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“मेरा नाम रिज़वान शाहिद है और मेरे बचपन के राम का कोई मज़हब नहीं था”

“अम्मी जब डोला आए तो मुझे जगा देना” रामलीला के दौरान भरत मिलाप वाले दिन मैं हमेशा अम्मी से यही कहकर सोता था। राम, सीता और लक्ष्मण के स्वरूप भरत से मिलाप के लिए जाते वक्त हमारे घर के अहाते में रुका करते थे। वक्त रात के करीब 12 बजे के आस-पास का होता था और यह परंपरा मैंने बचपन से देखी थी, जहां राम के डोले (स्थानीय भाषा में राम की सवारी को राम का डोला कहते थे) का फूलों के हार से स्वागत किया जाता था और पान वगैरह खाकर सवारी आगे बढ़ जाया करती थी।

मेरे बचपन का हिस्सा रही यह स्मृति मुझे हमेशा रोमांचित करती थी, जहां मैं साक्षात भगवान राम से मिलता था, मेरे लिए तो वही राम थे, स्वरुप शब्द की जटिलताओं को एक बच्चा शायद ही समझ सके।

दूसरे दिन स्कूल जाकर भगवान से मुलाकात के किस्से मैं दोस्तों को गर्व से बताता था। साथ ही रामलीला के उपलक्ष्य में लगे मेले में मैं अपने डैडी और भाई के साथ लगभग रोज़ ही जाया करता था, बड़ा मज़ा आता था। झूले, चाट, जादू का शो और छोटी-छोटी खिलौनों की दुकानें मुझे बहुत रोमांचित करती थी। जितना इंतज़ार मुझे ईद आने का रहता था उतना ही इंतज़ार मैं दशहरा आने का करता था। बचपन की वो यादें बिलकुल भी धुंधली नहीं हुई हैं जहां राम मेरे लिए पराये नहीं बल्कि मेरी ज़िन्दगी का एक हिस्सा हुआ करते थे।

जब तक मुझे पता ही नहीं था और ना ही बताया गया था कि मज़हब अपने और पराये के रिश्तों को समझाता है। या यूं कहें के अपने और पराए की सलाहियत ही नहीं थी मेरे अंदर। लेकिन क्या मेरे घर वाले और शहर के तमाम लोग भी मज़हब नहीं समझते थे। डैडी के खास दोस्त पांडेय जी भी शायद मज़हब के मामले में अज्ञानी थे।

फिर पता नहीं क्या हुआ डोला आना भी बंद हो गया या कर दिया गया और लोग समझदार होते चले गए। मज़हब को विस्तार पूर्वक समझाया जाने लगा। तब कहीं जाकर मुझे राम का मज़हब भी समझ आया, शायद 1992 था वो।

लेकिन आज भी मुझे अपनी बचपन की यादों में अंजान और अज्ञानी बने रहना ही अच्छा लगता है।

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