आइये आप सबको एक नदी की कहानी सुनाते हैं। भगवान कृष्ण का पैर स्पर्श करने की वजह से यह नदी बहुत पवित्र मानी जाती रही है। ऐसा माना जाता है कि इसमें स्नान करने से सारे पाप अपने आप ही धुल जाते हैं। लोग बताते हैं कि इस नदी का रंग पहले ‘नीला’ हुआ करता था। फिर लोगों ने सोचा की कृष्ण का रंग ‘काला’ है तो नदी का रंग ‘नीला’ क्यों? क्यों न नदी के रंग को भी काला किया जाए और सिर्फ रंग ही क्यों हम चाहे तो उसका रास्ता भी बदल सकते हैं, उसे जहां चाहे रोक सकते हैं, जहां चाहे बहा सकते हैं। उसमें कुछ भी डाल सकते हैं, उस से कुछ भी निकाल सकते हैं। हम मनुष्य हैं जो चाहे वो कर सकते हैं। तब से हम तन, मन और धन से नदी के साथ खेल खेलने में लग गये।
नदी को ‘काला’ करने की होड़ में दिल्लीवासी सबसे आगे हैं। हमने नदी के ऊपर कई बैराज बनाए। बैराज के एक तरफ शहर की प्यास बुझाने के लिए पानी साफ किया जाता है और दूसरी तरफ का हिस्सा वीरान छोड़ दिया जाता है। मर रही नदी के लिए कब्रगाह का इंतज़ाम तो करना पड़ता है न?
नदी का पानी साफ करके शहर की प्यास बुझाने के लिए भेज दिया जाता है, पर दिल्ली तो जैसे शहर न होकर सुरसा का मुंह हो गया है। कितना भी पानी दो इसकी प्यास ही नहीं बुझती बल्कि और बढ़ती ही जाती है। फिर सारा इस्तेमाल किया हुआ पानी जिसमें हमारा मल-मूत्र भी शामिल है, नदी को श्रद्धा पूर्वक अर्पित करके उसे और पवित्र बनाते हैं। एक आंकड़े के अनुसार दिल्लीवासी हर दिन 1900 मिलियन लीटर मल-मूत्र इस नदी को अर्पित करते हैं। एक अधिकारी ने तो इसे ‘मल-मूत्र के नाले‘ की उपाधि से अलंकृत किया है। कुल बाईस मल-मूत्र के नाले इस नदी में सीधे अर्पित होते है और इसे काला करने में अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं।
इस तरह लोगों ने इसे ‘काला’ करने का प्रशंसनीय काम किया है। अचानक से उन्हें ध्यान आया कि हम इसे इतना ‘काला’ न कर दें कि हमारे घरों में जो ‘नीला’ पानी आता है वो भी ‘काला’ हो जाए। फिर सब मिल कर इसे ‘क्लीन’ करने के अभियान में जुट गये। सबने अपने-अपने तरीके से इसे ‘क्लीन’ करने का प्रयास किया। कोई इसे समाजवादी तरीके से ‘क्लीन’ कर रहा था, तो कोई इसे पूंजीवादी तरीके से ‘क्लीन’ कर रहा था। इस सफाई अभियान में विदेशी तकनीकें भी शामिल हुई लेकिन एक तकनीक इन सब पे भारी पड़ी वो है ‘भ्रष्टाचार तकनीक’।
लोगों की गैर ज़िम्मेदारी ने इस सफाई अभियान में चार चांद लगा दिए। इसे साफ करने के क्रम में न जाने कितने आयोग, तकनीके, फाइलें और बजट नदी के मुंह में ठूस दिए गये। पर ये नदी है कि साफ होने का नाम ही नहीं लेती। अब तो नदी ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए कि भईया हमें अब और ‘क्लीन’ नहीं होना है। अपना पाप धोने की ज़िम्मेदारी आप ही संभालो और सुबह शाम जो फ्लश करके प्रसाद छोड़ते हो उसी में डुबकी लगाओ। इस तरह यह नदी इस धरती से धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है। आप सोच रहे होंगे कि मैं किस नदी की कहानी सुना रही हूं। जी हां उस सौभाग्यवती नदी को ‘यमुना’ कहते हैं।