मेरा एक दोस्त बना फेसबुक पर। दोस्त क्या था, वो आईआईटी दिल्ली का एक लड़का था। वो कई बार अपनी दिक्कतें बताता रहता था, उन लड़कियों के बारे में जिन्हे वो डेट कर रहा था। वो मुझे अक्सर बताता था कि वो डेटिंग ऐप ‘टिंडर’ पर लड़कियों को खोज रहा है और कई लड़कियों से मिल रहा है। मुझे उस पर तरस आता था, मैं उसमें खुद को देख पाती थी। एक हड़बड़ाया सा बच्चा जो किसी के साथ बैठने, बात करने को मरा जा रहा है, पर कोई है नहीं।
लड़कों के दोस्त इमोशनल हों, ये थोड़ा कम ही होता है। तो उसे लगा कि कोई लड़की मिल जाए, कोई प्यार, उसे लगा प्यार ढूंढ़ा जा सकता है। तो वो भी खोज रहा है, पता नहीं क्या? एक जगह शायद, कोई खाली दीवार जहां वो कुछ भी लिख दे जाकर और उसे तसल्ली मिल जाए। वो तसल्ली का एक कोना खोज रहा है। तो मुझे लगा कि शायद मैं उसे थोड़ा सहज हो सकने के बारे में बात कर सकूँ। शायद मैं ही उसकी वो दोस्त बन सकूं, जहां वो बहुत सारी बातें कह सकता हो। कारण मुझे नहीं पता। मैं उससे कभी मिली नहीं, फ़ोन पर दो बार बातचीत हुई, पर मुझे लिखे में सच्चाई दिखती है। मुझे लगा कि जितनी बात उसने मुझसे की है उसमें झूठ नहीं हैं, बनावट नहीं हैं। बस इसी तरह बातचीत हुई, होती रही, अब भी हो रही है।
एक दिन मैंने उससे कहा कि तुम टिंडर जैसे ऐप पर लोगों को कैसे खोज सकते हो? मुझे हैरत हुई कि हमारे आस-पास इतने अकेले लोग हैं कि ऐप पर लोगों को खोज रहे हैं। हालांकि मैंने उससे कुछ कहा नहीं, वो फिर किसी लड़की से मिलने जा रहा है और मैंने बस इतना ही कहा… बेस्ट ऑफ लक, खैर।
उससे बात करने के बाद मुझे लगा कि क्यों न देखा जाए कि टिंडर जैसे ऐप पर कैसे लोग हैं। वो कौन लोग हैं जो ऐप पर लॉग इन किये होते हैं। मैंने ऐप पर लॉग इन किया, लोगों से बातचीत की। व्हाट्सएप पर नम्बर बदले और मुझे हैरानी हुई, क्यूंकि बहुत ही दिलचस्प लोग मिले। वो भी नॉर्मल से ही लोग थे, जो भयानक रूप से डेस्परेट नहीं थे। वो न किसी का रेप करने निकले थे और ना ही किसी का मर्डर प्लान करके लॉग इन नहीं किये हुए थे। पर ऐप का नाम सुनके पहली बार में दरअसल ऐसे ही ख़याल आते हैं।
ऐप पर कई दिन बाद जो पहला दोस्त बना वो कन्नड़ फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर था, क्रिएटिव पर्सन। उससे फिल्मों पर बात करा लो, किताबों पर बात करा लो, म्यूज़िक पर, कल्चर पर, एक्टिंग पर, लोगों पर, प्रेम पर। हम बात करते रहे, फिर मुझे लगा दफ्तर के पास एक सिगरेट के लिए मिलना बुरा नहीं है। तो हम मिले हमने जेएनयू के बारे में लम्बी बातें की, लोगों के बारे में, उसके घर के बारे में, उसकी पहली सरकारी नौकरी के बारे में बातें की।
