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क्या आप चश्मे के इस 700 साल से भी पुराने इतिहास को जानते हैं ?

मुगलकालीन भारत में चश्मे के प्रयोग का सबूत, 1565-70 के दौरान बनाई गई मीर मुसव्विर की नीचे दी हुई तस्वीर से मिलता है। जिसमें उन्हें चश्मा पहने हुए पढ़ते हुए दिखाया गया है। यह चश्मा लकड़ी से तैयार फ्रेम से बना दिखता है और चश्में को नाक पर टिकाने के लिए इसमें तार का इस्तेमाल किया गया है। इतिहासकार इक़बाल ग़नी खान लिखते हैं कि फ़ैजी ने 1595 ई. में अपनी मृत्यु से पहले अब्दुल हक़ मुहद्दीस देहलवी को लिखे एक खत में चश्मे का ज़िक्र किया है। अकबर के दरबार में भी 1580 ई. में जेसुइट पादरियों के चश्मे पहनने का साक्ष्य मिलता है।

वहीं, दक्षिण भारत में 1520 ई. में लिखे गए एक ग्रंथ ‘व्यासयोगीचरित’ (सोमनाथ कवि द्वारा रचित) में व्यासराय द्वारा चश्मे के सहारे पोथियां पढ़ने का उल्लेख लिया गया, यह चश्मा व्यासराय को शायद पुर्तगालियों से भेंट में मिला था। मज़ेदार बात यह है कि ‘व्यासयोगीचरित’ में चश्मा (जो एक फ़ारसी शब्द है) के लिए, ‘उपलोचनगोलक’ शब्द का इस्तेमाल किया गया।

जमालुद्दीन इंजू ने, 1608-09 ई. में लिखी गई अपनी किताब ‘फरहंग-ए-जहांगीरी’ में भी चश्मक-ऐनक शब्द का प्रयोग किया है। धीरे-धीरे अरबी ‘ऐनक’ की जगह फ़ारसी ‘चश्मे’ ने ले ली। लाला टेक चंद ने, जब 1739 ई. में ‘बहार-ए-अज़म’ की रचना की, तो उन्होंने उन कविताओं की सूची बनाई जिनमें चश्मा-चश्मक शब्द का इस्तेमाल हुआ था। चश्मों का इस्तेमाल, इक़बाल ग़नी ख़ान की मानें तो, बहुत-कुछ आजमाने और गलतियाँ करने पर निर्भर होता था, क्योंकि चश्मे के लेंस की सही क्षमता का अंदाज़ा तब तक नहीं लगाया जा सका था। लिहाज़ा, अब्दुल जलील बिलग्रामी जैसे लोगों के लिए, जो चश्मे के मुरीद हो चुके थे, एक बढ़िया चश्मा हासिल करना काफी मशक़्क़त भरा काम होता था।

वैसे, चश्मे का इतिहास कुल सात सौ साल से भी अधिक पुराना है। चश्मे का आविष्कार 1286 ई. में, इटली के नगर, पीसा के एक दस्तकार ने किया था। अफसोस कि इस महान आविष्कारक का नाम भी अब हम नहीं जानते हैं। बाद में, उस अज्ञात दस्तकार के इस महानतम खोज को लोकप्रिय बनाने का काम किया एक रोमन कैथोलिक भिक्षु आलेजान्द्रो डेला स्पिना ने। वेनिस में काँच-उद्योग की मौजूदगी ने भी तेरहवीं-चौदहवीं सदी में चश्मे को इटली में लोकप्रिय बनाने और उसके उत्पादन में योगदान दिया। पेट्रार्क (1304-74) ने भी, जिन्हें मानववादियों में अग्रणी माना जाता है और जो अपनी प्रेमपूर्ण कविताओं के लिए जाने जाते हैं, अपनी किताब ‘लेटर्स टु पोस्टारिटी’ में अपनी नजर के कमजोर होने और चश्मे का इस्तेमाल करने का उल्लेख किया है।

