‘पहाड़’ शब्द ही अपने अर्थ में बहुत कुछ समेटे हुए है। पहाड़ मतलब कठिन, बहुत मुश्किल तो कैसे हम उम्मीद कर सकते हैं कि पहाड़ की ज़िन्दगी आसान होगी? ये मुश्किलें तब और बढ़ जाती हैं जब संसाधन कम हो जाते हैं। उत्तराखंड और कई पहाड़ी राज्य पलायन की मुख्य समस्या से ग्रसित हैं, लेकिन यह एक यक्ष प्रश्न है कि इस समस्या से निबटने के लिए प्रयास कितने हो रहे हैं!
आज से तकरीबन 3 साल पहले एक अखबार के कराए गये सर्वे के अनुसार हर दिन 64 लोग पहाड़ों को छोड़कर शहरों की तरफ बढ़ रहे हैं। कई सौ गांवो में ताले लगे हुए हैं, हज़ारों मकान खंडहरों में तब्दील हो रहे हैं। उत्तराखंड का बोझ पहाड़ों से हटकर देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश, हल्द्वानी, नैनीताल, काशीपुर जैसी जगहों पर बढ़ रहा है। 9 नबम्बर 2000 को उत्तराखंड बना और सारे मुद्दों को पीछे करते हुए पलायन ने अपनी पकड़ और जकड़ दोनों ही अच्छी खासी बना ली।
मैंने कभी पलायन को मुख्य मुद्दा नहीं माना, पलायन वजह नहीं बल्कि एक प्रभाव है। उदाहरण के लिए अगर एक खेत में अच्छी मिट्टी, खाद, पानी की सही मात्रा न हो, बाहर का तापमान अनियंत्रित हो और वहां पर एक फसल उगा दी जाए तो क्या वहां पर फसल होगी? कारण खाद, मिट्टी, तापमान, पानी हैं और उस का प्रभाव फसल का न होना। यही बात पलायन पर भी लागू होती है। किसी एक जगह पर सही से पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा, खेती, स्वास्थ्य, रोज़गार के लिए संसाधन नहीं होंगे तो नतीजा पलायन के रूप में ही बाहर आएगा। हमें पलायन को रोकने के लिए कारणों का निवारण करना होगा। पलायन खुदबखुद रुक जाएगा।
मुद्दों की बात करें तो शिक्षा से ही शुरू करते हैं। हमारे पहाड़ प्रसिद्ध रहे हैं नकल के केन्द्रों के रूप में। सड़क से कई किलोमीटर दूर पहाड़ की चोटियों में स्थित राजकीय इंटर कॉलेजों ने, नकल से आये 80%, 90% की जो फसल पैदा की है वो शहर के बच्चों से कॉम्पीटिशन करने में धराशाई हो जाते हैं। तो जैसे ही कोई परिवार थोड़ा ठीक-ठाक स्थिति में पहुंचता है तो चाहे वो खुद शहर का रुख न करे पर वो अपने बच्चों को शहरों में भेज देता है। उच्च शिक्षा की बात करें तो देहरादून के अलावा उंगलियों में गिनने लायक अच्छे शिक्षन संस्थान हैं और जो हैं वहां की शिक्षा का स्तर पूरी तरह से शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाने के लिए काफी है।
कृषि योग्य भूमि का कम होना और साथ में हमारे परम्परागत अनाज को उसका उचित स्थान न मिलना भी पलायन का एक महत्वपूर्ण कारण है। उत्तराखंड के उन किसानों पर किसी का ध्यान नहीं जाता जो कभी जौ, बाजरा, कोदा, झंगोरा उगाते थे और उस खेती का सही लागत मूल्य न मिलने के कारण उन्होंने इसे उगाना ही छोड़ दिया। सरकार चाहे तो यहां के परम्परागत अनाज का सही लागत मूल्य जारी कर पलायन रोकने के लिए एक अच्छा कदम उठा सकती है।
पहाड़ में पले-बढ़े बच्चे स्वरोज़गार के बारे में ज़्यादा नहीं सोच पाते और सोचें भी कैसे कभी उन्हें इस बात के लिए सरकार द्वारा सही प्लेटफ़ॉर्म ही नहीं दिया गया। विषम भू-भाग की दिक्कतों के चलते पहाड़ों में भारी उद्योग नहीं लग सकते पर लघु उद्योगों के लिए पहाड़ जो कि एक अच्छा प्लेटफ़ॉर्म हो सकते थे, वो सरकार की उदासीनता की भेंट चढ़ गये। सरकार वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली स्वरोज़गार योजना के साथ ड्राईवर बनने में ही साथ दे पाती है, इस से ज़्यादा कुछ नहीं?
