“ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में/मुसलसल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में”
– अदम गोंडवी
ग़ज़ल शबनम की बूंदों से गुलाब की पंखुड़ियों पर महबूब का नाम लिखने को कहते हैं, ग़ज़ल पत्थर पर नाखूनों से महबूब का नाम कुरेदने में आमल है। ये ग़ज़ल की शुरुआती परिभाषाएं हैं। शायर या तो मयखाने में बैठा मिलता या फिर नशे में धुत होकर अपने महबूब की आंखों में झांकता रहता। हुस्न, जुल्फों, अंगड़ाईयों, और आंखों को अपनी ग़ज़ल का मौजूं बना लेता। लेकिन बाद के शायरों में फ़ैज़, साहिर, जोश, वामिक़ और अन्य बहुत से शायर भी हुये जिन्होंने शायरी को आवाम के दर्द से जोड़ा, तो दुष्यंत कुमार ने हिंदी में ग़ज़लों में राजनीति की परंपरा की शुरूआत की। दुष्यंत कुमार के हिंदी ग़ज़लों की उस परंपरा को आगे बढ़ाया अदम गोंडवी ने।
अदम गोंडवी की ग़ज़लों के फलसफे के दो आधार मुझे मालूम होते हैं। कुछ ग़ज़ल, ग़ज़ल की पुरानी रवायत को लेकर लिखी गयी है जिसका एक फिक्स्ड फ्रेम हुआ करता था। इसी फ्रेम से शायरों को बाहर निकलकर आवाम की संवेदनाओं को ग़ज़ल के माध्यम से व्यक्त करने की बात अदम कहते हैं। दूसरा आधार पूरी तरह से राजनीतिक है। राजनीति का हस्तक्षेप हर क्षेत्र में रहा है जो पहले से और बढ़ा है। तब एक शायर का अपनी शायरी में राजनीति करना, नीतियों की आलोचना करना स्वाभाविक है। जनकवि की कलम हमेशा सत्ता के विपक्ष में ही होती है, क्योंकि कवि को पता होता है कि सत्ता का चरित्र दमन का होता है। इसीलिए अदम कहते हैं “मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में/ पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो।”
अदम गोंडवी भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलने की बात करते हैं। जो दो वक्त की रोटी के लिये सुबह से लेकर शाम तक काम कर रहा है, उसे मोहब्बत का वक्त कहां है। एक वक्त की रोटी के इंतजामात के बाद दूसरे वक्त की चिंता रहती है, “ज़ुल्फ़-अंगडाई-तबस्सुम-चांद-आईना-गुलाब/भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब/पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी/इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की क़िताब।”
अदम ग़ज़ल की पुरानी रवायत के अदबी इदारों से शायरों को निकलकर ग़ज़ल को भूख के एहसास और बेवा के माथे की शिकन तक ले चलने को तो कहते ही हैं, साथ ही साथ उनको नसीहत भी देते हैं, “भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो/या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो/ जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी/ उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।” कवि के कंधे पर समाज का भार है। शायर की नज़र जहां पड़ती है शायर उसे ही अपनी ग़ज़ल का मौजूं बना लेता है। शायर का कर्म ही यही होता है। [envoke_twitter_link]शायर कल्पनालोक में बैठकर ग़ज़ल नहीं लिखता, बल्कि आस-पास की बारीक से बारीक घटनाओं पर उसकी निगाह है।[/envoke_twitter_link] शायर कह रहा है, “घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है/बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है।”
कवि विद्रोही ने अपनी कविताओं में खुद को बचाने की बात कही है, “क्योंकि मुझको बचाना उस औरत को बचाना है/जिसकी लाश मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी पर पड़ी है/मुझको बचाना उन इंसानों को बचाना है/जिनकी हड्डियां तालाब में बिखरी पड़ी हैं/मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है/मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है/तुम मुझे बचाओ!/मैं तुम्हारा कवि हूं।” यही बात अदम ने अपनी ग़ज़ल में ‘धूमिल’ की विरासत को बचाने के लिये नयी पीढ़ी से गुजारिश करते हैं। शायर भलीभाँति जानता है कि धूमिल की परंपरा की कविता ही सत्ता से मोर्चा ले सकती है, “अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है/सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से।”
वर्ण व्यवस्था जिसमें शूद्र को सबसे नीचे रखा गया। शूद्रों को अछूत बनाया गया, जिसको तमाम धर्म शास्त्रों ने जायज़ बताया है। भीमराव अंबेडकर ने भी दलितों से इन वेदों का बहिष्कार करने को कहा था, भीमराव अंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाया था। हिंदू धर्म की बुनियाद ही है जाति व्यवस्था। इसीलिए भीमराव अंबेडकर ने हिंदू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म अपनाया था। अदम गोंडवी ने भी ग़ज़ल के माध्यम से कहा है कि उस आस्था, विश्वास, व्यवस्था और इतिहास को लेकर दलित-आदिवासी क्या करें जिसमें उनका वजूद हाशिए से भी बाहर हैं। “वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं/ वे अभागे आस्था विश्वास ले कर क्या करें/ लोकरंजन हो जहां शंबूक-वध की आड़ में/उस व्यवस्था का घृणित इतिहास ले कर क्या करें।”
भूमण्डलीकरण के बाद आवारा पूंजी बेरोकटोक एक देश से दूसरे देश तक आने जाने लगी। गरीबी से लड़ने और विकास करने के नाम पर श्रम कानूनों को लचीला बनाया जाने लगा। उदारीकरण और निजीकरण ने ग़रीबी तो कम नहीं किया, लेकिन लाखों बेरोजगार नौजवानों की फौज जरूर खड़ी कर दी और बेरोजगार नौजवान आज आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। पश्चिमी देशों से आयी आवारा पूंजी ने सिनेमा में अश्लीलता को बढ़ाया साथ ही उपभोक्तावाद की खुराक भी नौजवानों को दी, जिस पूंजी का स्वागत बाहों को फैलाये हमारे गणमान्यों ने किया था। “इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया/ सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फ़ास की।”
जब-जब सत्ता बदलती है, तब-तब इतिहास के पुनर्लेखन की कवायद शुरू हो जाती है। इसी देश में इतिहासकारों की किताबों को जलाया जा चुका है, इतिहासकारों को यूरो-इंडियन कहा गया है। इतिहास को बदलकर अपने हिसाब से सत्ता ने लिखवाया है, जिसमें मुसलमानों को विलेन की तरह पेश भी किया गया है। हैरत की बात नहीं है अगर देश का प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से बारह सौ वर्ष की गुलामी का ज़िक्र करता है। ज़ाहिर सी बात है इस परिघटना का असर शायर की कलम पर पड़ना ही था। आज की राजनीति को सामने रख लीजिए तब देखिए कि सालों पहले अदम की इस ग़ज़ल का सन्दर्भ क्या रहा होगा – “गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे/ क्या इनसे किसी कौम की तक़दीर बदल दोगे/ जायज़ से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आई/ मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे?/ जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में/ क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे?”
