वह अजीब है, दरअसल काफी अजीब। उसके कपड़े हमेशा गंदले हैं और उनको पहनने का कोई ढंग नहीं है। उससे क्या कि वह हमेशा साड़ी पहनती है। ड़ी से कई इंच ऊपर और पल्लू पता नहीं कहां जाता हुआ, रहस्यमय सा मौन और कभी बंगाली-हिंदी खिचड़ी जुबान में इतनी और ऐसी बातें जो उसके सिवा कोई नहीं भांप पाता। किसी ने आज तक उसका परिवार नहीं देखा, वो अपने पति के बारे में कभी किसी को नहीं बताती। वो ईमानदार ज़रूर है, लेकिन वो जब लोगों के घर काम करती है तो महिलाएं कोशिश करती हैं कि उस वक्त घर पर दो-तीन लोग रहें।
ज़्यादातर को उससे डर लगता है। उनमें से एक के डर की वजह सिर्फ ये है कि उसका रंग गहरा है, गहरा यानी काला, काला यानी न जाने कौन सा समाज, काला यानी गंदगी। काला यानी पैसे की कमी और स्तर की भी, पर यह कालापन उसकी ज़िंदगी का एक सच है। ऐसा सच जिसने उसकी ज़िंदगी में 12 की जगह 24 घंटे की रातें दी हैं, सब अंधेरा और काला। जैसे इसे ब्रह्मांड ने तय किया हो, वो भले ही आवाक हो लेकिन उसके हिस्से बस यही है….कालापन। और उसे भी यही लगता है कि उसके सामान्य या असामान्य होने के बीच बस एक ही कड़ी है और वो है उसका रंग।
वह तकरीबन 45 साल की औरत है, हमेशा “ऐहेहे” के सुर में हंसने वाली। लोगों के घर झाड़ू-पोंछा करने वाली, रोज़गार के लिए अपना घर गांव छोड़ आए लोगों में से एक वह भी है। कोलकाता के किसी गांव की, जो यहां बसकर अपने परिवार का पेट पाल रही है। और हां…. वो एक “पागल” है। वो एक घर से थोड़ा सा सामान ले जा रही है, एक-दो बासी रोटियां, कोल्ड ड्रिंक की खाली बोतलें, घर में बिछाने के लिए कुछ अखबार और कुछ पुराने कपड़े। जाने के लिए गेट पर चप्पल पहन रही थी कि लौट आई। बोली, “ऐ दीदी शुनो एक कागज पर लिख कर दो कि तुमने ये सामान ‘पागली’ को दिया, देदो वरना सोसायटी में गेट पर बाकी लोगों के घर पर घुसने नहीं मिलेगा, सबको लगेगा चोरी का है।”
पूछने पर बोली, “दीदी मैं पागल है न.. इसीलिए सब मुझे पागली-पागली कहते हैं, यहां किसी को मेरा नाम नहीं पता किसी को भी बोलना-लिखना होता है तो बस पागली बोल देते हैं और सब समझ जाते हैं।” (वो अपनी ही बात पर हंसती है) वो लगातार बोल रही है, “तुमसे भी बात करना भोत (बहुत) अच्छा लगता है दीदी लेकिन तुमसे बात करने में शरम लगता है हमको, तुम गोरा है न इसलिए..!!”
उसने मेरा हाथ सामने किया और अपने हाथ से मिलाने लगी बोली, “देखो तुम कितना सुंदर है, गोरा है, एकदम साफ, मैं तो काला है न, मैं क्या करे दीदी। मैंने बहुत कोशिश किया कि मैं गोरा हो जाउं पर नहीं होता दीदी, मैंने भगवान से बहुत प्रार्थना भी की लेकिन…” वो अब भी हंस रही है, कुछ देर चुप होकर बोली, “देखो मैं यहां सोसायटी में इतने घर में जाता है।” अपनी हिंदी-बंगाली खिचड़ी जुबान में वह बोली, “मेरे को कोई ऊपर नहीं बिठाता, सब बोलता है कि नीचे बैठने को, बाकी औरतें तो कुर्सी पर बैठती हैं दीदी। एक घर में काम करने को नहीं मिला दीदी, दूसरे दिन से मना कर दिया, मैं सबको काला लगता है दीदी।” बात जब उसके पागली होने पर आई तो वो खिसियाती सी झेंप में बोली, “दीदी मैं पागल है न!! यहां सबको पता है।”