स्वास्थ्य की समस्या से हमारे पहाड़ जूझ रहे हैं। डॉक्टर तो हैं नहीं साथ ही पैरामेडिकल और फार्मेसी स्टाफ की भी बेहद कमी है। 108 एम्बुलेंस हमारे लिए जीवनदायनी ज़रूर साबित हुई पर पी.पी.पी. मॉडल का यह खेल बहुत से सवाल भी छोड़ता है। प्राथमिक उपचार की सुविधाओं की कमी सरकार को दिखाने के लिए काफी है। किसी भी केस के लिए हमें सीधे देहरादून दौड़ना पड़ रहा है, इस से बढ़ कर हमारा दुर्भाग्य क्या होगा?
देव भूमि का हमें तमगा हासिल है, अपने तीर्थ स्थलों पर हम गर्व करते हैं पर यह पूरा सिस्टम इतना अव्यवस्थित है कि हम इससे अच्छा रोज़गार नहीं जुटा पा रहे हैं। पर्यटन की दृष्टी से हम बहुत निम्न स्तर के सेवा देने वालों में गिने जाते हैं। कई लोग इस सोच से घिरे दिखते हैं कि ये पर्यटक आज आया है इसे जितना लूटना हैं आज ही देख लेते हैं क्यूंकि कल किसने देखा है। ठोस योजनाओं की कमी के चलते हम तो इस बात का भी ढंग से काउंट नहीं रख पाते कि हमारे यहां कितने पर्यटक आये, बाकि की बातें तो फिर बहुत दूर की हैं।
कृषि प्रधान देश होने के नाते कई सीखें विरासत में हमें मिली हैं, पर हम उनका सही से प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। हमारे खेत छोटे हैं, बिखरे पड़े हैं और जहां गांवों में पलायन हो चुका है वहां खेत बंजर और खाली पड़े हैं। सरकार चाहे तो एक सुदृढ़ योजना बना कर उस बंजर या खाली पड़ी कृषि योग्य भूमि पर वैज्ञानिक तरीकों से कृषि करवा सकती है। यह कई स्तर पर रोज़गार बढ़ाने का प्रयास हो सकता है। पाली हाउस तकनीकों से ज़्यादा से ज़्यादा सब्ज़ियां उगाने पर ध्यान दिया जा सकता है। हिमाचल हमारे लिए एक उदाहरण है कि कैसे वहां कृषि को फलों की तरफ मोड़ कर समृद्धि हासिल की गयी।
पलायन को मात देनी है तो इसके कुछ चरण हो सकतें हैं और इसके पहले चरण में उन लोगों को रोकना होगा जो कम पढ़े-लिखें हैं। अगर इनके रोज़गार के साधन यहीं पैदा हो जाएं तो अगले चरण में हम तकनीकी कौशल संपन्न लोगों को रोक सकते हैं। काफी बातों के लिए हमने सरकार की ज़िम्मेदारी तय कर दी पर अपने गिरेबान में झांक कर देखिये कि हमने कैसा सामजिक ताना-बाना बनाया था? जातिगत आधार हो या देशी-पहाड़ी की लड़ाई, इसमें जीता चाहे कोई भी हो पर हारा सिर्फ पहाड़ ही है। निम्न स्तरीय राजनीति के शिकार हम लोगों ने ऐसे लोगों को सत्ता दी है, जिन्होंने हमें बर्बादी के मुहाने पर खड़ा किया है।
बल्ली सिंह चीमा के प्रसिद्ध गाने “ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के” की धुन पर एक होकर कई लोगों आन्दोलनों और शहीदों के बलिदान के बाद बना यह राज्य इतनी जल्दी पलायन की चपेट में आ जायेगा किसी को अंदाज़ा नहीं था। इसके लिए हम किसी और को दोष नहीं दे सकते, हमने अपनी बर्बादी कि दास्तान खुद लिखी है। जल्द ही अगर हमने अपनी मूलभूत सुविधाओं, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं तथा उनकी गुणवत्ता की उचित निगरानी, लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास; बिजली, पानी सड़क और पर्यटन पर ध्यान नहीं दिया तो उत्तराखंड के तबाह होने की कहानी भी हम ही लिखेंगे।