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महिला सशक्तिकरण का एक बेहतर विकल्प हो सकता है अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह

याद कीजिए कि आखिरी बार हमने कब ऐसी खबरों को बहुत सीरियसली लिया था जिसके टाइटल यूं होते हैं, ‘आज एक प्रेमी जोड़े ने आत्महत्या कर ली’  या ‘प्रेमी युगल की हत्या कर दी गई’ या प्रेमी ने प्रेमिका से दूर रहने के कारण आत्महत्या कर ली? वहीं अगर टाइटल ये हो कि ‘प्रेमिका को लेकर प्रेमी हुआ फरार’ या ‘प्रेमी-प्रेमिका ने घर से भागकर रचाई शादी’ तो हमारी टिप्पणी और गुस्सा हमारी सभ्यता का रक्षक बनकर सामने ज़रूर आता है।

ऐसी रूढ़िवादी सोच हमारे संमाज में आज भी है, कुछ अभिभावक अपने पुत्र या पुत्री को अपनी जाति के ही वर/वधू से शादी करने की सलाह देते हैं। हमारे समाज में पुरुषों को तो फिर भी रियायत मिल जाती है लेकिन सार्वजनिक तौर पर महिलाएं आज भी अपनी मर्ज़ी और अपने चुनाव को लेकर संघर्षरत हैं।

इसका एक बड़ा कारण इस देश में व्याप्त जाति व्यवस्था की अपनी सहूलियत भरी समझ भी है, मसलन एक महिला के निजी चयन के दमन में जाति को भी कैसे एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है ये इस उदाहरण से स्पष्ट है। हमारे देश में मैरेज प्रपोज़ल के जवाब में शायद सब से ज़्यादा बार कही गई बात ये होगी।

“मेरे पिता जी मेरी शादी किसी मेरी ही जाति के लड़के से कराना चाहते हैं मैं आपसे शादी नहीं कर सकती, सॉरी !”

पहले हमारे समाज में सती प्रथा व विधवा पुनर्विवाह न होना जैसी कुप्रथा थी जिसे सैकड़ों वर्ष बाद सामाजिक हित में नष्ट कर दिया गया पर जातिवादी व्यवस्था का महिला दमन के लिए इस्तमाल बदस्तूर जारी है।

बहुत लोग कहते हैं की प्यार करना/अपनी मर्ज़ी से शादी करना/महिलाओं को व्यापक चयन का अधिकार होना, हमारी संस्कृति के खिलाफ है, भारतीय संस्कृति धर्मों की विरासत है और हमें इसे आगे ले जाना चाहिए, जो महिलाएं अपने आप को आज़ाद मानती हैं वो पश्चिमी सभ्यता से ग्रसित हैं। मैं कहता हूं कि यदि भारतीय संस्कृति महिलाओं के उनके बुनियादी अधिकार नहीं दे सकती/उन्हें घूमने-फिरने की आजादी नहीं दे सकती/हां ये न कहने का अधिकार नहीं दे सकती/अपने मन-मुताबिक चीज़ों का चुनाव का अधिकार नहीं दे सकती, तो यह संस्कृति नहीं बल्कि शोषण है।

यह शोषण नाम की संस्कृति हम पर जन्म लेते ही थोप दी जाती है और कोई भी सभ्यता पश्चिमी हो या कोई और अगर हमें कुछ नया व सामाजिक हित के लिए आवश्यक चीज़ दे सकती है तो हमें उसे खुले हाथ से स्वीकार कर लेना चाहिए।

स्वतंत्रता के 70 वर्ष बीत गए, संविधान के लागू हुए 66 वर्ष बीत गए पर अब भी महिलाओं को उनके अधिकार प्राप्त नहीं है, महिलाएं अब भी कई क्षेत्रों में घर की चौखट तक ही सीमित हैं। वो अपनी मर्ज़ी से अपना हमसफ़र नहीं चुन सकती/हां या ना नहीं कर सकती तो यह आज़ादी हमारे किस काम की।

भारत में महिलाओं को मानसिक आज़ादी ना होना एक जटिल समस्या है और यह समस्या दिन ब दिन हिंसा का रूप लेती जा रही है। दरअसल हमें जन्म लेते ही धर्म की किताबों से ज़्यादा संविधान की किताब की ज़रूरत है  जो समता, समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता का प्रतीक है।

विवाह को अंतरजातीय तक ही सीमित न रखकर, अंतर-समुदायिक और अंतर-धार्मिक भी करना चाहिए। एक बात बिलकुल सत्य है कि यदि इस देश में महिलाओं को मानसिक और भावनात्मक आज़ादी मिल गई तो वह दिन दूर नहीं जब भारत बाकी सामाजिक तौर पर विकसित देशों के साथ कदम से कदम मिलाकर खड़ा होगा। अब हमें महिलाओं के साथ उनके जन्मसिद्ध/बुनियादी अधिकार की लड़ाई लड़नी होगी और वह समय अभी है।

 

 

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