फिर उसने दोबारा बोलना शुरू किया, “मेरे को पापा का नहीं पता ना दीदी, मेरी मां किसी मरद के साथ थी बहुत समय तक। जब मैं अस्पताल में थी तो वो मुझे छोड़ के चली गई, उसे कभी देखा नहीं। मुझे कुछ भी नहीं पता, मुझे अस्पताल की एक नर्स ने पाला था, मुझे बहुत प्यार किया। जब मैं 17 की हुई ना तब सारे रिश्तेदारों ने मिल कर एक लड़के से शादी मनवाने को मुझसे बात की। बहुत अच्छा लड़का था, गोरा, मेरी उमर का, हम बहोत दिनों बात किए ,मिले। हमारी शादी मनी बहुत धूम-धाम से, फिर दीदी शादी करके ना मैं सो गई। रात को जब मेरी नींद टूटी तो वो मुझे छू रहा था। लेकिन जैसे वो छुआ तो वो किसी लड़के का हाथ नहीं था, वो बूढ़ा था, मेरी शादी की रात को मेरे साथ एक बूढ़ा था। मेरी शादी किसी 50-55 साल के बूढ़े से करा दी दीदी, मुझे अंधेरा छा गया, मैं वहीं बेहोश हो गई।”
“मेरे को ध्यान नहीं है दीदी कि कौन-कौन था, कैसे क्या हुआ। लेकिन मेरे बेहोश होने के बाद कई दिन मैं सदमे में थी, मैं चीखती थी और मैं अस्पताल में थी। लोग मेरा इलाज करा रहे थे, लोग मेरा पागलों वाला इलाज करा रहे थे, मुझे बिस्तर से बांध कर रखा जाता था और पता नहीं क्या-क्या किया मेरे साथ। ऑपरेशन के नाम पर मेरे सिर पर एक चीरा लगाया गया एक कनपटी से होते हुए दूसरी तक।” उसके कान के ऊपर वह निशान साफ देखा जा सकता है।
उसने कहा, “उसके बाद मैं सच में पागल हो गई दीदी, अजीब सा महसूस करने लगी, लोग मुझे तब से पागल कह रहे हैं।” जब उससे पूछा गया कि लोग कहते ही हैं या उसे भी कुछ ऐसा अजीब सा महसूस होता है। उसकी शक्ल पर कोई दुख या अफसोस नहीं था, वह अब भी खिलखिला रही थी, उसे बोलने में मजा आ रहा हो मानो, और यकीनन ऐसा ही था।
वह बोली, “मुझे ना हमेशा बात करने का मन करता है। बात करूं, मैं बात करूं, दिन करूं रात करूं, कोई बात करे तो ठीक वरना अकेले गाने गाती हूं, मुझे नाचना पसंद है और मैं कलकत्ते जाकर बहुत नाचती हूं।” (वो नाचकर दिखाने लगी।) वो बोलती गई.. “मुझे अकेले में डर लगता है, कंपकपी छूटती है इसलिए सब पागली कहते हैं। (वो हंस रही थी) बोली मेरा बुढ़ा है न, वो भी पागल कहता है।” सवाल से पहले ही जवाब आया कि “बूढ़ा मेरा पति ना, वो बहुत बूढ़ा है न काम मेरे को ही करना पड़ता है न। अब सादी(शादी) तो हो गई है न दीदी, अब तो यही चलेगा, मुझे ही काम करना है और कमाना है।”
वो जिन लड़कियों से कभी-कभी बात करती है उन्हें ये सलाह ज़रूर देती है, “सुनो तुम शादी कभी मत करना।” वो अपने शरीर के इर्द गिर्द हाथ लगाकर हैरानी और नफरत के एक भाव से कहती है, “बूढ़ा (पति) मेरे को दीदी यहां हाथ लगाता है, वहां हाथ लगाता है, बहुत बुरा दीदी बहुत (वो अपनी बात पर जोर देती है)। मेरा सादी(शादी) तो मना दिया दीदी इसलिए मुझे तो रहना ही है बूढ़े के साथ, वो कुछ नहीं कमाता, दारू पीता है और घर पर रहता है। मैं उसके ‘साथ’ नहीं रहता है, कोई है उसकी जान पहचान में वो उसी के साथ रहता है। उसी के कमरे में, मेरा पैसा भी छीन लेता है दीदी, दोनों-के-दोनों। पर मैं कहां जाए अब इस उमर में, कमाना तो है, अपने लिए भी और उसके लिए भी। अब तो मैं भी बूढ़ा हो गया है न दीदी अब कितनी जिंदगी बची है मेरी।”
वो सुस्ता रही है। कमरे में कई परतें जम गई हैं, कई उसके कह लेने की राहतों की। बहुत सारी सुनने वाली की टीस की,दर्द की, अफसोस की। कई सारे शब्दों की, हकीकतों की, साझा महसूस होते दुख और मजबूरियों की। न जाने क्या-क्या तैर रहा है इस पल के चुप में, हम, हमारी गहराइयां, हमारा उथलापन। भीतर, बाहर, समाज, लोग, हमारे रिश्ते, हमारा आसपास। उसका सच, उसका कहा, उसका बिन कहा, सुना, सुनने से बचा हुआ। अनंत तक गड्डमड्ड होते ख़याल बुनते बिगड़ते तैर रहे हैं।
वो अचानक उठी और नाचते हुए बोली, “तुम अच्छा है दीदी, तुमसे बहुत बात किया मैं आज। तुम मुझसे फिर बात करेगा ना, अभी मैं जाउं?” ऑफिस की डायरी से एक पन्ना फटा और उस पर लिखा गया…“पागली को सामान दिया गया..हाउस नंबर 201..।”