बगैर प्रकाश-विज्ञान (ऑप्टिक्स) के विकास को समझे चश्मे के इतिहास को नहीं समझा जा सकता। प्राचीन ग्रीक में, अरस्तू से पूर्व यह धारणा थी कि चीजें हमें इसलिए दिखाई देती हैं, क्योंकि हमारी आँखों से निकलने वाली ज्योति उन पर पड़ती है। यूक्लिड ने इस धारणा को ख़ारिज करते हुए बताया कि चीजें ख़ुद प्रकाश की किरणें आँखों तक भेजती हैं, जिसकी वजह से वे हमें दिखाई देती हैं। 9वीं से 11वीं सदी के दौरान, याक़ूब अल किंदी, अल-राज़ी और इब्न सिना सरीखे इस्लामिक दुनिया के वैज्ञानिकों-दार्शनिकों ने प्रकाश के अपवर्तन (रिफ़्रेक्सन), परावर्तन (रिफ्लेक्सन) और छवि-प्रक्षेपण (इमेज़-प्रोजेक्सन) के सिद्धांतों पर काफी सोच-विचार किया।

लेकिन ऑप्टिक्स पर सबसे क्रांतिकारी और विचारोत्तेजक किताब लिखी, इब्न अल-हयथम ने (जिन्हें लैटिन भाषा में अलहेजेन कहा जाता है, वैसे ही जैसे इब्न सिना को लैटिन में एविसेना और इब्न रुश्द को एविरोस कहा जाता है)। 11वीं सदी में लिखी गई, अल-हयथम की किताब का शीर्षक था: “किताब अल-मनाज़िर” यानी बुक ऑफ ऑप्टिक्स। यह किताब 1572 ई. में लैटिन भाषा में अनूदित हुई। मध्यकालीन इस्लाम और विज्ञान के गंभीर अध्येता हॉवर्ड टर्नर के अनुसार, अल-हयथम ने पहले तो इस बात का अध्ययन किया कि अलग-अलग माध्यमों (मीडियम) से, मसलन, हवा, पानी, काँच आदि से गुजरते हुए प्रकाश की किरणें कैसे अपवर्तित होती हैं या विचलित होती हैं। अल-हयथम ने यह भी दिखाया कि कैसे सूर्यास्त के समय क्षितिज से नीचे रहते हुए भी सूर्य, हमें वातावरण में होने वाले प्रकाश के अपवर्तन के कारण दिखाई देता है।

अल-हयथम के बाद, कमालुद्दीन अल फ़रिसी (‘तनकीह अल मनाज़िर’ में), नासिरुद्दीन तुसी (‘तहरीर अल-मनाज़िर’ में), कुतुबद्दीन अल-शियाज़ी और मुहम्मद बिन मंसूर जुर्जानी आदि ने ऑप्टिक्स के सिद्धांतों पर 11वीं-14वीं सदी के दौरान गहन सोच-विचार किया। हुसैन इब्न इशाक ने पहली बार मानव-नेत्र का एक संरचनात्मक ख़ाका (एनाटोमिकल डायग्राम) बनाया। पर इक़बाल ग़नी ख़ान लिखते हैं कि जब ऑप्टिक्स के सिद्धांतों को महज इंसान की नजरों को दुरुस्त करने तक सीमित कर दिया गया, वहीं पर इस्लामिक दुनिया में प्रकाशविज्ञान (ऑप्टिक्स) और ऑप्टोमेट्रि का विकास भी बाधित हो गया।

चीन में भी 15वीं सदी के मध्य में चश्मे के प्रयोग का पहला उल्लेख मिलता है। दूरदृष्टिदोष (प्रेसबियोपिया) के लिए तो उत्तल (कनवेक्स) लेंस का प्रयोग 16वीं सदी से पहले ही होने लगा था, पर निकटदृष्टिदोष (मायोपिया) के लिए अवतल (कनकेव) लेंस का प्रयोग 16वीं सदी में ही शुरू हो सका। लेंस की क्षमता का ठीक-ठीक अंदाज़ा न होने की वजह से लंबे समय तक सही चश्मे के लिए लोगों को ‘ट्रायल-एंड-एरर’ की प्रणाली पर ही भरोसा करना पड़ता था।

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