[envoke_twitter_link]उसे अजीब लगा जब एक कैफे कम सुट्टा पॉइंट पर मैंने बिल पे किया।[/envoke_twitter_link] मैं हैरान हुई जब वो अपनी बातों में काफ्का, मार्खेज, शेक्सपियर, अर्नेस्ट हमिंग्वे की बात करता रहा। न सिर्फ ज़िक्र बल्कि वो उनकी किताबों के कुछ हिस्से बताता रहा। उसने गांधी पर बात की, उसने कुछ किताबों और नाटकों के बारे में बताया। उसने कहा कि तुम्हे कन्नड़ आती तो मैं तुम्हें बहुत सा साहित्य पढ़ाता। मैंने उसे बता दिया कि मैं कोई पार्टनर नहीं खोज रही हूं। वो खुश है कि उसे एक नया दोस्त मिला और मैं भी।
थोड़ा अजीब है नहीं? मैं कितने लोगों को बता सकती हूं कि टिंडर से मिले एक लड़के के साथ बैठकर एक अजनबी शहर में मैं काफ्का और गांधी पर बात कर रही थी। खैर इस टिंडर वाले दोस्त के दो और दोस्त हैं, तो हम चारों मिलें। उनमें से एक लड़का, बैंगलोर का फेमस स्ट्रीट आर्टिस्ट है जो सड़कों के मैन होल्स पर कभी मगरमच्छ बना देता है तो कभी कोई दूसरी पेंटिंग। बहुत चुप रहने वाला लड़का है। ज़्यादा बात नहीं की, पर मुझे हैरानी हुई इस इत्तेफाक से कि उसका काम लाजवाब है। अगर नहीं पता हो तो गूगल पर ‘बैंगलोर आर्टिस्ट बादल’ के नाम से खोज सकते हो।
मुझे ख़ुशी हुई कि मैं किसी आर्टिस्ट से मिल सकी। हम सब नीरजा देखने के लिए मिले थे। कई सारी बातों में उसने एक फिल्म का नाम लिया। ‘वाइल्ड टेल्स’, 6 शार्ट स्टोरीज की एक कहानी। और मुझे अचानक लगा कि हम भी थोड़े से दोस्त बन गए। एक और धांसू स्मार्ट लड़का हमारे बीच था, टिंडर वाले दोस्त का रूममेट। कन्नड़ फिल्मों में एक्टर है, भला सा है। मैं, टिंडर वाला दोस्त, दोस्त का रूममेट और उसका दोस्त बादल(स्ट्रीट आर्टिस्ट) हम चारों ने सड़क पर चाय-सिगरेट पी और बात की अपने-अपने घरों की, फिल्मों की, बंगलोर की और साथ में फिल्म देखी, फिल्म कि बुराई की और घर लौट आये।
बहुत अजीब है। कभी-कभी थोड़ा डर भी लगता है, इस तरह अजनबी लोगों से मिलने में। लेकिन अब हम दोस्त से बन गए हैं। हालांकि मैं अब भी मिलने से पहले ऐसी ही जगह के बारे में सोचती हूं जहां शाम होने से पहले थोड़ी देर के लिए मिला भर जा सके। हम जहां जी रहे हैं मुझे ये कहने में अजीब नहीं लग रहा कि डर हमेशा लगता ही है और शायद ज़्यादातर लोग बिना कहे इस बात को महसूस करते भी हैं, मैं खुद भी।
लेकिन फिर भी, लोगों से इस तरह मिलना अजीब भी है और अच्छा भी। कुछ दोस्त बन गए हैं यहां, जिनसे कम से कम बात की जा सकती है। पहले कभी-कभी एकदम से अकेला लगता था। अब लगता है, चलो किसी को तो जानते हो। फिर जब टिंडर याद आता है तो अजीब सा लगता है, यकीन नहीं होता। खैर कभी-कभी वो आईआईटी वाला दोस्त मज़ाक में पूछ लेता है, “कोई मिला क्या टिंडर पर?” मैंने उसे ज़्यादा बताया नहीं, समझ नहीं आया क्या बताऊं।
मुझे लगता है कि एक शहर जहां आपको कोई न जानता हो, सबसे बड़े सुखों में से एक है। हालांकि टिंडर पर दोस्त खोजने की बात कितनी बेवकूफी भरी है मुझे नहीं पता। पर मेरे लिए उतनी तो है कि मैं किसी को इस बारे में बता नहीं पायी। हालांकि मैं लॉग इन अब भी हूं… टिंडर पर!