दूसरे विश्वयुद्ध का अंत एक तरह से 1945 में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिराने के बाद ही हुआ था, फिर भी आज जापान दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में चौथे नंबर पर है। जापान का क्षेत्रफल और जनसंख्या अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में काफी कम है, इसलिए इसके मायने और बढ़ जाते हैं। अब ये बात समझना ज़रूरी है कि जापान ने ऐसा क्या किया जिससे 1945 में बुरी तरह से टूट चुका यह देश आज दुनिया की ऊंचाई पर हैं।
इसका एक ही जवाब मिलता है, वो यह कि जापान ने अपने नागरिकों को विकसित करने की पहल की और फलस्वरूप देश भी विकसित हो गया। 1947 में जापान ने शिक्षा सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम “शिक्षा का मूल अधिकार” कानून के रूप में बनाकर उठाया। यह कानून देश के हर नागरिक को शिक्षा का मूल अधिकार देता था और इसके तहत “सम्पूर्ण व्यक्ति” के विकास की रूप रेखा तय की गयी थी। आर्टिकल 10 में कहा गया था कि शिक्षा का मतलब अपरोक्ष रूप से व्यक्ति को क़ाबू करना नहीं बल्कि सारे समाज के लिये जवाबदेह बनाना है। इसी कानून के आर्टिकल 6 में कहा गया कि टीचर्स को पूरे समुदाय के लिये एक सेवक के रूप में देखा जाये।
इसी कानून के तहत हर नागरिक को 6 से 9 सालों तक पूर्ण रूप से मुफ्त शिक्षा देने की व्यवस्था थी। इस फ़ॉर्मूला को 6-3-3-4 के नाम से जाना जाता है, यानी कि 6 साल प्राथमिक शिक्षा, 3 साल छोटी द्वितीयक शिक्षा, 3 साल बड़ी द्वितीयक शिक्षा और आखिर के 4 साल बड़ी पूर्वस्नातक शिक्षा। जापान में प्रोफेशनल ट्रेनिंग स्कूल और कॉलेजों में अभ्यास कर विद्यार्थी बाज़ार में मांग के अनुरूप तैयार शिक्षित होकर निकलता है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक जापान ने अपने 2016 के सरकारी बजट में अपनी सोशल सिक्योरिटी के लिये 31,973.8 ट्रिलियन येन, शिक्षा और विज्ञान के लिये 6650.9 ट्रिलियन येन और देश की रक्षा के लिये 5,054.1 ट्रिलियन येन रखे हैं। यानी कि शिक्षा पर सरकार अपनी रक्षा से ज़्यादा ध्यान देती है। इन्हीं कोशिशों से 1945 के बाद अगले 10 सालों में जापान एक बार फिर से मजबूत देश बनाने में सक्षम हो पाया। प्राइवेट सेक्टर को सरकारी बैंकों ने भारी-भरकम लोन दिये और दिशा निर्देश दिये कि विकास के लिये कार्य हो।
इसी मार्ग पर चलते हुये उन सभी ऑटोमोबाईल कंपनियों ने आम जनता के लिये वाहन बनाने शुरू किये जो पहले युद्ध सामग्री बनाया करती थी, जैसे टोयोटा, निशान, इसुजु, इत्यादि। बाद में इनका सिक्का दुनिया में स्थापित हो गया। इसी दौरान नेवी के दो रिटायर्ड कर्मचारियों ने मिलकर सोनी कंपनी की स्थापना जो बाद में एक बड़ा ब्रांड बनी।1951 तक जापान की अर्थव्यवस्था जो यूरोपीय देशों से काफी पीछे थी, वो 1971 के आते-आते अधिकांश यूरोपीय देशों से आगे हो चुकी थी।
अब अगर भारत की शिक्षा प्रणाली पर एक नज़र डालें तो भारत में शिक्षा का मतलब रोज़गार और नौकरी है और इसका मूल स्वरूप एंट्रेंस परीक्षा है। जो वही रट्टे मार कर और लकीर का फकीर बन कर दी जाती है। प्रेक्टिकल टेस्ट ना के बराबर होता है। अभी हम भारतीय जिस सॉफ्टवेर इंडस्ट्री पर गर्व करते हैं, वो भी कई तरह की कंप्यूटर लैंग्वेज पर ही टिकी हुई है। मुझे नहीं पता कि हमने कौन सी कंप्यूटर लैंग्वेज का निर्माण किया है, नेट, जावा, पीएचपी इत्यादि सभी कंप्यूटर लैंग्वेज बाहर के देशों में ही बनी हैं। यहां भी हम लकीर के फकीर ही हैं। मुझे कोई भी ऐसा भारतीय नाम नहीं पता जिसकी खोज से एक रेवोलुशन आ गया हो।
अब अगर हमारे देश के इस साल के बजट पर नज़र डाले तो सेहत और शिक्षा के लिए 1,51,581 करोड़ रुपये रखे गए हैं और इससे ज़्यादा हमारी डिफेंस के लिये 2.58 लाख करोड़ रुपये रखे गए हैं। ऐसी स्थिति में तो लकीर के फकीर ही मिलेंगे। अगर सही दृष्टि में भारतीय नागरिक का विकास करना है तो उसकी सोच और उसकी जीवन शैली का विकास करना होगा जिसके लिये हमारी शिक्षा प्रणाली में इंकलाब लाने की ज़रूरत है।