Site icon Youth Ki Awaaz

महिलाओं का गाड़ी चलाना अभी भी क्यों नहीं पचा पाता है समाज

दिल्ली की सड़कों पर मुझे उतनी महिलाएं गाड़ी चलाती नहीं दिखतीं जितनी शायद मैं देखना चाहती हूं। ज़्यादातर अब भी साइड या पीछे की सीट पर ही होती हैं, देर रात बहुत कम महिलाएं ही सड़कों पर नज़र आती हैं और बाहरी सड़कों पर इनकी मौजूदगी ना के बराबर होती है। कारण कई हैं और सूझ-बूझ यही कहती है कि वर्क-फोर्स या कुल श्रम-बल में महिलाओं की संख्या 25% से भी कम होने के कारण मुझे यह उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। इसके अलावा जो औरतें काम करती हैं उनमें से भी बहुत सी अपने कमाए पैसे अपनी मर्ज़ी से खर्च नहीं कर पातीं और जो कर पाती हैं, उनमें से बहुत सारी गाड़ी खरीदने जैसे बड़े फैसले लेने को आज़ाद नहीं होती। यूं भी हमारी सड़कें महिला वाहन-चालकों के लिए खासी असुरक्षित ही हैं।

सड़क की कहानी के पीछे का अर्थशास्त्र

हमारे समाज में आज भी ऐसी महिलाओं की तादाद बहुत ज़्यादा है जिनके अपने बैंक-खाते, लॉकर, सेविंग डिपॉज़िट्स आदि नहीं हैं। उस तबके में भी जहां महिलाएं इतना काम रही हैं कि गाड़ी खरीद सकती हैं, या दहेज में गाड़ियां साथ लाती हैं, अक्सर यह देखा जाता है कि महिलाएं ऑटो/मेट्रो/बस से चल रही हैं जब कि परिवार के पुरुष गाड़ी से चला रहे हैं। इससे भी ऊपर वाले तबके में जहां महिलाओं के आर्थिक हालात और बेहतर हैं, वहां भी गाड़ी से चलने वाली ज़्यादातर महिलाऐं पीछे की सीट पर ही नज़र आती हैं, व्हील पर नहीं। इसके लिए जितना रूढ़िवादी सामाजिक रवैय्या ज़िम्मेदार है उतना ही महिलाओं द्वारा इस सोच का अनुसरण और पालन भी है।

यह भी दुखद ही है कि बहुत कम सड़कें या गलियां ऐसी हैं जिनके नाम महिलाओं के नाम पर हैं, ऐसा नहीं है कि सड़कों के नाम महिलाओं के नाम पर होने से सड़कें ज़्यादा सुरक्षित हो जाएंगी मगर ऐसा ना होना हमें सड़क पर आते ही यह सन्देश देता है कि यह हमारी जगह नहीं है, यहां हमारा स्वागत नहीं है। कहा जाता है कि दिल्ली जैसे बड़े शहरों में सूरज कभी नहीं ढलता मगर दिल्ली कि महिला चालकों के लिए ‘सूर्यास्त’ आज भी एक अहम लफ्ज़ है।

हमारी बहुत सी सड़कों पर रौशनी और सुरक्षा के ज़रूरी प्रबंध नहीं हैं और आउटर रिंग रोड जैसी बाहरी सड़कें शाम के बाद महिलाओं के लिए काफी असुरक्षित हो जाती हैं। इसके अलावा इन सड़कों पर महिला चालकों के लिए आम रवैय्या अभद्र और असहनशील ही है और महिलाओं की वाहन-चालन क्षमता को लेकर दूसरों के मन में कई पूर्वाग्रह रहते हैं, उदाहरण के तौर पर यह कि महिलाएं गाड़ी को ठीक से रिवर्स और पार्क नहीं कर पातीं।

दिल्ली कि सड़कों पर गाड़ी चलाना इसलिए भी एक बड़ा ‘मर्दाना’ काम है कि यहां साइज़ बहुत मायने रखता है। महिला चालक अक्सर छोटी गाड़ियां चला रही होती हैं या स्कूटी इत्यादि और उनके साथ स्कूली बच्चों के अंदाज़ में रेस लगा रही होती हैं मर्क- बी ऍम डब्लूज़, अंतर-राज्य बसें, ट्रक और डीटीसी की भीमकाय लो -फ्लोर गाड़ियां, जो आपको ओवरटेक करने के बाद कुछ इस तरह  दांत निकालकर मुड़कर आपको देखते हैं जैसे उन्होंने आपसे अपना ‘अधिकार’ वापस ले लिया हो।

 सड़क सुरक्षा से जुड़े मुद्दे और पितृसत्तावाद

इसके अलावा सड़कों पर महिला कॉन्स्टेबल्स की तादात बहुत कम है और ऐसी पीसीआर वैन्स की भी जो आपातकालीन स्थिति में मदद कर सकें। सड़कों पर महिलाओं के लिए साफ और सुरक्षित शौचालय भी ना के बराबर हैं, जिसके कारण ना सिर्फ वाहन-चालकों को बल्कि सड़कों पर नियुक्त महिला कॉन्स्टेबल्स को भी दिक्कत होती है। हालांकि ऐसी महिलाओं की तादात शायद बहुत ज़्यादा ना हो मगर वे महिलाएं जो सड़क के किनारे गाड़ी रोककर सिगरेट खरीदना चाहें या गाड़ी को कहीं साइड लगाकर कोई ज़रूरी फोन-कॉल ही अटेंड करना चाहें, आप ही सोचिये ऐसा करना कितना सुरक्षित होगा? एक तो वह पितृसत्तात्मक सामाजिक सोच है जो इनपर सही-गलत अच्छी-बुरी का मोर्चा खोल देगी और दूसरे वो अपराधी जो घात लगाए बैठे हैं।

हालांकि आज़ाद, वीमेन बिहाइंड दा व्हील, ओला पिंक और मेरु ईव जैसे प्रयास किये जा रहे हैं, लेकिन हमारी सड़कों पर महिला चालकों की संख्या कुल मिलकर निराशाजनक ही है।

इन हालात में अगर महिलाएं धीमे या एहतियात से गाड़ी चलाएं तो भी यही सुनने को मिलता है कि वे पुरुषों जैसे कॉन्फिडेंस से गाड़ी नहीं चलातीं। मगर साहब! हम एहतियात क्यों न करें? आखिर समाज ने हमें हमेशा यही सिखाया है कि बाद में पछताने से एहतियात बेहतर है।

आगे का रास्ता

अंततः, भले ही दिल्ली की सड़कों पर गाड़ी चलाना महिलाओं के लिए एक खतरों भरा खेल है मगर मैं फिर भी इन सड़कों पर और ज़्यादा औरतों को देखना चाहूंगी और ज़्यादा महिला वाहन चालाक, और ज़्यादा वीमेन बाइकर और कार रैलीज़, और ज़्यादा बेबाकी और आत्मविश्वास से गाड़ी चलती औरतें, और यूं ही रात-बेरात, अंधेरे-उजालों में सड़कों पर घूमती-फिरती औरतें; मॉरल-पुलिसिंग, सेक्सिज़्म और पितृसत्ता को धता बताती औरतें। जब तक सरकारें इन सड़कों को औरतों की आमद के लिए तैयार करती हैं, परिवारों और अकादमिक संस्थाओं के तौर पर हमें एक दूसरा ज़रूरी काम करना होगा- अपनी लड़कियों और औरतों को इन सड़कों के लिए तैयार करने का।

Exit mobile version