह से कुछ लोग जान भी गंवा रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम मानसिक आपातकाल के दौर में जी रहे हैं? या जीने के आदी बनाए जा रहे हैं?
मगर क्या हम सब एक जैसे तरीके से इस आपात हालात में ज़िंदगी गुजार रहे हैं? मुमकिन है, हम में से कई लोग लगातार इस हालात में नहीं जी रहे हों। इसीलिए अंत में बड़ा सवाल है, जिन्हें हम ‘दूसरा’ या ‘अपने से अलग’ समुदाय या जाति या समूह मानते हैं, जब तक उनके साथ ‘आपात हालत’ गुज़री तब क्या हममें कुछ हरकत हुई थी? अभी भी हो रही है?…और इन सबके बावजूद अब भी चैन से रहने वाले लोग कौन हैं? क्या हम हैं?
(यह प्रभात खबर में छपे लेख का विस्तार है।)