उनके पहले संग्रह में मंगलेश डबराल ने लिखा था, “उनकी एक बहुत लंबी कविता 1982 के आसपास लखनऊ के अमृतप्रभात में प्रकाशित हुई थी ‘मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको’। कविता एक सच्ची घटना पर आधारित थी। कविता जमींदारी उत्पीड़न और आतंक की एक भीषण तस्वीर प्रस्तुत बनाती थी। उसमें बलात्कार की शिकार हरिजन युवती को नयी मोनालिसा कहा गया था। एक रचनात्मक गुस्से और आवेग से भरी कविता को पढ़ते हुए लगता था जैसे कोई कहानी या उपन्यास पढ़ रहे हों। कहानी में पद्य या कविता तो अकसर वही कहानियां प्रभावशाली कही जाती रहीं हैं, जिनमें कविता की सी सघनता हो- लेकिन कविता में एक सीधी-सच्ची,गैर आधुनिकतावादी ढंग की कहानी शायद पहली बार इस तरह प्रकट हुई थी।”
राजनीति पर व्यंग्यात्मक कविताओं/ग़ज़लों की अगर एक श्रृंखला बनायी जाए तो अदम की इस ग़ज़ल को ज़रूर शामिल किया जायेगा
“तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे/आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे/एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए/चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे।”
आंकड़ों के बाज़ीगर अपने आंकड़ों में विकास की बढ़ती दर को तो दिखा देते हैं, लेकिन विकास की इस बढ़ती दर ने किसान, मजदूर की आत्महत्या की दर को बढ़ा दिया है। जीडीपी तो बढ़ रही है लेकिन दूसरी तरफ वो बेरोजगारी से हताश नौजवान हैं जो प्राइवेट कंपनियों के दरवाजे पर लाखों की संख्या में लाइन में खड़े हैं। आज के पेशनज़र में इस ग़ज़ल को देखिए, यकीनन आप महसूस करेंगे कि ये ग़ज़ल अभी-अभी लिखी गई है। “तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है/ मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है/ उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो/ इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है/ लगी है होड़ – सी देखो अमीरी औ गरीबी में/ ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है/ तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के/यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है।”
एक पाठक अगर अदम गोंडवी के ग़ज़ल संग्रहों का कोई सफ़ा कहीं से पलटेगा तो उसे हिंदुस्तान की असल तस्वीर दिखाई देगी। अदम की ग़ज़लें पाठकों को आह-वाह करने का मौका नहीं देती। ग़ज़लों में ऐसा व्यंग्य है जिससे पाठक जुड़ जाते हैं और एक-एक मिसरा उनके सामने सवाल खड़ा करता है। “वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है/उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है/इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का/उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।”
हिंदुस्तान को आज़ाद हुए सत्तर साल होने को आए हैं लेकिन इन्हीं सत्तर सालों में गरीबी-अमीरी के बीच की खाई और चौड़ी हो गयी है और इस खाई में रोज न जाने कितने गिरकर अपनी जान गंवा देते हैं। राजनीति का मतलब ठेकेदारी हो गयी है। महंगाई राजनीति का मुद्दा बनती है लेकिन महंगाई तो कम होती नहीं और बढ़ जाती है। इस व्यंग्य को देखिए- “[envoke_twitter_link]जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे/कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे[/envoke_twitter_link]/ये वन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर/मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे।”
अदम के बारे में सुरेश सलिल लिखते हैं, “जैसा मैंने अदम को पहली बार देखा था. बिवाई पड़े पांवों में चमरौंधा जूता , मैली सी धोती और मैला ही कुरता, हल की मूठ थाम-थाम सख्त और खुरदुरे पड़ चुके हाथ और कंधे पर अंगोछा। यह खाका ठेठ हिन्दुस्तानी का ही नहीं, जनकवि अदम गोंडवी का भी है, जो पेशे से किसान हैं। दिल्ली की चकाचौंध से सैकडों कोस दूर, गोंडा के आटा-परसपुर गांव में खेती करके जीवन गुजारने वाले इस ‘जनता के आदमी’ की ग़ज़लें और नज़्में समकालीन हिन्दी साहित्य और निज़ाम के सामने एक चुनौती की तरह दरपेश है।”